Thursday 6 September 2018

वरना रूठने-मनाने का सिलसिला चलता रहेगा

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला पार्टी के सबसे मुखर नेताओं में से हैं। राहुल गांधी को जनेऊधारी ब्राह्मण बताने का काम उन्हीं ने किया था। गत दिवस उन्होंने हरियाणा में ब्राह्मणों के एक कार्यक्रम में कहा कि कांग्रेस का डीएनए ब्राह्मणों से मिलता है। इसके आगे वे ये भी बोल गए कि यदि पार्टी सत्ता में आई तो हरियाणा में ब्राह्मण विकास बोर्ड बनाया जावेगा तथा उन्हें 10 प्रतिशत आरक्षण दिलवाने का प्रयास भी किया जाएगा। हालांकि किसी अन्य कांग्रेस नेता ने उनके बयान से रजामंदी नहीं दिखाई। ये भी माना जा सकता है कि ये उनकी निजी राय होगी क्योंकि भले ही राहुल गांधी कितने भी हिन्दू हो रहे हों परन्तु कांग्रेस में इतना साहस फिर भी नहीं होगा कि वह सवर्णों में से भी किसी एक जाति विशेष को अतिरिक्त सुविधाओं का वायदा कर सके। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि सवर्ण समाज की अन्य जातियां भी अपने लिये आरक्षण जैसी सुविधाएं मांग रही हैं। दरअसल ये मुद्दा अब सभी राजनीतिक दलों के गले की हड्डी बन गया है। सवर्णों द्वारा अनु. जाति/जनजाति कानून को दोबारा लागू किये जाने के लिए किये जा रहे विरोध पर भाजपा का सरकार में होने के कारण चुप रहना तो समझ में आ रहा है परन्तु कांग्रेस के तमाम बड़े नेता न तो खुलकर सवर्णों के समर्थन में खड़े होने की हिम्मत दिखा पा रहे हैं और न ही विरोध में। म.प्र. में जहां सवर्णों के आंदोलन को लेकर जबर्दस्त सक्रियता है वहां भी कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया अनु.जाति/जनजाति कानून को लेकर टिप्पणी करने से बच रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस के बड़े नेता बोलने से परहेज कर ये संकेत दे रहे हैं कि बर्र के छत्ते में पत्थर मारने की हिम्मत उनमें नहीं है। कुल मिलाकर जैसी आशंका थी इस कानून के कारण उत्पन्न असंतोष ने आरक्षण नामक व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों को एक बार फिर उजागर कर दिया है। संविधान सभा ने अनु.जाति/जनजाति के लोगों को शिक्षा एवं नौकरी में आरक्षण देने की व्यवस्था एक निश्चित समय सीमा के लिए की थी। बाद में राजनीतिक कारणों से उसे बढ़ाया जाता रहा। वजह ये बताई गई कि सदियों से वंचित रहने वाले दलित एवं आदिवासी वर्ग के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान का उद्देश्य पूरा नहीं हो सका लेकिन आरक्षण का जो स्वरूप बनता गया उसे देखते हुए तो वह मकसद कभी पूरा नहीं हो सकेगा। इसकी बड़ी वजह ये रही कि सभी राजनीतिक दलों ने आरक्षण को वोट की राजनीति का औजार बना लिया। वंचित वर्ग के चंद नेता तो प्रगति के चरम पर पहुंच गए परन्तु अधिकतर समाज आज भी बदहाली में जीने मजबूर हैं। आजादी के 71 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी यदि देश की बड़ी आबादी को उसका हिस्सा नहीं मिल सका तो इसके लिए सत्ता में बैठ चुकी हर पार्टी और उसके नेता जवाबदार हैं। भारत के बाद आजाद हुए तमाम छोटे-छोटे देश हमसे कई गुना आगे निकल गए। द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु हमले का शिकार जापान तो प्रगति के उच्चतम शिखर तक जा पहुंचा। दक्षिण कोरिया, मलेशिया, सिंगापुर, वियतनाम आदि आकार में भारत से बहुत छोटे हैं किन्तु