Tuesday 31 March 2020

मरकज के मौलवी मुसलमानों के दुश्मन हैं



भारत में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या कल शाम तक 1300 पार कर चुकी थी। बीते कुछ दिनों में जो रफ्तार है उसके मुताबिक वृद्धि का आंकड़ा अब प्रतिदिन 10 फीसदी की औसत रफ्तार से भी ज्यादा से बढ़ रहा है। इसकी वजह निश्चित रूप से जांच सुविधा का विस्तार होना भी है वहीं लॉक डाउन के प्रति अनेक जगह पर बरती गयी घोर लापरवाही भी। प्रवासी मजदूरों के पलायन के बाद संक्रमित लोगों के आंकड़े कितने बढ़ेंगे ये कहना कठिन है। लेकिन गत दिवस दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में मरकज नामक मुस्लिम धर्म के एक केंद्र में सैकड़ों ही नहीं हजारों  लोगों के लम्बे समय से जमा होने का खुलासा होने के बाद अब ये डर भी सताने लगा है कि कुछ लोगों की जिद और पागलपन लाखों की जान जोखिम में डाल सकता है। मरकज के बारे में पता चला है यह केंद्र मुस्लिम धर्मप्रचारक प्रशिक्षित करता है। यहां न सिर्फ भारत अपितु विदेश से भी लोग आते हैं। लॉक डाउन होने के बाद दिल्ली की पुलिस ने मरकज के मौलवी को बाकायदा जमावड़ा खत्म करने के नोटिस दिए लेकिन वे अपनी ऐंठ में रहे और कल जब वह केन्द्र खाली करवाकर जांच कराई गई तो लगभग 25 संक्रमित निकल आये। कुछ लोग पहले ही वहां से वापिस चले गये थे। उनमें से 6 तेलंगाना जाकर मर भी गये क्योंकि वे कोरोना संक्रमित हो चुके थे। गत दिवस मरकज से निकाले गये सैकड़ों मुस्लिम धर्मावलम्बी इस दौरान वहां आने वाले अन्य लोगों के भी संपर्क में आये होंगे। अब दिल्ली सरकार के सामने ये कठिन  समस्या है कि उन सबका पता कैसे लगाये जिससे उनकी भी जांच कराई जा सके। अनेक लोगों के उप्र लौटने की खबर मिलते ही वहां की सरकार विभिन्न जिलों में उनकी खोज खबर लेने में जुटी हुई है। मरकज में जमा हुए लोगों का बाहरी दुनिया से कोई सम्पर्क नहीं रहा होगा ये मान लेने का कोई आधार नहीं है। क्योंकि जैसा बताया गया वहां अनेक देशों के मुस्लिम धर्मावलम्बी जमा हुए थे। और जब उन्हें दिल्ली पुलिस द्वारा जमावड़ा खत्म करने का नोटिस दिया गया उसके बाद भी मौलवी साहब ने उसका पालन क्यों नहीं किया ये पूरी मुस्लिम कौम के लिए बड़ा सवाल है। दिल्ली के ही शाहीन बाग़ इलाके में सीएए विरोधी धरना को कोरोना के आगमन के बाद भी इस ऐलान के साथ जारी रखने की हठधर्मिता दिखाई गई कि इस्लाम के अनुयायी होने से कोरोना उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। ऐसे लोगों को ईरान के भयावह मंजर को जान लेना चाहिए जहां इस्लामी कट्टरपंथी सरकार की धर्मान्धता ने बड़ी संख्या में लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया। लॉक डाउन के बाद जब सोशल डिस्टेंसिंग पर जोर दिया गया तब भी अनेक मस्जिदों में सामूहिक नमाज पढ़ी जाने की खबरें आईं जबकि मौलाना घरों में रहकर ही नमाज पढऩे की अपीलें करते रहे। लेकिन मरकज की घटना न केवल शर्मनाक बल्कि खतरनाक भी है। धर्म का पालन करना व्यक्तिगत आस्था का विषय है जिस पर बंदिश लगाना मानवीय स्वतन्त्रता पर कुठाराघात है लेकिन धर्म भी एक आचार संहिता है जिसमें अनुशासन का सबसे ज्यादा महत्व है परंतु मुस्लिम समुदाय में अधिकतर लोग बहुत ही धर्मभीरु होने से मुल्ला - मौलवियों की बातों को बिना विचारे स्वीकार कर लेते हैं जिसकी वजह से वे मुख्यधारा से अभी तक दूर ही बने रहे। यद्यपि टीवी चैनलों पर अनेक सुशिक्षित मुसलमानों ने मरकज मामले पर मुल्ला मौलवियों की जमकर आलोचना की और इस बात को साफ किया कि इस्लाम मानव की हिफाजत का पैगाम देता है , उनकी जान खतरे में डालने का नहीं। मस्जिदों में जमा होकर नमाज पढ़ने की बजाय अपने घरों में ही इबादत करने से इस्लाम कमजोर नहीं होगा। देश के तमाम बड़े मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भी तदाशय का सन्देश दिया है। मरकज में लॉक डाउन की जिस तरह धज्जियां उड़ाई गईं और दिल्ली पुलिस के नोटिस को रद्दी की टोकरी लायक समझा गया उससे लगा कि वहां के मौलवी साहब को ये गुमान रहा होगा कि जैसी रियायत और नरमी शाहीन बाग़ के आन्दोलनकारियों के साथ बरती गयी वैसी ही उनके साथ भी होगी। लेकिन उन्हें ये ध्यान रखना चाहिए था कि देशव्यापी लॉक डाउन लागू होते ही शाहीन बाग़ का तम्बू उखाड़ दिया गया। मरकज से बाहर आये मुस्लिम धर्मावलम्बियों में से कितने संक्रमित निकलेंगे ये तो जांच के बाद सामने आएगा लेकिन जो लोग कल के पहले वहां से वापिस चले गये। उन्होंने कितने लोगों को कोरोना का संक्रमण दिया होगा ये गंभीर चिंता पैदा करने वाला मसला है। इस घटना के बाद शासन और प्रशासन को न सिर्फ  मुस्लिम अपितु अन्य धर्मों के ऐसे संस्थानों पर नजर रखनी होगी जहां लोगों का जमावड़ा हो। धार्मिक क्रियाकलापों के लिए हमारा संविधान पूरी आजादी देता है लेकिन यदि उनसे समाज के हितों पर आघात होता हो तो उनकी इजाजत नहीं दी जा सकती। वर्तमान में हिन्दुओं का बड़ा पर्व नवरात्रि चल रहा है। कल अष्टमी और परसों रामनवमी है। शीघ्र ही महावीर जयन्ती आने वाली है। बैसाखी भी करीब है। जैसी कि खबर है उक्त सभी त्यौहार में सार्वजनिक तौर पर कोई आयोजन नहीं होने का निर्णय सम्बन्धित धर्म प्रमुखों ने किया है जिसे उनके अनुयायी मान रहे हैं। नवरात्रि पर देश के सभी छोटे - बड़े देवी मन्दिर सूने पड़े रहे। जैन समाज में नित्य मन्दिर जाने का जो रिवाज है उसे भी लॉक डाउन में शिथिल कर दिया गया। ऐसे में मरकज में धर्म की आड़ में देश-विदेश के हजारों मुस्लिमों का जमावड़ा करना मानवता विरोधी कृत्य है जिसके लिए आयोजकों के विरुद्ध इतनी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए ताकि कोई और इस तरह की जुर्रत न करे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 30 March 2020

अगले 15 दिन बेहद महत्वपूर्ण



बीते कुछ दिनों से भारत में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या में पूर्वपेक्षा ज्यादा वृद्धि चिंता का कारण है। हालांकि जानकार सूत्रों के अनुसार आंकड़े में बढ़ोत्तरी का कारण जाँच किट की उपलब्धता के बाद संदिग्ध लोगों के परीक्षण में तेजी आना है। सबसे अच्छी बात ये है कि अधिकतर मामलों में संक्रमण प्रारंभिक स्थिति में होने से मरीज का इलाज संभव है और यही वजह है कि अभी तक मरने वालों की संख्या काफी कम है। उनमें भी अधिकतर वे रहे जिन्हें डायबिटीज और किडनी की बीमारी थी। देश में सस्ती जांच किट आने और निजी पैथोलॉजी लैब को भी जांच हेतु अनुमति मिल जाने से जांच कार्य में तेजी आई है। इस कारण ये अनुमान है कि आने वाले दिनों में कोरोना संक्रमित लोगों का आंकड़ा और बढ़ेगा। लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि प्रारंभिक अफरातफरी की बाद अब चिकित्सा का ढांचा पहले से बेहतर होता जा रहा है। अस्पतालों के अलावा दूसरी जगहों पर भी संदिग्धों को कोरोनटाइन करने के इंतजाम किये जा रहे हैं। खाली पड़े शासकीय भवन, छात्रावास, होटल, रेल के डिब्बे आदि का उपयोग करने की तैयारी से बिस्तरों की समस्या हल होने की उम्मीद बढ़ी है। बीते तीन-चार दिनों से प्रवासी मजदूरों के पलायन की वजह से जरूर खतरा बढ़ गया था लेकिन केंद्र तथा राज्य सरकारों ने स्थिति को सँभालने पर पूरा जोर लगाया जिससे हालात धीरे-धीरे ही सही किन्तु काबू में आ रहे है। पैदल अपने गावों को लौट पड़े गरीबों को रास्ते में भोजन और आश्रय के साथ उनके गंतव्य तक पहुँचाने के इंतजाम भी सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चल रहे हैं। देश भर से जो खबरें आ रही हैं उनसे पता चलता है कि समाज भी अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्वहन पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी से कर  रहा है। बड़े और छोटे शहरों में गरीबों और बेरोजगार हुए श्रमिकों को भोजन प्रदान करने का काम भी जमकर चल रहा है। ये एक अच्छा संकेत है। चारों तरफ  मंडराते मौत के खतरे के बीच लोग अपनी परेशानी भूलकर जरुरतमंदों की सहायता के लिए आगे आकर पूरी दुनिया को ये सन्देश दे रहे हैं कि भारत में मानवीय संवेदनाएं गहराई तक समाई हुई हैं। इस कारण शासन-प्रशासन का भी हौसला बुलंद हुआ है। बड़े उद्योगपतियों के अलावा, फिल्म अभिनेताओं, खिलाडिय़ों, कुमार विश्वास जैसे साहित्कारों, धार्मिक न्यासों, कर्मचारियों, राजनेताओं सहित समाज के हर वर्ग ने आर्थिक सहयोग देकर राहत एवं बचाव कार्यों में सहयोग हेतु हाथ आगे बढ़ाया है। किसी भी आपदा से लडऩे के लिए समाज की संगठित शक्ति की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। प्रारंभ में तो लोगों को लगा कोरोना भारत में नहीं आयेगा। लेकिन ज्यों - ज्यों इसके मरीज सामने आने लगे त्यों-त्यों लोग सतर्क हुए लेकिन फिर भी बेपरवाही बनी रही। खास तौर पर विदेशों से लौटे लोगों ने निर्देशों की अवहेलना करने की उपेक्षा की जिससे संक्रमण फैला। उसी के बाद देश में पूरी तरह लॉक डाउन करना पडा। लेकिन उसके प्रति भी अपेक्षित गम्भीरता नहीं बरती गयी। जिसके बाद गत दिवस प्रधान मंत्री ने मन की बात में लोगों से लॉक डाउन के लिए क्षमा मांगते हुए ये स्पष्ट कर दिया कि अब और कड़ाई बरती जायेगी। श्रमिकों के पलायन को रोकने के लिए जिलों और राज्यों की सीमाएं सील करते हुए प्रशासन को उसके लिए जरूरी कदम उठाने की जिम्मेदारी सौंप दी और पालन नहीं होने पर परिणाम भुगतने की चेतावनी भी दे डाली। मप्र के इंदौर नगर में उसके बाद आज से तीन दिन तक पूरी तरह कर्फ्यू लागू कर दिया। ये एक संकेत है कि यदि लॉक डाउन का पालन नहीं किया जाता तो फिर कर्फ्यू को उसके असली रूप में लागू किया जावेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत में कोरोना से लड़ने के लिए हो रहे प्रयासों की सराहना तो की किन्तु लगे हाथ ये चेतावनी भी दे डाली कि ये समय बहुत ही सावधानी बरतने का है। जरा सी चूक से लॉक डाउन से हुआ फायदा मिट्टी में मिल जाएगा। बीते दो तीन दिनों में दिल्ली और गाजिय़ाबाद में जो भीड़ दिखाई दी यदि उसी तरह के हालात आगे भी जारी रहे तब कोरोना की स्टेज तीन आने का खतरा पैदा हो सकता है जिसमें बस्तियां की बस्तियाँ संक्रमित हो सकती हैं और इटली जैसे हालात बन सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि अब लॉक डाउन के महत्व और जरूरत को गम्भीरता से लिया जावे। आगामी दो सप्ताह बहुत ही निर्णायक होंगे। यदि इस दौरान संक्रमण और नहीं फैला तो फिर ये उम्मीद की जा सकती है कि 30 अप्रैल तक भारत कोरोना को काबू करने की स्थिति में आ सकेगा। वरना लॉक डाउन को आगे भी बढ़ाना पड़ सकता है। यद्यपि आज ही भारत सरकार ने लॉक डाउन की समयावधि बढ़ाने से इनकार कर दिया है। कोरोना कितना खतरनाक है और मानवीय संपर्कों से तेजी से फैलता है ये बात कमोबेश सबकी समझ में आ चुकी है लेकिन उसके बाद भी लापरवाही बरती जाती रही तो ये लड़ाई लंबी खिंचेगी और इंसानी जिंदगियों के रूप में देश को बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 28 March 2020

