Saturday 1 September 2018

विकास दर : इतराने से बचें

देश से प्यार करने वाले हर व्यक्ति को ये जानकर हर्ष हुआ होगा कि मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर ने अनुमानों से बेहतर प्रदर्शन करते हुए 8.2 फीसदी का आंकड़ा छू लिया। सरकारी दावे के साथ-साथ उद्योग जगत ने भी ये माना है कि नोटबंदी  के झटके से अर्थव्यवस्था उबर चुकी है वहीं जीएसटी को लेकर उत्पन्न हुई शुरूवाती अड़चनें भी क्रमश: दूर होती जा रही है जिससे पटरी से उतरती दिख रही अर्थव्यवस्था फिर संभलकर रफ्तार पकडऩे लगी है। इस चमत्कारिक नतीजे के बाद अर्थशास्त्री ये अनुमान लगाने लगे हैं कि वित्तीय वर्ष 18-19 में विकास दर 7.5 फीसदी तक रह सकती है जो वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए बहुत बड़ी बात है। सबसे उल्लेखनीय चीज है मैन्युफैक्चरिंग, निर्माण तथा कृषि क्षेत्र में वृद्धि होना क्योंकि इन्हीं के माध्यम से सर्वाधिक रोजगार सृजन होता है। विगत दो वर्षो से खेती काफी मार खा रही थी जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहद चिंताजनक होने लगी थी। बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या की वजह से केन्द्र व राज्य सरकारों के प्रति नकारात्मक छवि भी बन गई थी। कृषि क्षेत्र आज भी सर्वाधिक रोजगार देता है। उसके बाद निर्माण क्षेत्र है। इन दोनों की दशा बिगडऩे की वजह से ही अच्छे दिन के दावे उपहास का पात्र बन गये। बची-खुची कसर कल-करखानों में उत्पादन घटने के तौर पर सामने आई। नोटबंदी के हमले से जैसे-जैसे उबरा मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर जीएसटी के फेर में उलझकर ठहराव का  शिकार होकर रह गया। बेरोजगारी के आंकड़े सरकार की आर्थिक नीतियों की विफलता का मापदंड बन गये। खैर, अपै्रल से जून की तिमाही के परिाणामों ने पूरे देश का उत्साह बढ़ाया है। भले ही जमीनी स्तर पर इसे महसूस करने में थोड़ा समय लगे किन्तु नरेन्द्र मोदी के कटु आलोचक भी ये तो मानते ही हैं कि उनकी आर्थिक नीतियां दूरगामी लक्ष्यों पर आधारित हैं जिनके परिणाम तात्कालिक भले न नजर आएं किन्तु वे अर्थव्यवस्था के आधार को मजबूती प्रदान करने वाले हैं। लेकिन कच्चे तेल की कीमतों में निरंतर उछाल से पेट्रोल-डीजल का महंगा होता जाना तथा डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये का रिकॉर्ड स्तर तक गिरना विकास दर के खूबसूरत आंकड़े को विरोधाभासी बना देता है। यद्यपि कच्चा तेल और उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली उथलपुथल से डॉलर निरंतर महंगा होता जा रहा है लेकिन सरकारी स्तर पर इस संबंध में समुचित स्पष्टीकरण नहीं आने से उसकी लाचारी उजागर हो रही है। वैसे इस सबके बीच एक संकेत उम्मीदें जगाने वाला है और वह है विदेशी निवेश की आवक में वृद्धि। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण शेयर बाजार के सूचकांक में रोजाना आ रहा उछाल है किन्तु केन्द्र सरकार के आर्थिक नियोजकों को पहली तिमाही की विकास दर के आंकड़े से आत्ममुग्ध होने की बजाय इस बात की चिंता करनी चाहिए कि कारोबारी जगत में बना उत्साहजनक वातावरण निरंतर बना रहे। बीते कुछ महीनों में जीएसटी में किये गये सकारात्मक बदलावों से भी उद्योग-व्यापार जगत को राहत मिली है किन्तु अभी और सरलीकरण की जरूरत है। जैसे संकेत आ रहे हैं उनके अनुसार इस या अगले महीने पेट्रोल-डीजल को भी जीएसटी के दायरे में लाने संबंधी फैसला हो सकता है। ऐसा होने पर अर्थव्यवस्था में और भी उछाल हो सकेगा ऐसा अर्थशास्त्री एकमत से कह रहे हैं। बेहतर होगा कि जिस तरह निराशाजनक आंकड़ों के समय सरकार ने धैर्य नहीं खोया ठीक उसी तरह जो आंकड़े गत दिवस आये हैं उन्हें स्थायी मानकर उछलने की बजाय ये देखते रहने की जरूरत है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली उठापटक और उससे उत्पन्न अनिश्चितता से भारतीय अर्थव्यवस्था कैसे सुरक्षित रह सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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