Thursday 13 September 2018

एक खत्म होता नहीं दूसरा आ जाता है


किसी फार्मूला फिल्म की तरह कहानी में नये-नये मोड़ आ रहे हैं। पहले नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल को झटका फिर रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का संसदीय समिति को लिखा पत्र और उसके फौरन बाद 9 हजार करोड़ का कर्ज लेकर विदेश भाग गये विजय माल्या का देश छोडऩे से पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली से मिलकर कर्ज चुकाने की पेशकश संबंधी बयान। इन तीनों पर सियासी बवाल मचा जो स्वाभाविक था क्योंकि तीनों घटनाओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध देश के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व से है। नेशनल हेराल्ड मामले में सोनिया जी और राहुल के पुराने आयकर रिटर्न खोलने पर लगी रोक उच्च न्यायालय ने हटाकर उनके लिए मुसीबत पैदा कर दी क्योंकि उन रिटर्न की दोबारा जांच होने पर गांधी परिवार को कुछ न कुछ परेशानी तो होगी ही वरना वे उनको दोबारा खोले जाने पर रोक लगवाने हाथ-पाँव नहीं मारते। इसी तरह रघुराम राजन के पत्र से जो सबसे बड़ा विवाद मचा वह ये कि उन्होंने जिन बड़े बकायादारों की सूची प्रधानमंत्री को देने की बात कही वह डा. मनमोहन सिंह को दी या नरेन्द्र मोदी को ये साफ नहीं हो सका लेकिन उन्होंने इतना जरूर कहा कि डूबन्त कर्जों में अधिकतर यूपीए सरकार के कार्यकाल में बांटे गये थे। इसे लेकर बहस पूरी हो पाती कि विजय माल्या का बयान लंदन से आ गया जिसमें उन्होंने भारत छोडऩे से पहले अरुण जेटली से मिलकर बैंक ऋण चुकाने का प्रस्ताव देने की बात कह दी। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा गांधी परिवार के पुराने आयकर रिटर्न की जांच नये सिरे से कराये जाने संबंधी आदेश के बाद श्री राजन की चिट्ठी से रक्षात्मक होने के लिए मजबूर हुई कांगे्रस को अचानक माल्या के बयान से हमलावर होने का अवसर मिल गया और राहुल गांधी ने बिना देर किए प्रधानमंत्री से मांग कर डाली कि वित्तमंत्री को हटाकर मामले की जांच की जाए। उनकी बात में दम भी दिखा क्योंकि माल्या के बयान से प्रथम दृष्ट्या ये लगा मानो उसके विदेश भागने के बारे में वित्तमंत्री को पता था। यद्यपि ये भी सही है कि बैंक के कर्ज संबंधी विवाद में केन्द्रीय वित्तमंत्री किसी की मदद नहीं कर सकते क्योंकि वह मामला कर्जदार तथा बैंक के बीच का रहता है। बावजूद इसके कांगे्रस सहित अन्य विपक्षी दलों का श्री जेटली पर किया गया हमला निरर्थक नहीं था। यद्यपि वित्तमंत्री ने भी स्पष्टीकरण देने में विलंब नहीं किया तथा स्पष्ट कर दिया कि माल्या की उनसे भेंट चलते-चलते हुई। सदन से निकलते हुए अपने कमरे में जाते वक्त माल्या ने उनसे कर्ज चुकाने संबंधी बात करना चाही परन्तु उन्होंने उसे संबंधित बैंक से संपर्क करने कहकर अनदेखा कर दिया। हल्ला मचते ही लंदन से माल्या ने भी दूसरा बयान देकर इस बात की पुष्टि कर दी कि वित्तमंत्री से उस संबंध में कोई औपचारिक मुलाकात नहीं हुई। हालांकि विपक्ष अभी भी मुद्दे को गरमाए रखना चाहता है परन्तु वित्तमंत्री की सफाई और उसके बाद ही माल्या के दूसरे बयान से जो सनसनी पैदा हुई थी वह ठंडी पड़ गई। लेकिन उक्त तीनों प्रकरणों में एक बात सामान्य है और वह है आर्थिक अनियमितताओं के साथ राजनीति का सीधा संबंध। चाहे मामला 2006 से 2008 के बीच बैंकों से अरबों-खरबों के कर्ज बांटने में हुई लापरवाही का हो या नेशनल हेराल्ड के स्वामित्व को लेकर कांगे्रस पार्टी के कोष से 90 करोड़ रुपये की हेराफेरी का या फिर माल्या, नीरव मोदी और उन जैसे अन्य भगोड़े कर्जदारों का, सभी को राजनीतिक संरक्षण की बात कही जा रही है। सतही तौर पर देखें तो शीर्ष स्तर पर बैठे राजनेता ही उक्त घोटालों के साथ कहीं न कहीं जुड़े रहे हैं। ऐसी स्थिति में विश्वास का संकट उत्पन्न होना लाजमी है। रघुराम राजन के पत्र से जो दो स्थितियां सामने आईं उनमें पहली ये कि यूपीए सरकार के जमाने में ऐसे ऋण बंटवाए गए जो बाद में डूबने के कगार पर आ गए और दूसरी ये कि एनडीए की मौजूदा सरकार के कार्यकाल में उनमें से तमाम बड़े कर्जदार पैसा डकारकर विदेश भागने में सफल हो गये। इसी तरह नेशनल हेरॉल्ड मामले में जिस तरह कांगे्रस पार्टी के चंदे के पैसे का उपयोग गांधी परिवार ने निजी हितों के लिए किया वह भी मामूली बात नहीं है। कुल मिलाकर जिस तरह रोजाना कोई न कोई नया मामला उछलता है उससे ये तो लगने ही लगा है कि पूरे कुएं में मांग घुलने वाली स्थिति उत्पन्न हो गई है। बैंकों का बढ़ता एनपीए अर्थव्यवस्था पर बड़ा बोझ बनता जा रहा है। भगोड़े कर्जदारों ने जिस तरह योजना बनाकर देश से पलायन करने के बाद विदेशों में जाकर डेरा जमा लिया उसकी तैयारी वे पहले से कर चुके थे। बैंकों के प्रबंधन ने समय रहते उन पर कार्रवाई क्यों नहीं की तथा सरकार ने उन पर निगाह क्यों नहीं रखी जैसे सवालों का जवाब कोई नहीं दे रहा। बस राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप लगाकर बात घुमा दी जा रही है। कांगे्रस और गांधी परिवार ने भी आज तक कभी नेशनल हेरॉल्ड मामले में सार्वजनिक तौर पर स्थिति स्पष्ट करने की हिम्मत नहीं दिखाई। इन सब कारणों से आम जनता के मन में यदि ये धारणा बैठ गई है कि सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। क्या पता कल कोई नया बवाल पैदा हो जाए जिसमें पूरे देश को उलझाकर पुराने मामलों पर से ध्यान हटा दिया जावेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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