आर्थिक विकास के पैमाने पर उनकी उपलब्धियां काबिले गौर हैं। रही बात आबादी की तो चीन ने इस समस्या को भी अपनी संपत्ति बनाकर विश्व शक्ति बनने की हैसियत हासिल कर ली। उक्त किसी भी देश में जाति अथवा धर्म के नाम पर न तो किसी के साथ भेदभाव किया जाता है और न ही किसी को विशेषाधिकार प्राप्त है। विकास के लिए सभी को समान अवसर और सुविधाएं सरकार देती है परन्तु योग्यता के साथ कोई समझौता या रियायत नहीं मिलती। हमारे देश की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है जहां आरक्षण के नाम पर समाज के एक बड़े वर्ग की उद्यमशीलता को धीरे-धीरे खत्म करते हुए उन्हें पूरी तरह राज्याश्रित बनाकर रख दिया गया। भले ही मुट्ठी भर लोग उससे लाभान्वित हो गए हों किन्तु गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतरने की वजह से उन्हें अपेक्षित सम्मान नहीं हासिल हो सका। वरना सात दशक तक आरक्षण नामक सुविधा के कारण तो अनु.जाति/जनजाति का पिछड़ापन दूर हो जाना चाहिए था। यही स्थिति अन्य पिछड़ी जातियों को लेकर बनी जिन्हें 1990 में मंडल आयेाग के जरिये आरक्षण रूपी झुनझुना तो थमा दिया गया परन्तु दूसरी तरफ मुक्त अर्थव्यवस्था और उदारीकरण के नाम पर सरकारी नौकरियां घटती चली गईं। यही वजह है कि अब आरक्षित समुदाय के नेता निजी क्षेत्र में भी आरक्षण हेतु दबाव बनाने लगे हैं। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि आरक्षण का लाभ उठाकर अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार कर लेने वालों का भी एक अभिजात्य वर्ग बन चुका है जो अपने समुदाय की बजाय केवल अपने परिवार के उत्थान में जुटा हुआ है। अब जबकि ये साबित होता जा रहा है कि आरक्षण इलाज की बजाय बीमारी बन गया है तब इसका स्थायी इलाज तलाशना समूची राजनीतिक बिरादरी की सामूहिक जिम्मेदारी बन जाती है। स्वर्ण नाराज हैं तो ब्राह्मणों की मिजाजपुर्सी शुरू कर दी जाए इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। बेहतर हो आरक्षण के समर्थन और विरोध में हो रहे आंदोलनों से निपटने के लिए तदर्थ उपाय तलाशने की बजाय ऐसी व्यवस्था की जावे जिससे समाज को टुकड़े-टुकड़े होने से बचाया जा सके। भाजपा और कांग्रेस ही नहीं बल्कि दलितों और पिछड़ों की सियासत कर रही अन्य पार्टियों को भी ये समझ लेना चाहिए कि मौजूदा विरोध केवल अनु.जाति/जनजाति कानून को दोबारा लागू करने का नहीं है। असली वजह आरक्षण है जिसके कारण सवर्ण समुदाय की नई पीढ़ी योग्यता के बावजूद भी अवसरों से वंचित होने के कारण कुंठा और आक्रोश का शिकार हो रही है। 21वीं सदी में केवल जाति के आधार पर किसी को पीछे धकेलने की कुप्रथा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता लेकिन इसके साथ ही योग्यता को दरकिनार रखते हुए उसके उत्थान का प्रयास भी कालांतर में नुकसानदेह ही होगा। यही वजह है कि आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था की खुलेमन से समीक्षा करते हुए उसका ऐसा विकल्प ढूंढना चाहिए जो भेदभाव रहित समाज की रचना में सहायक साबित हो। वरना एक को मनाने के प्रयास में दूसरे का रूठने का मौजूदा सिलसिला जारी रहेगा और चुनावी लाभ हानि के फेर में समाज को जातीय संघर्ष की आग में झुलसाता रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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