सरकार के साथ ही समाज भी ऐसे लोगों की मदद करे



समाचार माध्यमों में उन प्रवासी मजदूरों का सिर पर गठरी रखे हुए अपने गांव-देस की तरफ  पैदल ही चल पडऩे के चित्र देखकर हर सम्वेदनशील इंसान की आँखें नम हो उठीं। गुजरात और दिल्ली से निकलकर बिहार जैसे सुदूर राज्य तक छोटे बच्चों को साथ लिए चल पडऩे की ये मजबूरी किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य के लिए लज्जा का विषय होना चाहिए। यद्यपि ये समय आलोचना और आरोपों का नहीं है लेकिन मुफलिसी का शिकार इन बेसहारा लोगों की ये बेबसी समाज की सम्वेदनशीलता पर भी प्रश्नचिन्ह है। दिल्ली , अहमदाबाद और सूरत जैसे बड़े शहरों में हजारों क्या लाखों धनकुबेर और सैकड़ों समाजसेवी संस्थाएं हैं। ये श्रमिक किसी कारखाने या निर्माण कार्य में मजदूरी करते थे। काम बंद होने से उनके सामने पेट भरने की समस्या पैदा हो गयी। लॉक डाउन ने समस्या और बढ़ा दी। ऐसे में उनको चारों तरफ  अन्धकार और असुरक्षा नजर आई और उसके कारण वे अपने मूल स्थान के लिए पैदल ही निकल पड़े। रास्ते में गुजरने वाले किसी वाहन में भी उनको इसलिए लिफ्ट नहीं मिल रही क्योंकि हर किसी के मन में कोरोना का खौफ  जो समा चुका है। जब चौतरफा हल्ला मचा तब सरकार जागी और अब जो जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक उन्हें रहने के लिए धर्मशालाओं आदि में व्यवस्था की जा रही है और वहीं उन्हें भोजन दिया जावेगा। लेकिन इतने लोगों का एक साथ समूह में रहना भी संक्रमण के फैलाव की वजह बन सकता है। चूँकि ये सब अलग-अलग परिवारों के हैं इसलिए किसी को ये नहीं पता कि उनमें से कौन सुरक्षित है कौन नहीं। कुपोषण की वजह से ऐसे लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अपेक्षाकृत कम ही होती है। दिल्ली सरकार ने रैन बसेरों में इनके रहने और भोजन का नि:शुल्क प्रबंध किया था लेकिन वहां भारी भीड़ उमडऩे के कारण बइन्तजामी फैैल गई। बताते हैं किसी शरारती ने ये अफवाह उड़ा दी कि दिल्ली और उप्र की सीमा पर कहीं से स्पेशल बसें चलने वाली हैं और ये सुनते ही भीड़ वहां भागी लेकिन निराशा हाथ लगते ही कोई रास्ता नहीं होने पर लोग पैदल ही चल पड़े। इसे लेकर सोशल मीडिया सहित अभिव्यक्ति के अन्य मंचों पर सरकार की जमकर खिंचाई हो रही है। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में लोगों का पलायन और वह भी ऐसी विकट परिस्थिति में निश्चित रूप से दुखद है। केंद्र और राज्य की सरकारों ने तो इसका संज्ञान लेना शुरू किया है लेकिन समाज को भी देखना चाहिए कि ऐसे किसी भी जरूरतमंद की सहायता करने वह आगे आये। हालांकि देश भर से जो खबरें मिल रही हैं उनके अनुसार तो सहायता करने वाली संस्थाएं सामने आ रही हैं लेकिन इस कार्य में निरन्तरता की जरूरत है। ऐसे समय ही किसी समाज की चारित्रिक दृढ़ता और परोपकारी प्रवृत्ति सामने आती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

शिक्षण संस्थानों में 30 जून तक अवकाश कर दिया जावे



कोरोना वायरस के कारण तीन सप्ताह का लॉक डाउन आधा अप्रैल बीत जाने के बाद समाप्त होगा। इसके बाद विद्यालय स्तर के शिक्ष्ण संस्थानों में नए सत्र की शुरुवात होगी। लेकिन तब तक कोरोना का चक्र पूरी तरह टूट चुका होगा ये सोचकर निश्चिन्त होना मूर्खता होगी। पुरानी व्यवस्था में मार्च और अप्रैल में परीक्षा होने के बाद 30 अप्रैल को परीक्षाफल आ जाता था तथा पूरी मई और जून महीने ग्रीष्मावकाश रहता था। एक जुलाई से नए सत्र का शुभारम्भ होता था। लेकिन नई व्यवस्था में अब विद्यालयीन सत्र अप्रैल के प्रथम सप्ताह से शुरू होकर मई तक चलाया जाता है और केवल जून माह में अवकाश रहता है। कहा जाता है कि इसके पीछे निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों द्वारा सत्र के आरम्भ में मिलने वाले प्रवेश शुल्क के साथ ग्रीष्मावकाश की फीस अग्रिम रूप से वसूल लेने की सोच है। बहरहाल अब ये व्यवस्था लागू हो चुकी है जिसके कारण मई की भीषण गर्मी में भी बच्चों को विद्यालय जाना होता है। जहां तक जून की छुट्टी का सवाल है तो देश के अनेक हिस्सों में पहले सप्ताह से ही मानसून पूर्व का माहौल बनने लगता है। केरल में एक , मुम्बई में सात और नागपुर होते हुए मध्यप्रदेश आदि में 15 जून तक बरसात का आगमन अमूमन हो ही जाता है। भारत में गर्मियों की छुट्टियां नाना - नानी के घर जाने का पर्याय होती थी लेकिन नई व्यवस्था ने उस प्रथा में काफी अवरोध उत्पन्न कर दिए। हमारे देश में शादी ब्याह भी अधिकतर गर्मियों में किये जाने के पीछे भी शिक्षण संस्थानों में होने वाला अवकाश ही प्रमुख कारण था। नई शिक्षा और परीक्षा प्रणाली की वजह से शिक्षण सत्र में किये गये परिवर्तन के औचित्य और नुकसान-फायदे को लेकर बहस चला करती है लेकिन इस वर्ष जिस तरह की असाधारण परिस्थित्तियां पैदा हो गईं हैं उनके बाद लॉक डाउन समाप्त हो जाने पर भी अप्रैल माह में नये शिक्षण सत्र की शुरुवात किये जाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। देश भर में लाखों बच्चों का एक साथ घरों से बाहर निकलना नए खतरे का कारण बन सकता है। ये मान लेना गलत होगा कि उस समय तक कोरोना का संक्रमण पूरी तरह से लुप्त हो जाएगा। वैसे भी चिकित्सा जगत ये आशंका जता रहा है कि लॉक डाउन 15 अप्रैल के आगे भी बढ़ाया जा सकता है। कुछ तो जून तक की बात कर रहे हैं। कहने का आशय ये हैं कि हालात असामान्य तौर पर खतरनाक हैं और ऐसे में विद्यालयीन बच्चों की हिफाजत सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए और उस दृष्टि से केंद्र सरकार को चाहिए बिना देर लगाए ये घोषणा कर दे कि नया शिक्षण सत्र अब एक जुलाई से प्रारंभ होगा। इससे अभिभावक भी निश्चिंत हो जायेंगे और विद्यालयों का प्रबन्धन भी तदनुसार नये सत्र की योजना बनाने में जुट सकेगा। ये निर्णय जितनी जल्दी हो जाए उतना अच्छा होगा क्योंकि ऐसी स्थितियों में भी अप्रैल के दूसरे हफ्ते में भले ही विद्यालय खुल जाएं किन्तु शायद ही कोई माँ- बाप अपने बच्चे को पढऩे भेजेगा। चूंकि ये स्वास्थ्य संबंधी आपातकाल है इसलिए बाकी सब बातें इस समय अर्थहीन होकर रह गईं हैं। जिस तरह सरकार ने आर्थिक मोर्च पर बीते दो दिनों में अनेक राहत पैकेज घोषित किये ठीक वैसे ही शिक्षण संस्थानों के ग्रीष्मावकाश को भी 30 जून तक बढ़ा दिया जावे। देश के भविष्य को बचाकर रखना बहुत जरुरी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 27 March 2020

