Wednesday 19 September 2018

संघ प्रमुख ने दिया भविष्य के भारत का संकेत

रास्वसंघ द्वारा दिल्ली में आयोजित भविष्य का भारत नामक त्रिदिवसीय आयोजन में अब तक उसका जो दृष्टिकोण संघ प्रमुख डॉ.मोहन भागवत ने व्यक्त किया उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे नया कहा जा सके। समन्वयवादी दृष्टिकोण और हिंदुत्व को राष्ट्रीयता मानने का विचार उसके मूल में रहा है। मौजूदा सन्दर्भ में संघ की भूमिका चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर और व्यापक हो गई  है तथा केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकार होने से ये आभास मजबूत हुआ है कि संघ उनके जरिये हिंदुओं का वर्चस्व कायम कर अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुस्लिम और ईसाई समुदायों का दमन करना चाह रहा है। इन दो समुदायों से उसकी दूरी के पीछे हिन्दू शब्द ही है जिसे साधारण तौर पर धर्म मान लिया जाता है। संघ के इस आयोजन का नाम चूंकि भविष्य का भारत है इसलिए उसका खुलकर बात करना अपेक्षित ही है। सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को आमंत्रण देने का मकसद भी शायद यही था कि यदि संघ संबंधी कोई गलतफहमी हो तो उसे दूर किया जा सके। लेकिन इस दिशा में उसे  विशेष सफलता नहीं मिली। कांग्रेस और वाम दलों के प्रतिनिधियों का इस आयोजन में शरीक नहीं होना तो पहले ही स्पष्ट था किंतु अन्य दलों का प्रतिनिधित्व भी बहुत उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता। फिल्म और कला जगत की अनेक हस्तियां अवश्य नजर आईं किन्तु वह भी बहुत महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उनमें ऐसे ज्यादा चेहरे नहीं हैं जिनकी सितारा हैसियत हो। विदेशी राजनयिक वगैरह भी आए तो उसके पीछे केंद्र में भाजपा की सरकार का होना बड़ा कारण माना जायेगा क्योंकि श्री भागवत या संघ के अन्य वरिष्ठ नेता कितना भी स्पष्टीकरण दें किन्तु आम अवधारणा यही है कि भाजपा और संघ दो जिस्म मगर एक जान हैं। गत दिवस संघ प्रमुख ने ये स्वीकार किया भी कि चूंकि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का संघ से जुड़ाव रहा है इसलिए ये मान लिया जाता है कि सरकार संघ के नियंत्रण में चलती है जबकि ऐसा नहीं है। उन्होंने साफ  शब्दों में कहा कि सरकार का रिमोट नागपुर में नहीं है क्योंकि दिल्ली में बैठे शासक सक्षम हैं। उन्होंने ये भी दोहराया कि संघ भाजपा को सलाह तो देता है लेकिन वह भी मांगने पर। लेकिन इन बातों को संघ पहले भी कहता रहा है इसलिए उनमें नयापन कुछ भी नहीं है तब प्रश्न उठता है कि आखिर इतने बड़े तामझाम का उद्देश्य और लाभ क्या है ? इसका उत्तर गत दिवस डॉ. भागवत द्वारा दिए भाषण में हिंदु राष्ट्र में मुसलमानों की अनिवार्य उपस्थिति के उल्लेख से मिल गया। सम्भवत: ये पहला अवसर होगा जब संघ प्रमुख ने इतना खुलकर कहा हो कि मुस्लिम रहित भारत हिंदुत्व की अवधारणा के विपरीत है। अपने सम्बोधन में उन्होंने संघ द्वारा राष्ट्रध्वज और संविधान में विश्वास नहीं रखने को लेकर भी स्पष्टीकरण दिया कि संघ की दोनों में आस्था है भले ही वह भगवा ध्वज को अपना गुरु मानकर उसकी छाया में कार्य करता है। उन्होंने सर सैयद को उद्धृत करते हुए जो बातें कहीं वे इस बात का संकेत हैं कि हिन्दू संगठन के तौर पर अछूत माने जाने वाले संघ ने अब खुलकर संवाद करने का अभियान शुरू कर दिया है। यूँ भी स्व.कुप.सी सुदर्शन के संघ प्रमुख बनने के बाद से ही इस संग़ठन ने अपने विरोधियों से आमने-सामने बैठकर संवाद का सिलसिला शुरू कर दिया था। