Wednesday 5 September 2018

नेतृत्व विहीन गुस्सा कितना प्रभावी होगा


6 सितंबर को अनु.जाति/जनजाति कानून के विरोध में आयोजित भारत बंद को लेकर शासन-प्रशासन काफी सतर्क हैं। ये बंद कितना कामयाब होगा इसका अंदाज लगाना कठिन है क्योंकि सवर्णों और पिछड़ी जातियों की इस गोलबंदी का कोई संगठित स्वरूप अब तक नहीं बन पाया है। यद्यपि जनभावनाओं के कारण विभिन्न राजनीतिक दलों के भीतर उक्त कानून के विरुद्ध सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है परन्तु जैसा विरोध या गुस्सा आम जनता के बीच महसूस किया जा रहा है वैसा राजनीतिक पार्टियों के भीतर बैठे सवर्ण तथा ओबीसी नेताओं में नजर नहीं आने से अपेक्षित दबाव बनता नहीं दिखाई दे रहा। हालांकि भाजपा के वरिष्ठ नेता कलराज मिश्र ने जरूर मुंह खोला वहीं म.प्र. के कांगे्रस विधायक गोविन्द सिंह ने भी दबी जुबान विरोध जताया है किन्तु उनके अलावा ऐसा कोई नेता नजर नहीं आ रहा जिसमें उक्त कानून के विरुद्ध बोलने की हिम्मत हो। बसपा सुप्रीमो मायावती के प्रमुख सलाहकार कहे जाने वाले सतीशचन्द्र मिश्र जैसे व्यक्ति में भी साहस नहीं है कि वे अधिवक्ता होते हुए भी उक्त कानून के उन विवादास्पद प्रावधानों के विरोध में अपने तर्कों के साथ सामने आयें जिनके कारण सवर्ण एवं पिछड़ी जातियों में भय मिश्रित रोष है। सही बात तो ये है कि सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न हो वह आगामी चुनाव को ध्यान में रखते हुए ही निर्णय करती है। मोदी सरकार को भी यदि जल्दी चुनाव का सामना नहीं करना होता तब वह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलट-पुलट करने में इतनी तत्परता नहीं दिखाती। वहीं कांगे्रस सहित अन्य विपक्षी दल भी भाजपा को दलित विरोधी साबित करने में जल्दबाजी नहीं करते। चूंकि सभी पार्टियों में अनु.जाति/जनजाति के वोट हासिल करने का लालच है इसलिए खुलकर सच्चाई को स्वीकार करने की हिम्मत कोई नहीं दिखा पा रहा। यही वजह है कि अब दलीय दायरे से बाहर विरोध सामने आया है। ये भी उतना उग्र न होता यदि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अनु.जाति/जनजाति की ओर से हिंसक विरोध न हुआ होता।  कुल मिलाकर जो स्थिति सामने आ रही है वह बेहद विरोधाभासी है क्योंकि लगभग सभी पार्टियां इस संबंध में मौन हैं जो उनकी सहमति का प्रमाण माना जाएगा। आरक्षण संबंधी विवाद पर भी सवर्ण नेता चूंकि जुबान खोलने की हिम्मत नहीं दिखाते इसलिए सवर्ण समुदाय पूरी तरह से नेतृत्वविहीन है। आजादी के बाद पं. नेहरू की सरकार ने अनु.जाति/जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी वहीं 1989 में बनी ठाकुर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने पिछड़ी जातियों के नेताओं के दबाव में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर ओबीसी आरक्षण रूपी सौगात दी। उक्त दोनों प्रधानमंत्री संयोग से क्रमश: ब्राह्मण और क्षत्रिय थे। ऐसी स्थिति में अगड़ी जातियों के भीतर वर्तमान में जो गुस्सा है उसका कोई संगठित स्वरूप नहीं होने से राजनीति पर उसका कितना असर हो सकेगा ये अंदाज लगा पाना कठिन है। मंडल लागू होने पर देश के कई हिस्सों में युवा लड़के-लड़कियों ने आत्मदाह तक कर लिया परन्तु क्षणिक उन्माद के बाद वह आंदोलन ठंडा पड़ गया। सही बात ये है कि अनु.जाति/जनजाति और ओबीसी वर्ग के जो भी नेता राजनीतिक या अन्य क्षेत्रों में सक्रिय हैं वे अपने समुदाय के हितों पर चोट होते ही ऊंची आवाज में विरोध करने पर आमादा हो जाते हैं किन्तु ऊंची कहलाने वाली जातियों में दूर-दूराज तक एक भी नेता नहीं है जो अपने राजनीतिक हितों को ताक पर रखकर अपनी जाति या समुदाय के लिए खड़ा होने की हिम्मत दिखा सके। इसी का परिणाम है कि भाजपा और कांगे्रस दोनों के बड़े, मझोले या छोटे किस्म के नेताओं में से सभी मौजूदा विवाद पर मुुंह छिपाए घूम रहे हैं। अपनी पार्टी की बैठक में भले ही वे कार्यकर्ताओं को ये समझाईश दे रहे हों कि कोई नया कानून नहीं बना बल्कि पुराना ही चला आ रहा है लेकिन अब तक एक भी प्रमुख नेता सवर्ण समुदाय के गुस्से पर पानी डालने की हिम्मत नहीं कर पाया क्योंकि वे सभी कहीं न कहीं अपराध बोध से ग्रसित हैं। जाति के नाम पर अपनी नेतागिरी चमकाने वाले अनु.जाति/जनजाति और ओबीसी वर्ग के नेताओं में भी इतनी दम नहीं है कि वे सवर्ण समाज के लोगों से संवाद स्थापित कर उन्हें बतायें कि केन्द्र सरकार द्वारा जिस कानून को लागू किया गया है उससे डरने की कोई बात नहंीं है। इस वजह से अब दोनों तरफ से अविश्वास की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। राजनीतिक नेताओं की रुचि चाहे वे सत्ता में हों या विपक्ष में, केवल वोट कबाडऩे में बची है चाहे उसके लिए पूरे समाज को आपस में लड़वा ही क्यों न दिया जावे। ये हालात कोई शुभ संकेत नहीं है। धजी का साँप बनाने वाले तो अपना खेल दिखा ही रहे हैं वहीं आग को बुझाने की बजाये उसमें पेट्रोल छिड़कने वाली ताकतें परदे के पीछे से सक्रिय हैं। चुनाव सन्निकट होने से राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने हित साधने में लगी हैं। सवर्ण समुदाय को लगता है कि उसको घर की मुर्गी दाल बराबर मान लिया गया है। ये सही भी है क्योंकि उसके गुस्से का संज्ञान लेने की किसी को न चिंता है और न ही फुर्सत। इसका असर आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनाव पर कितना पड़ेगा और कौन सी पार्टी नफे या नुकसान में रहेगी इससे भी बड़ा विचारणीय प्रश्न ये है कि समाज को जातिगत आधार पर विभाजित करने के बाद इस देश का क्या होगा? सीमा पार बैठे दुश्मन ये देखकर मन ही मन हर्षित हो रहे होंगे कि उनका काम वे ही लोग कर रहे हैं जिनके जिम्मे इस देश की एकता और अखंडता की रक्षा करना है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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