अच्छा कदम : बशर्ते राहत गरीबों तक पहुंचे



जब राजा - महाराजाओं का शासन होता था तब किसी भी विपदा के समय अन्न के भण्डार खोलकर प्रजा के उदरपोषण की व्यवस्था के अलावा राहत कार्य प्रारम्भ कर श्रमिकों को मजदूरी भी दी जाती थी। आज के ज़माने में ये काम चुनी हुई सरकार करती है। जिसका ताजा उदाहरण गत दिवस केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा घोषित किया गया कोरोना राहत पैकेज है। 1.70 लाख करोड़ रु. की मदद से देश के करोड़ों गरीब लोगों के जीवन यापन को आसान बनाने की कोशिश इसके जरिये की गयी है जिसका विवरण समाचार माध्यमों से कल ही प्रचारित हो चुका था। इस पैकेज को राहुल गांधी ने भी सराहा और पहला अच्छा कदम बताया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर संकट की इस घड़ी में सरकार का साथ देने का आश्वासन दिया है। 21 दिन का राष्ट्रीय लॉक डाउन घोषित होने के बाद करोड़ों गरीबों और दिहाड़ी मजदरों के समक्ष रोजी-रोटी का जो संकट उत्पन्न हो गया था उसे लेकर विपक्ष ही नहीं बल्कि गैर राजनीतिक तबके ने भी सरकार को आड़े हाथों लिया। ये भी कहा गया कि प्रधानमन्त्री ने बिना किसी पूर्व तैयारी के देश को तीन हफ्ते तक घरों में रहने की हिदायत तो दे दी लेकिन उनकी दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति कहां से होगी इसका कोई ध्यान नहीं रखा गया। उसका परिणाम ये हुआ कि प्रधानमंत्री का संबोधन खत्म होते ही जनता बाजार में टूट पड़ी। यही आलम दूसरे दिन सुबह भी जारी रहा। हालंकि उसके फौरन बाद प्रशासन हरकत में आया और अब जो खबरें आ रही हैं वे आशा जगाती हैं लेकिन अभी भी सब्जी मंडियों में भीड़ अनुशासन का पालन नहीं कर रही। सरकार ने किराना और दवाई दुकानों के साथ ही दूध तथा पेट्रोल डीजल की आपूर्ति निर्बाध बनाये रखने के लिए उनके विक्रय केंद्र खुले रहने की व्यवस्था भी कर दी जिससे मारामारी थोड़ी कम हुई है लेकिन रसोई गैस सिलेंडर घर-घर पहुँचाने का काम अभी भी अव्यवस्थित है जिससे गैस डीलरों के गोदामों में जनता टूटी पड़ रही है। बावजूद इस सबके लॉक डाउन की वजह से अधिकतर लोग घरों में सिमटकर रह गये जिसके कारण ये विश्वास पैदा हुआ कि भारत इस महामारी पर काबू पाने में कामयाब हो जाएगा। चूंकि सारी दुनिया ये मान चुकी है कि कोरोना को रोकने का एकमात्र तरीका लोगों को आपस में मिलने से रोकना है इसलिए भारत के सामने भी दूसरा रास्ता नहीं था। कम आबादी वाले यूरोपीय देशों तक में जब कोरोंना का कहर टूट पड़ा तब भारत जैसे विशाल आबादी और घनी आवासीय व्यवस्था वाले देश में तो उसको रोक पाना बहुत बड़ी समस्या है। लेकिन भले ही कोई कुछ भी कहे पर सरकार ने समय रहते सख्त कदम उठाकर महामारी के विस्फोट पर तो फिलहाल नियंत्रण कर लिया। अभी तक की रिपोर्ट ये बताती है कि नए संक्रमित लोगों की संख्या बढऩे का प्रतिशत घटा है और जिनका इलाज चल रहा है उनमें से बहुत ही कम की स्थिति चिंताजनक है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पचास से ज्यादा लोग ठीक भी हुए हैं। लेकिन इसके साथ ही गरीबों और रोज कमाने रोज खाने वालों को राहत देना जरूरी था। इस काम में और देरी होने पर अराजकता फैलने का भय भी था। इसलिए सरकार द्वारा गत दिवस की गयी घोषणाएं न केवल गरीबों के लिए वरन समूचे देश के लिए सुकून देने वाली हैं। इसके कारण दिहाड़ी मजदूर, निराश्रित वृद्ध और बेरोजगार गरीबों को जो सहायता मिलेगी उसकी वजह से समाज में शांति और कानून व्यवस्था बनी रहेगी। इस राहत पैकेज का सबसे बड़ा लाभ ये है कि गरीबों को न सिर्फ मुफ्त और अतिरिक्त राशन बल्कि आगामी तीन महीनों तक नि:शुल्क रसोई गैस दिए जाने के साथ ही उनके बैंक खाते में निश्चित धन राशि जमा करने की व्यवस्था की गयी है। मोदी सरकार ने जब गरीबों के जन - धन खाते खोले थे तब उनके औचित्य और आवश्यकता पर तरह-तरह के सवाल दागे गये किन्तु कोरोना से उत्पन्न हालातों में इन खातों की उपयोगिता प्रमाणित हो गयी। सरकार का काम भी आसान हो गया वरना जरुरतमंदों के हाथ में नगद रूपये पहुंचाने में होने वाली अव्यवस्था और भ्रष्टाचार की कल्पना सहज रूप से की जा सकती है। लेकिन सरकार का काम इतने मात्र से खत्म नहीं होगा। बैंकों में नगद राशि तो आसानी से जमा हो जायेगी किन्तु मुफ्त राशन और रसोई गैस का वितरण समस्या पैदा कर सकता है। इसकी वजह सर्वविदित है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिन राशन दुकानों से संचालित होती है वे भ्रष्टाचार की नर्सरी हैं। इसी तरह रसोई गैस वाले भी ग्राहकों को परेशान करने के लिए कुख्यात हैं। स्थानीय प्रशासन यदि इस व्यवस्था को दुरुस्त कर ले गया तब राहत पैकेज की सफलता सुनिश्चित हो जायेगी और इससे लॉक डाउन को सफल बनाने में भी मदद मिलेगी। एक और मोर्चा जहां सरकार को ध्यान देना होगा वह है लॉक डाउन के दौरान जरूरी वस्तुओं की मुनाफाखोरी को रोकना। सब्जी, फलों तक तो बात समझ में भी आती हैं लेकिन दवाओं पर भी यदि मुनाफाखोरी हो तो ये एक अक्षम्य अपराध होना चाहिए। इसके अलावा निजी अस्पतालों में भी जनता का सस्ता इलाज हो सके इसका प्रबंध भी किया जाए तो सरकारी अस्पतालों का बोझ थोड़ा कम होगा। वैसे इस समय निजी अस्पतालों को भी कमाई की बजाय मानव सेवा के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। सरकार जो राहत दे रही है वह सरकारी योजनाओं से जुड़े गरीबों तक ही पहुंच पायेगी। ऐसे में ये समाज का सामूहिक दायित्व है कि वह ऐसे गरीब लोगों को जो अभी तक सरकारी योजनाओं से बाहर हैं, कम से कम भोजन ही प्रदान करता रहे जिससे कोई भूखा न सोये। कोरोना ने देश को एक नया अनुभव और उसके साथ एक अवसर भी दिया है, परोपकार के आदर्श रूप को प्रस्तुत करने का। सरकार और समाज जब एक साथ जुट जाते है तब बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना आसानी से किया जा सकता है। विश्वास है भारत ऐसा कर दिखाएगा क्योंकि ये उसकी परम्परा भी है और स्वभाव भी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 26 March 2020