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के रूप में संघ ने मुस्लिम समुदाय के बीच अपनी पहुंच बढ़ाने का जो प्रयास किया उसके भी अनुकूल परिणाम दिखने लगे हैं। इस कार्य के लिए संघ ने अपने वरिष्ठ प्रचारक श्री इंद्रेश को नियुक्त किया। मुस्लिम धर्मगुरुओं से प्रत्यक्ष संवाद के दौर भी चलाए गए। अब डॉ. भागवत ने जो बयान दिया वह उसी के आगे की कड़ी कही जा सकती है। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की जो बात संघ अभी तक कहता आया है उसका सीधा - सीधा अभिप्राय यही लगाया जाता रहा कि उसमें मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए कोई स्थान नहीं होगा लेकिन संघ प्रमुख ने गत दिवस जो कहा वह इस संगठन के बदले हुए रुख का प्रमाण है या इसके पीछे भी कोई रणनीति है ये स्पष्ट होने में थोड़ा समय लगेगा लेकिन पहले दिन स्वाधीनता आंदोलन में कांग्रेस के योगदान का उल्लेख और सबको साथ लेकर चलने की संस्कृति के अनुसरण की प्रतिबद्धता प्रदर्शित कर संघ प्रमुख ने सभी को चौंकाया तो है ही। भले ही काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस आयोजन में जाने से परहेज किया जो अपेक्षित भी था किंतु राहुल जिस हिंदुत्व के ब्रांड एम्बेसेडर बनने की कोशिश कर रहे हैं वह भी अप्रत्यक्ष रूप से संघ का ही प्रभाव कहा जाएगा। 2014 की करारी हार के बाद एके एंटोनी समिति ने जो रिपोर्ट दी थी उसमें कांग्रेस का एक समुदाय विशेष के प्रति झुकाव और हिंदुत्व की उपेक्षा को हार का प्रमुख कारण बताया गया था। यद्यपि उसके बाद के तीन सालों तक तो राहुल ने इस तरफ  ध्यान नहीं दिया किन्तु उप्र की हार ने उनकी आंखें खोल दीं और गुजरात चुनाव आते-आते तक वे हिन्दू ही नहीं बल्कि ब्राह्मण तक बन गए। भले ही राहुल संघ की कटु आलोचना से परहेज और संकोच नहीं करते हों लेकिन उनका हिंदुत्व के प्रति झुकाव संघ को मन ही मन इसलिए रास आ रहा है क्योंकि इस कारण राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दुत्व एक प्रमुख विषय बन गया जिसे दोनों प्रमुख पार्टियों का समर्थन प्राप्त है। संघ प्रमुख के ताजा बयानों को कुछ लोग इस नजर से भी देख रहे हैं कि मोदी सरकार की गिरती लोकप्रियता से चिंतित मातृ संगठन ने अभी से रक्षात्मक होने की तैयारी कर ली है। लेकिन इसे वृहद दृष्टिकोण से देखें तो संघ ने एक सकारात्मक कदम उठाते हुए संवाद की नई प्रक्रिया शुरू कर अपने आलोचकों और विरोधियों को असमंजस में डाल दिया है। भाजपा द्वारा तीन तलाक पर अपनाई गई नीतियों का मुस्लिम महिलाओं में जिस तरह स्वागत हुआ उससे संघ को भी ये लग गया कि उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए यही सर्वश्रेष्ठ समय है। डॉ. भागवत ने बड़ी ही सरलता और चतुराई के साथ संघ के विरोधियों को सोचने बाध्य कर दिया है। हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र को जिस नए अंदाज में संघ प्रमुख ने परिभाषित किया उस पर राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रिया होगी ये जल्द ही पता चल जाएगा किन्तु इतना तो जरूर है कि इस हिन्दू संगठन ने नई पीढ़ी को आकर्षित करने का सुनियोजित प्रयास शुरू कर दिया है जो भविष्य के भारत की असली ताकत होगी। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को नागपुर बुलाकर अपने मंच पर बिठाने के बाद संघ प्रमुख का दिल्ली आकर इतने बड़े आयोजन के जरिये संघ के दृष्टिकोण को खुलकर सबके सामने रखने का ये प्रयास आने वाले दिनों में आश्चर्यजनक बदलाव ला सकता है। संघ ने अपने दरवाजे आलोचकों के लिए खोलकर संवाद की जो इच्छा व्यक्त की है वह तनावपूर्ण माहौल में एक रचनात्मक प्रयास के रूप में स्वागत योग्य है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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