भारत के भविष्य को सुरक्षित और सुखी बनाने का अवसर



कोरोना ने चीन को एक बार फिर दुनिया के सबसे चालाक, धोखेबाज और अविश्वसनीय देश की कतार में सबसे आगे खड़ा कर दिया है। आर्थिक महाशक्ति बन चुके इस देश ने कोरोना वायरस के फैलाव से लेकर उसके बचाव तक की प्रक्रिया को जिस तरह से गोपनीय बनाये रखा उससे उसकी रहस्यमय छवि और मजबूत हो गई है। विगत दिवस उसने दावा किया कि कोरोना संकट पर वह विजय प्राप्त कर चुका है और वहां जनजीवन सामान्य हो चला है। यहाँ तक कि जिस वुहान में कोरोना वायरस ने सबसे पहले हमला किया वहां के कारखानों में उत्पादन शुरू होने के चित्र भी चीन के सरकार नियंत्रित समाचार माध्यमों ने जारी किये। लेकिन इस दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन को वहां की स्थिति का अध्ययन करने की अनुमति न देकर चीन ने एक फिर ये साफ कर दिया कि वह दुनिया को जितना दिखाता है उससे ज्यादा छिपा लेता है। कोरोना से संक्रमित लोगों में से कितनों की मृत्यु हुई इस बारे में शेष विश्व को सही जानकारी नहीं मिल सकी। और शायद मिलेगी भी नहीं क्योंकि ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि मृतकों की जो संख्या उसने प्रचारित की वह ऊँट के मुंह में जीरे जैसी ही है। कहते हैं कोरोना से मरने वालों के शवों को थोक के भाव जला दिया गया। ताजा जानकारी के अनुसार कोरोना के बाद चीन में मोबाईल का उपयोग करने वालों की संख्या अचानक 90 लाख घट गयी। इसके साथ ही ये खबर भी है कि हजारों लोग लापता हैं। चीन में किसी के लम्बे समय तक लापता रहने पर ये मान लिया जाता है कि सरकार ने उसे ठिकाने लगा दिया या फिर वह किसी जेल में बंद है। मानवाधिकारों को फिजूल की बात मानने वाले चीन को लेकर ये संदेह पूरी दुनिया में व्यक्त किया जा रहा है कि कोरोना वायरस उसकी दूरगामी कार्ययोजना का हिस्सा था। हो सकता है किसी गड़बड़ी की वजह से दूसरों के लिए गड्ढा खोदने के फेर में वह खुद भी उसी में गिर गया। वैसे चीन में मानवीय जि़न्दगी हमेशा कीड़े मकोड़े जैसी रही है जिसकी वजह से उसे मरने वालों को लेकर लेशमात्र भी सहानुभूति या दु:ख नहीं हुआ। यहाँ तक कहा जा रहा है कि जिन बुजुर्गों को कोरोना संक्रमण हुआ उन्हें बिना इलाज ही मरने दिया गया। वैसे भी चीन में कोई काम नहीं करने वाले बुजुर्गों को शहरों के बजाय सुविधाविहीन गाँवों में भेजने की आघोषित नीति है। एक बात और जो पूरी दुनिया को परेशान किये हुए है वह है कोरोना का असर चीन के बहुत ही छोटे से हिस्से तक सीमित रहना। कहते हैं वह वुहान से आगे नहीं निकला। यद्यपि वुहान वैसे भी बहुत विशाल प्रान्त है जिसकी आबादी यूरोप के अनेक देशों से भी ज्यादा है। तानाशाही व्यवस्था के कारण चीन ने लॉक डाउन से भी बढ़कर तो लोगों के घर के सामने लकड़ी के पटिये ठोंककर उनका बाहर निकलना पूरी तरह से बंद कर दिया। उनकी जरूरतों की कोई चिंता भी वहां की सरकार ने नहीं की जैसी प्रजातांत्रिक देश कर रहे हैं। ये सब देखते हुए सवाल उठ रहा है कि कोरोना संकट खत्म होने के बाद चीन के साथ अमेरिका और उसके समर्थक माने जाने वाले देश किस हद तक व्यापारिक सम्बन्ध रखेंगे ? सोचना तो भारत को भी पड़ेगा क्योंकि कोरोना को लेकर चीन की नीयत में खोट होने के अंदेशे के बाद भारत को सतर्क होना चाहिए। ये बात भी सामने आने लगी है कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्था के चौपट होने का लाभ लेने की विस्तृत कार्ययोजना चीन ने तैयार कर ली है। ये भी खबर है कि वैश्विक पूंजी बाजारों में आई गिरावट के दौरान चीन ने बड़ी मात्रा में शेयरों की खरीदी करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर नियंत्रण का दांव चल दिया है। ऐसा करके वह पश्चिमी देशों की आर्थिक रीढ़ तोड़ते हुए विश्व व्यापार पर एकाधिकार के अपने मास्टर प्लान को लागू करने की योजना पर आगे बढ़ रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर भारत जैसे देश पर पड़ेगा। इसलिए बेहतर होगा यदि हम संकट के इस दौर में ऐसा कुछ करें जिससे घरेलू उद्योग देश को आत्मनिर्भर बनाने में सक्षम हो सकें। किसी भी मुसीबत के समय बुद्धिमान लोग भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न होने पाए इसकी तैयारी में जुट जाते हैं। चीन उससे भी एक कदम आगे बढ़कर काम कर रहा है। चूँकि भारत का असली मुकाबला उसी से है इसलिए लॉक डाउन के इस कालखंड में देश के आर्थिक चिंतकों और व्यवसायिक प्रबंधकों को कोरोना के बाद की आर्थिक परिस्थितियों के बारे में ठोस सुझाव और कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए। चिकित्सा सुविधाओं में क्रांतिकारी सुधार भी आर्थिक विकास की नींव होती है और भारत में इसकी क्षमता विकसित करनी होगी। विश्व व्यापार संगठन से बंधे होने के बाद भी भारत को अपनी औद्योगिक और व्यापारिक नीतियों का भारतीयकरण करना होगा। ये कहना गलत नहीं है कि 135 करोड़ का देश यदि अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ मैदान में उतर जाये तो इस संकट के बाद भी कम समय में अपनी अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहे संकट के बादलों को छांटने में कामयाब हो जायेगा। कोरोना निश्चित रूप से अकल्पनीय मुसीबत लेकर आया है लेकिन जो देश प्रधानमन्त्री के कहने पर एक निश्चित समय पर थाली और ताली बजाकर अपनी एकजुटता दिखा सकता है वह असम्भव को संभव बनाने की क्षमता भी रखता है। लॉक डाउन का ये दौर चिंता से ऊपर उठकर चिन्तन का समय है। सभी विचारशील लोगों से निवेदन है कि वे इस समय का देशहित में उपयोग करते हुए सार्थक विचार प्रस्तुत करें। हमारे देश में कुछ नहीं हो सकता जैसी अवधारणा को दफनाने का ये बेहतरीन अवसर है। कोरोना निश्चित रूप से बड़ा खतरा है लेकिन मुसीबत से डरकर भागने की बजाय उसका सामना करने के साथ ही भविष्य के लिए पूरी तरह सुरक्षित होने का प्रयास करना ही किसी कौम और देश के भविष्य को तय करता है। भारत के पास भी अपने भविष्य को सुरक्षित और सुखी बनाने का अवसर कोरोना ने दिया है।

मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस: सम्पादकीय
-रवीन्द्र वाजपेयी

भारत के भविष्य को सुरक्षित और सुखी बनाने का अवसर

कोरोना ने चीन को एक बार फिर दुनिया के सबसे चालाक, धोखेबाज और अविश्वसनीय देश की कतार में सबसे आगे खड़ा कर दिया है। आर्थिक महाशक्ति बन चुके इस देश ने कोरोना वायरस के फैलाव से लेकर उसके बचाव तक की प्रक्रिया को जिस तरह से गोपनीय बनाये रखा उससे उसकी रहस्यमय छवि और मजबूत हो गई है। विगत दिवस उसने दावा किया कि कोरोना संकट पर वह विजय प्राप्त कर चुका है और वहां जनजीवन सामान्य हो चला है। यहाँ तक कि जिस वुहान में कोरोना वायरस ने सबसे पहले हमला किया वहां के कारखानों में उत्पादन शुरू होने के चित्र भी चीन के सरकार नियंत्रित समाचार माध्यमों ने जारी किये। लेकिन इस दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन को वहां की स्थिति का अध्ययन करने की अनुमति न देकर चीन ने एक फिर ये साफ कर दिया कि वह दुनिया को जितना दिखाता है उससे ज्यादा छिपा लेता है। कोरोना से संक्रमित लोगों में से कितनों की मृत्यु हुई इस बारे में शेष विश्व को सही जानकारी नहीं मिल सकी। और शायद मिलेगी भी नहीं क्योंकि ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि मृतकों की जो संख्या उसने प्रचारित की वह ऊँट के मुंह में जीरे जैसी ही है। कहते हैं कोरोना से मरने वालों के शवों को थोक के भाव जला दिया गया। ताजा जानकारी के अनुसार कोरोना के बाद चीन में मोबाईल का उपयोग करने वालों की संख्या अचानक 90 लाख घट गयी। इसके साथ ही ये खबर भी है कि हजारों लोग लापता हैं। चीन में किसी के लम्बे समय तक लापता रहने पर ये मान लिया जाता है कि सरकार ने उसे ठिकाने लगा दिया या फिर वह किसी जेल में बंद है। मानवाधिकारों को फिजूल की बात मानने वाले चीन को लेकर ये संदेह पूरी दुनिया में व्यक्त किया जा रहा है कि कोरोना वायरस उसकी दूरगामी कार्ययोजना का हिस्सा था। हो सकता है किसी गड़बड़ी की वजह से दूसरों के लिए गड्ढा खोदने के फेर में वह खुद भी उसी में गिर गया। वैसे चीन में मानवीय जि़न्दगी हमेशा कीड़े मकोड़े जैसी रही है जिसकी वजह से उसे मरने वालों को लेकर लेशमात्र भी सहानुभूति या दु:ख नहीं हुआ। यहाँ तक कहा जा रहा है कि जिन बुजुर्गों को कोरोना संक्रमण हुआ उन्हें बिना इलाज ही मरने दिया गया। वैसे भी चीन में कोई काम नहीं करने वाले बुजुर्गों को शहरों के बजाय सुविधाविहीन गाँवों में भेजने की आघोषित नीति है। एक बात और जो पूरी दुनिया को परेशान किये हुए है वह है कोरोना का असर चीन के बहुत ही छोटे से हिस्से तक सीमित रहना। कहते हैं वह वुहान से आगे नहीं निकला। यद्यपि वुहान वैसे भी बहुत विशाल प्रान्त है जिसकी आबादी यूरोप के अनेक देशों से भी ज्यादा है। तानाशाही व्यवस्था के कारण चीन ने लॉक डाउन से भी बढ़कर तो लोगों के घर के सामने लकड़ी के पटिये ठोंककर उनका बाहर निकलना पूरी तरह से बंद कर दिया। उनकी जरूरतों की कोई चिंता भी वहां की सरकार ने नहीं की जैसी प्रजातांत्रिक देश कर रहे हैं। ये सब देखते हुए सवाल उठ रहा है कि कोरोना संकट खत्म होने के बाद चीन के साथ अमेरिका और उसके समर्थक माने जाने वाले देश किस हद तक व्यापारिक सम्बन्ध रखेंगे ? सोचना तो भारत को भी पड़ेगा क्योंकि कोरोना को लेकर चीन की नीयत में खोट होने के अंदेशे के बाद भारत को सतर्क होना चाहिए। ये बात भी सामने आने लगी है कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्था के चौपट होने का लाभ लेने की विस्तृत कार्ययोजना चीन ने तैयार कर ली है। ये भी खबर है कि वैश्विक पूंजी बाजारों में आई गिरावट के दौरान चीन ने बड़ी मात्रा में शेयरों की खरीदी करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर नियंत्रण का दांव चल दिया है। ऐसा करके वह पश्चिमी देशों की आर्थिक रीढ़ तोड़ते हुए विश्व व्यापार पर एकाधिकार के अपने मास्टर प्लान को लागू करने की योजना पर आगे बढ़ रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर भारत जैसे देश पर पड़ेगा। इसलिए बेहतर होगा यदि हम संकट के इस दौर में ऐसा कुछ करें जिससे घरेलू उद्योग देश को आत्मनिर्भर बनाने में सक्षम हो सकें। किसी भी मुसीबत के समय बुद्धिमान लोग भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न होने पाए इसकी तैयारी में जुट जाते हैं। चीन उससे भी एक कदम आगे बढ़कर काम कर रहा है। चूँकि भारत का असली मुकाबला उसी से है इसलिए लॉक डाउन के इस कालखंड में देश के आर्थिक चिंतकों और व्यवसायिक प्रबंधकों को कोरोना के बाद की आर्थिक परिस्थितियों के बारे में ठोस सुझाव और कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए। चिकित्सा सुविधाओं में क्रांतिकारी सुधार भी आर्थिक विकास की नींव होती है और भारत में इसकी क्षमता विकसित करनी होगी। विश्व व्यापार संगठन से बंधे होने के बाद भी भारत को अपनी औद्योगिक और व्यापारिक नीतियों का भारतीयकरण करना होगा। ये कहना गलत नहीं है कि 135 करोड़ का देश यदि अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ मैदान में उतर जाये तो इस संकट के बाद भी कम समय में अपनी अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहे संकट के बादलों को छांटने में कामयाब हो जायेगा। कोरोना निश्चित रूप से अकल्पनीय मुसीबत लेकर आया है लेकिन जो देश प्रधानमन्त्री के कहने पर एक निश्चित समय पर थाली और ताली बजाकर अपनी एकजुटता दिखा सकता है वह असम्भव को संभव बनाने की क्षमता भी रखता है। लॉक डाउन का ये दौर चिंता से ऊपर उठकर चिन्तन का समय है। सभी विचारशील लोगों से निवेदन है कि वे इस समय का देशहित में उपयोग करते हुए सार्थक विचार प्रस्तुत करें। हमारे देश में कुछ नहीं हो सकता जैसी अवधारणा को दफनाने का ये बेहतरीन अवसर है। कोरोना निश्चित रूप से बड़ा खतरा है लेकिन मुसीबत से डरकर भागने की बजाय उसका सामना करने के साथ ही भविष्य के लिए पूरी तरह सुरक्षित होने का प्रयास करना ही किसी कौम और देश के भविष्य को तय करता है। भारत के पास भी अपने भविष्य को सुरक्षित और सुखी बनाने का अवसर कोरोना ने दिया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 25 March 2020

21 दिन : परीक्षा की घड़ी




देश के सामने परीक्षा की घड़ी एक बार फिर आ खड़ी हुई है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि 130 करोड़ आबादी वाले इस देश को दुनिया के समक्ष अपनी एकता, परिपक्वता, अनुशासन और समर्पण भाव प्रदर्शित करने का यह बेहतरीन अवसर है। कोरोना वायरस के हमले ने पूरी दुनिया को हलाकान कर दिया है। संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। हजारों मारे जा चुके हैं। स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई हैं। चिकित्सा विशेषज्ञ और वैज्ञानिक हतप्रभ हैं। कोरोना क्या है ये तो सब समझ चुके हैं किन्तु उसको रोकने का उपाय और उससे संक्रमित व्यक्ति का इलाज करने की माकूल दवा अभी तक नहीं खोजी जा सकी। हालांकि ऐसा दावा किया जा रहा है कि वैज्ञानिक सफल हो गये हैं लेकिन पूरी दुनिया तक टीके और दवाइयां पहुंचने में लम्बा वक्त लगेगा और तब तक कोरोना चुपचाप नहीं बैठेगा। चूंकि इसका संक्रमण मानवीय सम्पर्क  से फैलता है अत: इससे बचाव का सबसे प्रारम्भिक और सटीक इलाज संपर्कों की श्रृंखला को तोडऩा है और इसीलिये गत रात्रि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में आगामी 21 दिनों तक लॉक डाउन लागू करने की घोषणा के साथ ये भी बता दिया कि यदि इस दौरान लापरवाही बरती गई तो देश 21 साल पीछे चला जाएगा। भारत एक प्रजातांत्रिक देश है जहां व्यक्तिगत आजादी और मौलिक अधिकारों का बड़ा सम्मान है। लेकिन जब इंसानी जिन्दगी पर खतरा मंडरा रहा हो तब निजी स्वतंत्रता गौण हो जाती है। बीते कुछ दिनों से देश के बड़े हिस्से में लॉक डाउन लागू होने पर भी एक वर्ग उसे गम्भीरता से नहीं ले रहा था। ऐसे लोग पूरे समुदाय के लिए जानलेवा बन सकते थे। शायद यही वजह रही कि प्रधानमन्त्री को हाथ जोड़ते हुए अपील करनी पड़ी कि अपने घरों के सामने लक्ष्मण रेखा खींचकर उसके भीतर ही रहें। उन्होंने साफ कहा कि वे प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं अपितु परिवार के सदस्य के रूप में ऐसा कह रहे हैं। कोरोना की श्रृंखला को तोडऩे का यही उपाय लगभग सभी देश अपना रहे हैं। पूरी दुनिया इस समय ठहरी हुई है। संक्रमण को बढऩे से रोकने का यही एकमात्र तरीका फिलहाल नजर आ रहा है और इसकी सफलता चीन में प्रमाणित भी हो चुकीं है। ऐसे में भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में बीमारी के फैलाव पर रोक लगाने का और कोई तरीका था भी नहीं। बीते कुछ दिनों में संक्रमित लोगों की संख्या में हुई तेज वृद्धि से स्थिति गम्भीर होने लगी थी। यद्यपि भारत में अभी तक लगभग 550 मरीज ही सामने आये हैं और उनमें से भी 10 फीसदी ठीक भी हो गए लेकिन हजारों ऐसे हैं जो विदेश से लौटने के बाद एहतियात के तौर पर 14 दिनों तक एकान्त में रखे गये हैं। ऐसा माना जाता है कि दो सप्ताह के भीतर संक्रमण असर दिखाने लगता है। इस प्रकार अभी संक्रमित लोगों की संख्या के बारे में सही आंकड़ा नहीं आया है। लेकिन इसे ईश्वर की कृपा कहना गलत नहीं होगा कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश, जहां घनी बस्तियों की भरमार है में कोरोना का असर अब तक तो काफी कम हुआ किन्तु जऱा सी असावधानी इसके विस्फोट का कारण बन सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी भारत से अपेक्षा की है कि वह चेचक और पोलियो जैसी विजय कोरोना पर हासिल कर दुनिया के समक्ष एक उदाहरण पेश करे। इस बारे में काबिले गौर एक बात ये भी है कि आज का भारत विश्व समुदाय से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। भारतीय अब विश्व समुदाय बन चुके हैं। पृथ्वी के सभी हिस्सों में भारतीय मूल के लोग रह रहे हैं। ऐसे में हमारा अंतर्राष्ट्रीय संपर्क चाहे-अनचाहे कायम रहना अवश्यम्भावी है। व्यापार और पर्यटन के कारण भी दुनिया भर में हमारा आना-जाना बढ़ा है। उस दृष्टि से भारत को केवल अभी नहीं अपितु आगे भी सतर्क रहना होगा। प्रधानमंत्री ने गत दिवस 15 हजार करोड़ की राशि इस आपदा से निपटने के लिए घोषित की जो अपेक्षित भी थी और आवश्यक भी किन्तु समय आ गया है जब भारत में चिकित्सा सुविधाओं को सर्वोच्च प्राथमिकताओं में रखा जावे। भारत जैसे विशाल देश में जहां बड़ी आबादी अभी भी गरीबी रेखा से नीचे बसर करने मजबूर हो, विकसित देशों जैसी स्वास्थ्य सेवाएं सपना भले ही प्रतीत होती हों लेकिन इसे साकार करना ही होगा। कोरोना एक मुसीबत बनकर जरुर आया है लेकिन इसके कारण हमें बहुत कुछ सोचने और करने का अवसर भी मिला है। आगामी 21 दिन निश्चित रूप से किसी तपस्या से कम नहीं होंगे। पूरा देश घरों में रहेगा। कारोबार ठप होने से करोड़ों लोगों के समक्ष रोजी रोटी और पेट भरने की सामस्या आ खड़ी हुई है। ऐसे हालात किसी भी देश और समाज को अपनी ईमानदारी और एकजुटता साबित करने का अवसर प्रदान करते हैं। अपने निजी हितों से बाहर आकर सामूहिक सोच के साथ जीवन जीने के इस मौके का सही उपयोग करना ही समय की मांग है। प्रधानमन्त्री ने जिस अंदाज में बीती रात देश से अपील की उसमें सख्ती और समझाइश दोनों थीं। उनके सम्बोधन में खतरे की गहराई को खुलकर दिखाया गया साथ ही ये उम्मीद भी जताई गई कि संकट के इन क्षणों में एक नया भारत उभरकर सामने आयेगा। आने वाले 21 दिन भारत की क्षमता और संकल्पशक्ति को प्रमाणित करने वाले होंगे। कोरोना पर विजय अब एक राष्ट्रीय अभियान है जिसको लेकर किसी भी तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए। प्रबन्धन का एक सूत्र है कि गलतियों से सीखो। कोरोना से भी हम बहुत कुछ सीखेंगे। इन 21 दिनों में इस देश का कायाकल्प होगा इस अवधारणा को मजबूत करने की जरूरत है।
-रवींद्र वाजपेयी


Tuesday 24 March 2020

हिटलर को संदेश भेज दो ..



द्वितीय विश्वयुद्ध का समय:-
जर्मनी के बमवर्षकों का खौफ।
लन्दन में दूध की लंबी लाईन।
वितरण कर रहे व्यक्ति ने घोषणा की , केवल एक बोतल और है , बाकी के लोग
कल आयें।
आखिरी दूध की बोतल जिस शख्स के हाथ आई उसके ठीक पीछे एक महिला खड़ी थी जिसकी गोद में छोटा बच्चा था। उसके चेहरे पर अचानक चिंता की लकीरें उभर आईं लेकिन अचानक उसने देखा वितरण करने वाला व्यक्ति उसके हाथ में बोतल थमा रहा था। वह चौंकी । उसके आगे खड़ा व्यक्ति  बिना दूध लिए लिए लाईन से हट गया था ताकि छोटे बच्चे को गोद में  लिए वह महिला दूध हासिल कर सके।
अचानक तालियों की  आवाज आने लगी।
लाईन में खड़े सभी व्यक्ति उस शख्स का करतलध्वनि से अभिनन्दन कर रहे थे।लेकिन उस शख्स ने उस महिला के पास जाकर कहा आपका बच्चा बहुत ही प्यारा है । वह इंग्लैंड का भविष्य है उसकी अच्छी परवरिश करिए।
इस घटना की खबर प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के पास जब पहुंची तो वे जर्मनी के जबरदस्त हमलों की विभीषिका से उत्पन्न चिंता से उबरकर बोल पड़े।
हिटलर को संदेश भेज दो , ब्रिटेन की जीत को कोई नहीं रोक सकता क्योंकि यहां के लोग देश पर मंडरा रहे संकट के समय अपना निजी हित भूलकर देश के बारे में सोचते हैं।
चर्चिल का विश्वास सच निकला। ब्रिटेन विश्वयुद्ध में विजेता बनकर उभरा ।

# हमारे देश पर भी संकट मंडरा रहा है।
क्या हम अपनी चारित्रिक श्रेष्ठता प्रमाणित करने तैयार हैं??

घर में रहिये : कोरोना से बचिये




कोरोना के बढ़ते मरीजों के कारण देश के 500 से अधिक शहरों में लॉक आउट के बाद भी जब हालात नहीं सुधरे तब क र्यू लगाने की नौबत आ गई।  पंजाब और महाराष्ट्र सरकार ने पूरे राज्य में क र्यू का फैसला लिया। मप्र के भी कुछ शहरों में क र्यू लगा दिया गया  है। ये इस बात का संकेत है कि आम जनता ने इस महामारी से लडऩे के प्रति अपेक्षित गंभीरता नहीं दिखाई। अशिक्षित वर्ग यदि ऐसे अवसरों पर लापरवाही दिखाए तो बात समझ में आती है किन्तु जब पढ़े लिखे और हर दृष्टि से जानकार लोग भी आपदा के समय गैर जि मेदाराना आचरण  करें तब शासन और प्रशासन को स त होना ही पड़ेगा। कोरोना कोई  सा प्रदायिक दंगा नहीं है। न ही ये किसी प्रकार के आन्दोलन  से उपजी क़ानून व्यवस्था की परिस्थिति है। यह एक ऐसी  महामारी है जिसके आगे दुनिया के विकसित देश तक असहाय नजर आ रहे है। चीन से शुरू हुई इस बीमारी से  अमेरिका , फ्रांस , इटली , स्पेन , इंग्लैण्ड और जर्मनी जैसे विकसित देश तक नहीं बच सके जहां स्वास्थ्य सेवाएँ काफी उच्च स्तरीय हैं। जबकि  भारत में इसका मुकाबला करने की क्षमता तुलनात्मक रूप से बहुत ही कम है। ऊपर से ये बीमारी मानवीय संपर्क से फैलती है। भारत में जनसं या का घनत्व ज्यादा होने से लोगों का एक दूसरे से संपर्क में आना बहुत ही सामान्य है। सार्वजानिक स्थलों पर भीड़ की वजह से उसे रोक पाना और भी कठिन है। बसों , रेलगाडिय़ों आदि में जिस तरह लोग ठूंस - ठूंसकर  भरे होते हैं उसकी वजह से संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ जाता है। ये हमारी खुशकिस्मती है कि अभी तक भारत में कोरोना उक्त देशों की तुलना में खतरे  के निशान से ऊपर नहीं गया लेकिन जिस तरह के समाचार नित्यप्रति मिल रहे हैं उन्हें देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि यदि फौरन आपातकालीन आचरण नहीं किया गया तो भारत में वह अपना असली रौद्र रूप दिखाने से बाज नहीं आयेगा। केरल और महाराष्ट्र में देश के एक तिहाई मामले सामने आये हैं। लेकिन जिस राज्य में इक्का - दुक्का मरीज भी हैं उनमें भी खतरा उतना ही है। क्योंकि एक मरीज के स पर्क में आने वाला हर व्यक्ति कोरोना के विस्तार का कारण बन सकता है। जबलपुर में एक आभूषण  व्यवसायी की लापरवाही ने आधा  दर्जन लोगों को संक्रमित कर दिया। उसके स पर्क में आये बाकी लोगों के बारे में अभी जानकारी नहीं है जिससे प्रशासन और जनता दोनों आशंकित है। ऐसी ही लापरवाही देश में कोरोना  के मरीजों  की सं या में लगातार हो रही बढ़ोतरी का कारण बन रही है। देश में मौजूद स्वास्थ्य सेवाओं के मद्देनजर ये जरूरी हो गया है कि पूरा देश कुछ दिनों के लिए घरों में बंद रहे। हालाँकि ऐसा कहना आसान है लेकिन इसके  सिवाय अब कोई दूसरा रास्ता नहीं बच रहा। प्रधानमन्त्री ने भी कल लॉक डाउन का पालन नहीं होने पर नाराजगी जताते हुए स ती बरतने के  लिए कहा। उसी के बाद महाराष्ट्र और पंजाब में क र्यू लगा वहीं कुछ राज्यों ने चुनिन्दा शहरों में निषेधाज्ञा पूरी तरह से लागू करने का निर्णय लिया जो हर दृष्टि से उचित है। दिल्ली में अनेक महीनों से चले आ रहे शाहीन बाग के धरने का त बू भी हटा दिया गया। हालाँकि क र्यू के बावजूद आवश्यक सेवाओं को रियायत दी  गई है लेकिन उसकी आड़ लेकर कुछ लोग अनुशासन तोडऩे का जो दुस्साहस करते हैं वह एक तरह से देश विरोधी कार्य है। शासन औरर प्रशासन तो ऐसे लोगों के विरुद्ध कार्रवाई कर  ही रहा है लेकिन जनता  को खुद होकर भी उनका विरोध करना चाहिए। सामाजिक बहिष्कार और तिरस्कार का बड़ा असर होता है। कोरोना कोई एक दो दिन में लौट जाने वाली मुसीबत नहीं है उ मीद की जा रही है कि  ज्यों - ज्यों गर्मी बढ़ेगी भारत में उसका असर घटता जाएगा लेकिन अव्वल तो चिकित्सा जगत ने इसकी  पुष्टि नहीं की और दूसरी बात ये है कि दुनिया के  तमाम देशों में गर्मियों का तापमान भी हमारे देश की सर्दियों जैसा रहता है। ऐसे में ज्योंही विदेशों से आवागमन दोबारा प्रारंभ होगा त्योंही इस बीमारी के आयात की संभावना बढ़ जायेगी। बेहतर होगा कि हम भारतीय इस तरह की आपदा से निपटने का चरित्र विकसित करें जो अनुशासन से ही आता है। जन स्वास्थ्य की चिंता केवल शासन करे और हम अपने स्तर पर पूरी तरह लापरवाही बरतें ये ल बे समय तक चलने वाला नहीं है। चीन में कोरोना के आतंक की खबर मिलते ही यदि शेष  दुनिया सतर्क होकर बचाव के इंतजाम कर लेती तब हजारों मौतें रोकी जा सकती थीं । गत दिवस टीवी चैनलों पर यूरोप के एक देश में सैकड़ों लोग समुद्री  बीच पर वाटर स्पोर्ट का मजा लूटते दिखाए गये। अमेरिका तक में पार्टियां चल रही हैं। आज ही खबर आई कि चीन के चिकित्सा जगत में  कोरोना द्वारा पलटवार किये जाने की आशंका व्यक्त की  जा रही है। ऐसे में भारत सरीखे देश के सामने सामूहिक मौतें देखने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचेगा। इसलिए कोरोंना को पूरी ग भीरता से लेने का समय आ चुका है। भारत के प्रत्येक नागरिक को इस लड़ाई में  अपना योगदान देना पड़ेगा। केवल कुछ मिनिट तक थाली और ताली बजाकर अपने  कर्तव्य की इतिश्री मान लेने वाले महानुभावों से अपेक्षा है कि वे इस नाजुक घड़ी में व्यवस्था के अनुरूप आचरण करें। लॉक   डाउन या क र्यू का जो मकसद है उसे समझकर घर में रहने की आदत डालनी ही होगी। कई दिनों से बिना घर  जाए 24 घंटे अस्पताल में रहकर कोरोना से संक्रमित मरीजों की सेवा कर  रही किसी महिला डाक्टर का ये ट्वीट इस स बन्ध में विचारणीय है कि हम आपके लिए ही अपने घर से बाहर हैं तो क्या  आप हमारे लिए घरों के अंदर नहीं रह सकते ? सोचिये और खुद को ही इस प्रश्न का जवाब भी दीजिये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 23 March 2020

जनता कर्फ्यू : मेरा देश वाकई बदल रहा है



बीते कुछ दिनों में अचानक समूचा देश मौत के भय से थर्रा उठा। कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में अचानक हुई वृद्धि और देश के अनेक प्रदेशों में उसका फैलाव होने से इस महामारी के भारत में पैर पसारने की आशंका प्रबल हो उठी। आबादी के अनुपात में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और करोड़ों लोगों के सामने गंदी बस्तियों में जीवन यापन करने की मजबूरी के कारण कोरोना का संक्रमण बेकाबू होने का खतरा पैदा हो गया। मुम्बई जैसे महानगर में इसके मरीजों की तेजी से बढ़ती संख्या ने चिंता और बढ़ा दी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी ये चेतावनी दी कि जरा सी चूक होने पर भारत भी चीन, ईरान और इटली की राह पर जा सकता है। अचानक प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करते हुए 22 मार्च को जनता कफ्र्यू की अपील कर डाली। शाम को 5 बजे केवल 5 मिनट के लिए घर के दरवाजे, बालकनी या छत पर तालियां, घंटा, घंटी, थाली, शंख बजाकर उन समस्त लोगों का आभार व्यक्त करने का आह्वान भी किया जो-जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोरोना के आक्रमण से देशवासियों को बचाने के लिए अपनी जान खतरे में डालते हुए दिन रात जुटे हुए हैं। कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए वे अपने परिवार से दूर रहने में भी हिचकिचा नहीं रहे। शुरू में प्रधानमंत्री की वह सलाह और आह्वान लोगों को अटपटा लगा। कुछ तो ये भ्रम फैलाने में जुट गए कि श्री मोदी नोटबंदी जैसा कोई कदम उठाने की जमीन तैयार कर रहे हैं। लेकिन 22 मार्च आने के एक दो दिन पहले ही देश के अनेक हिस्सों से कोरोना के फैलाव की खबरें आने लगीं और कई शहरों में लॉक डाउन करने की नौबत आ गयी। नागपुर में तो पान की दुकानें तक बंद करवा दी गईं। 21 मार्च तक देश को समझ आ चुका था कि प्रधानमन्त्री का इशारा किस तरफ था। यद्यपि कुछ शहरों में तो 22 मार्च के पहले ही सब कुछ बंद हो चुका था लेकिन कल रविवार को आयोजित जनता कफ्र्यू के दौरान देश भर में जो हुआ वह अकल्पनीय था। प्रधानमंत्री के आह्वान पर बिना किसी ऐतराज या आपत्ति के लोगों ने घर में खुद को सीमित कर लिया। बिना जोर-जबरदस्ती के इस तरह का अनुशासन एक नया अनुभव था। दिन भर चारों तरफ  सुनसान रहा। न वाहनों का शोर और न और कोई आवाज। अनेक लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि अरसे बाद उन्होंने चिडिय़ों की चहचहाहट सुनी। घर-परिवार के साथ समय गुजारने का अवसर पाने से भी लाखों लोग अभिभूत हो गए। लेकिन शाम ज्योंही घड़ी ने 5 बजाये पूरा देश सामूहिक रूप से अपने घर के सामने, या बालकनी पर खड़े होकर तालियां बजाने लगा, किसी के हाथ में घंटा था तो कोई पूजा की घंटी बजाने लग गया। कुछ ने शंख ध्वनि की तो कुछ उत्साही जन अपने वाहनों के हार्न बजाकर कोरोना से लड़ रहे जांबाज योद्धाओं के प्रति राष्ट्र द्वारा कृतज्ञता ज्ञापित करने के अभियान का हिस्सा बन गए। कुल मिलाकर ये एक अद्भुत नजारा था। तनाव के इस माहौल में भी पूरे देश को एकजुट होकर एक गम्भीर बीमारी से लडऩे के लिए पहले सतर्क और फिर एकजुट करने का यह प्रयास श्री मोदी की नेतृत्व क्षमता का ज्वलंत प्रमाण बन गया। जनता कफ्र्यू के साथ ही देश के बड़े हिस्से में लॉक डाउन कर दिया गया। पूरे देश में 31 मार्च तक रेल, बसें और हवाई सेवा बंद कर दी गयी। विदेश जाने और आने दोनों पर रोक है। शिक्षण संस्थाओं में अवकाश देते हुए परीक्षाएं भी रोक दी गईं। संक्षेप में कहें तो कमोवेश पूरे देश को घर में रहने मजबूर कर दिया गया। लेकिन जिस तरह जनता ने इन बंदिशों को स्वीकार करते हुए सरकार का साथ दिया वह देशवासियों के जिम्मेदार होने का ताजा प्रमाण है। ऐसे अवसरों पर भी कुछ लोग अपनी राजनीतिक कुंठाएं निकाले बिना नहीं रहते और कोरोना को लेकर भी ऐसा हो रहा है। लेकिन संतोष का विषय है कि देश का जनमानस इस समय अपने दायित्व के निर्वहन के प्रति गम्भीर है। उसके सामान्य जीवन में अनगिनत परेशानियां आ खड़ी हुई हैं। आगे हालत और भी खराब होने की आशंका से भी वह अवगत है। लेकिन न कोई विरोध, न अपेक्षा और न ही असंतोष। ये सब देखकर इस दावे पर विश्वास करने का मन हो जाता है कि मेरा देश वाकई बदल रहा है। आजादी के आन्दोलन में भी गांधी जी के आह्वान पर इसी तरह देशवासी लडऩे को तत्पर हो जाते होंगे। लालबहादुर शास्त्री द्वारा सप्ताह में एक समय के उपवास का आग्रह किस तरह राष्ट्रीय संकल्प बन गया ये भी देखने में आ चुका है। 22 मार्च के जनता कफ्र्यू ने कोरोना से लडऩे की इच्छाशक्ति और हौसले का जो प्रगटीकरण किया उसने नई उम्मीदें जगा दी हैं। कोरोना का प्रकोप कब तक रहेगा ये दावे के साथ कोई नहीं बता पा रहा। सबके अपने-अपने अनुमान हैं । लेकिन एक बात तय हो गयी कि भारत का आम नागरिक इस खतरे से अवगत होने के साथ ही उससे सतर्क भी हो गया है। जो निश्चित रूप से एक बड़ी बात है। इस तरह के संकट के वक्त किसी देश की जनता का नेतृत्व पर विश्वास बड़ा मददगार बनता है। और ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि नरेंद्र मोदी इस कसौटी पर एक बार फिर खरे साबित हुए हैं। मौत की आहट से आतंकित जनमानस में उत्साह, आत्मविश्वास और साहस का संचार मामूली बात नहीं होती किन्तु श्री मोदी ने यह कर दिखाया। कोरोना भारत में पैर फैला चुका है लेकिन देश उससे निपटने के लिए जिस तरह तैयार दिखाई दे रहा है वह शुभ संकेत है। सीमित चिकित्सा सुविधाओं और संसाधनों के बाद भी अभी कोरोना भारत में चीन, ईरान और इटली जैसे हालात भले न पैदा कर पाया हो किन्तु जरा सी चूक से भारी जनहानि हो सकती है। उस दृष्टि से सही समय पर सतर्कता और साहस दोनों का समन्वय कायम किया जा सका। इसके लिए पूरा देश बधाई का पात्र है। ये जज्बा और सावधानी आगे भी रहनी चाहिए क्योंकि कोरोना नामक अदृश्य शत्रु कब, कैसे और किस पर हमला करेगा इसका पूर्वानुमान लगाना असम्भव है। इससे बचने के लिए क्या किया जाना है ये बताने की जरूरत नहीं है। संचार और प्रचार माध्यमों से जरूरी जानकारी दी जा रही है। उम्मीद की जा सकती है कि अभी तक जिस सूझबूझ का परिचय लोगों ने दिया वह आगे भी जारी रहेगा। कोरोना से बचना भी देश सेवा है क्योंकि इसका एक मरीज अनगिनत लोगों की जि़न्दगी खतरे में डाल सकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 21 March 2020

कोरोना : तीसरे विश्व युद्ध की पटकथा




मुझे 1962 के चीनी हमले की हल्की यादें हैं | सुरक्षा कोष में पिताजी अपनी सोने की अंगूठी दे आये थे | उससे मैं उत्साहित हुआ और बाद में जब विद्यालय में तिरंगे झंडे का बैज बिकने आया तब माताजी से मांगकर एक रुपये में मैनें उसे  खरीदा और बड़े ही गर्व के साथ अपने कोट पर लगाकर विद्यालय  जाता था | लेकिन उस युद्ध से जबलपुर में किसी खतरे का एहसास नहीं हुआ | बहुत बाद में जान पाया कि भारत  उस युद्ध में हार गया था | उसके बाद जब 1965 की लड़ाई हुई तब तक समझ का विस्तार हो चुका था | भारतीय सेना के विजय अभियान की खबरें अख़बारों और रेडियों पर सुनकर हर देशवासी की तरह मैं भी खुश होता था | पैटन टैंको  का कब्रिस्तान और सैबर जेट के मुकाबले हमारे छोटे से नैट विमानों के करतबों की जानकारी आत्त्म गौरव की अनुभूति करवाने वाली थी | चीनी हमले के कलंक को हमारी सेनाओं ने धो दिया | लेकिन उस समय भी जबलपुर में बैठे हुए कभी किसी खतरे का एहसास नहीं हुआ | 1971 की  बांग्ला देश वाली जंग तक महाविद्यालय में आ  चुका था | पूर्वी और पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेनाओं ने अपने युद्ध कौशल से इतिहास रच डाला | पहली बार भारत अंतर्राष्ट्रीय दबाव को ठुकराता दिखा | स्व. इंदिरा गांधी दुनिया की ताकतवर शासक बनकर उभरीं | उस युद्ध का विवरण भी रेडियो और अख़बारों में सुनने और पढने मिलता था | लेकिन तब तक युद्ध की आहट हमारे शहर में भी सुनाई देने लगी थी | रात में ब्लैक आउट होता | बिजली बंद कर  दी  जाती थी | आसमान से आती किसी भी आवाज को दुश्मन का विमान मानकर भय का माहौल बन जाता | जबलपुर में रक्षा उत्पादन के अनेक संस्थान होने से पाकिस्तान के हवाई हमले की आशंका बनी रहती | उसके बाद लम्बे समय तक पाकिस्तान से कोई   जंग नहीं हुई लेकिन आतंकवाद नामक समस्या गाहे बगाहे डराती रही | फिर भी कभी मौत सिर पर मंडराने का भी अंदेशा नहीं हुआ  | अनेक बीमारियों का दौर भी आया | नए नए वायरस जनित रोगों ने भी हमला बोला लेकिन वे भी आये और चले गये | पर  बीते कुछ दिनों से और ख़ास तौर पर कल रात से जबलपुर में भी कोरोना ग्रसित चार मरीज मिल जाने के बाद पूरा शहर जिस प्रकार खौफजदा है वह अभूतपूर्व मंजर है | संचार क्रांति के इस दौर में सूचना का विस्फोट खबरों के प्रवाह को सदैव गतिमान रखता है | उसमें अतिरेक भी कम नहीं है | खबरों की आड़ में भय का व्यापार भी जमकर होता है | न जाने कहां  - कहाँ से लाल बुझक्कड़ के आधुनिक अवतार व्हाट्स एप विवि के माध्यम से ज्ञान बांटते फिरते हैं | कोरोना के भय से घर में हूँ | बाहर  सन्नाटा है | न कोई  आ रहा है न जा रहा है | 

कुछ देर पहले पिता जी के पास बैठकर मौजूदा हालात पर चर्चा की तो वे अनायास दुसरे विश्व युद्ध का बारे में बताने लगे | तब रेडियो ही सहारा होता था | अख़बारों में भी उतनी विस्तार से खबरें नहीं आती थीं | जर्मनी के हमले की आशंका भी नहीं थी | लेकिन जरूरी चीजों का अभाव था | जो स्थानीय सैनिक अंगरेजी सेना के सदस्य बनकर विदेशों में लड़ने गये उनकी कुशलता जरुर चिंतित किया करती रही लेकिन अपनी जान  का खतरा नहीं होने से जीवन  सहज रूप से चलता रहा | वह  महायुद्ध छह वर्ष चला था | पिताजी ने उससे जुडी और भी बातें बताईं लेकिन सबसे बड़ी बात उनने ये बताई कि जैसा डर कोरोना का है ऐसा उनने कभी नहीं देखा | 

उनकी बात थी भी सही | दुनिया के नष्ट होने की भविष्यवाणियां समय समय पर होती रही हैं | लेकिन बजाय  डरने के लोग उसका मजा लेते हैं | टीवी चैनल तो इस तरह की खबरों का व्यापार ही  करते हैं | लेकिन कोरोंना अब वास्तविक खतरा बनकर आया है | अरबों - खरबों के अस्त्र शस्त्र गोदामों में धुल खाते रह गए और एक अदृश्य वायरस ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेकर विश्व युद्ध से भी बदतर हालात पैदा कर दिए | विज्ञान को अपने बस में करने का दावा करने वाले मुल्कों में जिस पैमाने पर लाशों के ढेर लगे वह चौंकाने के साथ ही नई चिंताएं पैदा कर  रहा है | 

कहती हैं कोरोना  का टीका तैयार होने वाला है | लेकिन तब तक ज़िन्दगी की गारंटी नहीं है | भारत जैसे देश में तो सब वैसे ही भगवान भरोसे चलता है | ऐसे  में ये सवाल पैदा हो गया है कि भले ही कोरोना जैविक यूद्ध के लिए तैयार किया वायरस न हो लेकिन इसने मानवता विरोधी मानसिकता वाले देशों के सिरफिरे शासकों को एक रास्ता दिखा दिया दुनिया को तबाह करने का | 

परमाणु हथियारों से पैदा हुआ खतरा कोरोना के सामने बौना नजर आ रहा है | बिना एक भी गोली चले और सेना के आगे बढ़े ही हजारों मारे जा चुके हैं और लाखों उसकी चपेट में आकर मौत से जूझ रहे हैं | अमेरिका और चीन एक दुसरे को  को कोरोना  के लिए दोषी  बता  रहे है | लेकिन इस सबसे अलग हटकर उत्तर कोरिया के किम जोंग जैसे तानाशाह यदि दुनिया को इस नई जंग में झोंकने पर आमादा हो गये तब क्या होगा ये वैश्विक चिंता का विषय होना चाहिए | एक वायरस क्या कर सकता  है ये दुनिया देख और भुगत रही है |

मजाक - मजाक में एक कहावत का उपयोग होता है कि बुढ़िया मर गई इसकी चिंता नहीं | डर इस बात का है मौत ने घर देख लिया | 

कोरोना अब तक जितनी जानें निगल गया उससे ज्यादा खतरा इस बात का है कि इसने भावी विश्व युद्ध के तौर तरीके दुनिया को बता दिए |

आलेख - रवीन्द्र वाजपेयी 

कमलनाथ : महत्वाकांक्षा भले पूरी हो गई लेकिन ....

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मेरी नजर में कमलनाथ कभी भी मप्र के नैसर्गिक नेता नहीं बन सके। इंदिरा जी ने उन्हें छिन्दवाड़ा की सियासी जागीर सौंपी थी। जिसकी उनने अच्छी तरह देखभाल की ये स्वीकार करना पड़ेगा।  लेकिन अगल - बगल के जिलों के प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण ही रहा। यही वजह है कि वे छिन्दवाड़ा के बाहर उतने प्रभावशाली नहीं रहे। कमलनाथ बीते 40 साल से मप्र की राजनीति में हैं लेकिन उसके बाद भी छिन्दवाड़ा में उनका किसी पर इतना विश्वास नहीं रहा कि वे उसे अपनी सीट पर बिठा देते। हवाला काण्ड के चलते जब टिकिट कटी तब उन्होंने बजाय किसी कांग्रेस नेता के अपनी गैर राजनीतिक पत्नी को लोकसभा हेतु लड़वाया जो जीत भी गईं। बाद में उनसे इस्तीफा दिलवाकर खुद लोकसभा में जाने के लिए उपचुनाव करवाया लेकिन उस समय के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की चालों के कारण कमलनाथ को हार का सामना करना पड़ा। भाजपा के कद्दावर नेता सुन्दरलाल पटवा ने उन्हें शिकस्त दी थी। हालाँकि अगले चुनाव में वे पुन: जीते। 2018 में वे मप्र के मुख्यमंत्री बन गए पर लोकसभा सीट उन्होंने अपनी मु_ी में रखी तथा अपने बेटे नकुल नाथ को टिकिट दिलवा दी। चूँकि नरेंद्र मोदी छिंदवाड़ा नहीं आये इसलिए नकुल मामूली अंतर से जीत गए। लेकिन ये बात एक बार फिर उजागार हो गयी कि छिंदवाड़ा के कांग्रेसियों ने भले ही बाहरी होने के बावजूद कमलनाथ पर आँख मूंदकर विश्वास किया किन्तु उन्हें आज भी वहां के लोगों पर यकीन नहीं रहा वरना लोकसभा सीट पर बजाय अपने बेटे के वे किसी कांग्रेसी नेता को उतारते। कल मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कमलनाथ का कद निश्चित्त रूप से छोटा हो गया। वैसे वे जिस दिन प्रदेश के मुखिया बने उसी दिन उनकी छवि राष्ट्रीय से प्रांतीय हो चुकी थी। बीते सवा साल में भी वे केवल मुख्यमंत्री रहे। मप्र के जनमानस पर भी कोई छाप नहीं छोड़ सके क्योंकि उनका स्थानीय लोगों से यहाँ तक कि कांग्रेसियों से भी जमीनी रिश्ता कभी नहीं रहा। अपने चंद प्रबंधकों के माध्यम से वे सियासत को रिमोट कंट्रोल से चलाते रहे। हाँ , एक बात जरुर थी कि उन्होंने अपनी सम्पन्नता का काफी पेशेवर तरीके से उपयोग करते हुए छिन्दवाड़ा जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र में अपना आभामंडल बनाये रखा। प्रदेश की सत्ता से बेदखल होने के बाद अब वह आभामंडल बरकरार रखना उनके लिये मुश्किल हो जाएगा। भाजपा ने जिस तरह से गुना में ज्योतिरादित्य सिंधिया को घेरा था और चुरहट में अजय सिंह राहुल का नूर उतारा बैठने ही अब छिंदवाड़ा उसका अगला निशाना होगा। कमलनाथ भले ही पूरी तरह धराशायी नहीं हुए हों लेकिन अब वे उस बूढ़े शेर की मानिंद होकर रह गये हैं जिसके नाखून और दांत घिस चुके हैं और वह खुद होकर शिकार करने की स्थिति में नहीं रहा। जब तक कमलनाथ ने खुद को केंद्र की राजनीति तक सीमित रखा तब तक दिग्विजय सिंह को वे प्रिय रहे लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही राघोगढ़ नरेश उनको पचा नहीं पा रहे थे। सरकार चलाने में दिग्विजय सिंह की दखलंदाजी का कमलनाथ ने सीधा विरोध नहीं किया लेकिन कुछ मंत्रियों से श्री सिंह पर हमले करवाए जिसके कारण दोनों में दूरी बढ़ी। जहां तक बात श्री सिंधिया की है तो उनके कमलनाथ से आत्मीय रिश्ते थे। दोनो गांधी परिवार के करीबी माने जाते थे। लेकिन दिग्विजय सिंह ने इन दोनों के बीच खाई बना दी जिसे वे निरंतर चौड़ा करते रहे। कमलनाथ सरकार चलाने में मशगूल रहे और दिग्विजय अपना और अपने बेटे का राजनीतिक भविष्य संवारने में जुट गये। अपने अनुज विधायक लक्षमण सिंह से सरकार विरोधी बयान दिलवाना राघोगढ़ परिवार का खेल था जिसे कमलनाथ समझ ही नहीं सके। यही वजह थी कि बागी विधायकों से उनका कोई संपर्क नहीं होने पाया और वे पूरी तरह दिग्विजय सिंह पर निर्भर रहे जिन्होंने काम बनाया कम बिगाड़ा ज्यादा। यद्यपि बतौर मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अनेक साहसिक और सुधारवादी फैसले किये। विकास के प्रति ललक भी उनके कामों में झलकी लेकिन नौकरशाही के तबादलों को दैनिक कार्य बना लेने की वजह से वे प्रशासनिक ढांचे में स्थिरता और कसावट नहीं ला सके। उलटे नौकरशाही उनसे नाराज होती चली गई। ऐसा उनने दिग्विजय के दबाव में किया या ये उनका निर्णय था ये स्पष्ट नहीं हो सका परन्तु इससे उनकी छवि खराब हुई। उनकी एक कमजोरी छिंदवाड़ा के प्रति अतिरिक्त प्रेम भी रही। बतौर मुख्यमंत्री अपने क्षेत्र को विकसित करना गलत नहीं था लेकिन ऐसा करते समय वे बाकी जिलों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे सके। और जो कुछ किया भी वह जमीन पर नहीं उतर सका। हालांकि अभी भी वे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के तौर पर जाने जायेंगे लेकिन शिवराज सिंह जैसी गतिशीलता और दिग्विजय सिंह जैसा व्यापक सम्पर्क न होने के कारण वे अभूतपूर्व नहीं बन सके। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि उनके सत्ता से हटते ही उनका दौर भी खत्म होने को आ गया। यहीं नहीं तो मप्र में कांग्रेस एक बार फिर वहां लौट गई जहां उसे दिग्विजय सिंह ने 2003 में लाकर छोड़ा था। कमलनाथ और दिग्विजय का उम्रदराज होना , राहुल सिंह का पराजित योद्धा बन जाना, अरुण यादव का महत्वहीन हो जाना और इनके अलावा किसी अन्य नेता की प्रादेशिक स्तर पर पहिचान नहीं होने से कांग्रेस अब बिखरी हुई सेना बनकर रह गई है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को हाशिये  पर धकेलने की दिग्विजय सिंह की चालबाजी पार्टी को कितनी महंगी पड़ी ये बताने की जरूरत नहीं है। आखिऱी दिनों में भाजपा नेताओं के विरुद्ध बदले की कार्रवाई, राजनीतिक नियुक्तियां और अधिकारियों के ट्रान्सफर जैसे कदमों ने कमलनाथ की घबराहट उजागर कर दी थी। वे चाहते तो गरिमामय तरीके से सत्ता छोड़ सकते थे लेकिन उससे चिपके रहने का जो प्रयास किया उस वजह से उनकी भद्द पिट गयी। आखिर में तो वे इतने हताश हो गये कि विधानसभा का सामना करने का साहस तक नहीं बटोर सके। भले ही मुख्यमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी हो गई हो लेकिन प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में उनका उल्लेख आधे पन्ने से ज्यादा नहीं होगा और वह भी बतौर एक मजबूर सेनापति के जो अपने ही सैनिकों से घिरकर पराजित हो गया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 20 March 2020

निर्भया काण्ड : दरिंदों के प्रति उदारता की भी सीमा हो



जब सारा देश सो रहा था तब सर्वोच्च न्यायालय खुला हुआ था। इसकी वजह राष्ट्रीय महत्व का कोई मामला न होकर चार बलात्कारियों की फाँसी रुकवाने की याचिका पर विचार करना था। आज सुबह निर्भया काण्ड के चारों दोषियों को लटकाना तय था। दिल्ली की जेल में जल्लाद भी आ चुका था। लेकिन दोषियों के वकील ने कल उच्च न्यायालय में अर्जी लगाकर फाँसी रुकवाने का दांव चला किन्तु उसे निराशा हाथ लगी। न्यायालय ने याचिका के साथ जरूरी दस्तावेज न होने पर ऐतराज जताया तो वकील साहब ने हास्यास्पद बहाने बनाते हुए फांसी टलवाने की गुहार लगाई। तब भर भी बात नहीं बनी तो सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेने का पैंतरा चला गया और न्याय में विलम्ब के लिए जानी जाने वाली हमारे देश की न्यायपालिका का सर्वोच्च प्रतिष्ठान आधी रात को तैयार होकर बैठ गया उन चार लोगों की अर्जी सुनने जिन्होंने दरिंदगी की सीमाएं तोड़ दीं। निर्भया काण्ड के वृत्तांत को दोहराने का कोई मतलब नहीं क्योंकि उसके बारे में इतना ज्यादा कहा, लिखा और पढ़ा जा चुका है कि वह अपने आप में एक इतिहास बनकर रह गया। आखिऱकार सर्वोच्च न्यायालय ने अर्जी ठुकरा दी और आज सुबह जब देश जागा तब तक वे चारों अपने किये की सजा पा चुके थे। सवाल ये है कि सर्वोच्च न्यायालय आधी रात को क्यों खुला और देर रात तक उसने उन चार लोगों की सुनवाई क्यों की जिनका अपराध जघन्यतम की श्रेणी से भी ज्यादा जघन्य था। और जवाब में सुनाई दिया कि हमारी न्यायपालिका पूरी दुनिया को ये संदेश देना चाहती है कि वह न्याय प्रदान करने के मामले में बेहद उदार है और हरसंभव अवसर फरियादी को देती है। कुछ बरस पहले याकूब मेनन नामक आतंकवादी की फाँसी रुकवाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय इसी तरह देर रात से भोर तक खुला रहा और याचिका नामंजूर किये जाने के कुछ घंटे बाद ही याकूब भी तख्ते पर लटक गया। कहते हैं न्याय होना ही नहीं होते हुए दिखना भी चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय की सम्वेदनशीलता उसी को प्रतिबिंबित करती है। लेकिन इस सदाशयता से एक नकारात्मक संदेश भी निकलता है। निर्भया कांड के दोषियों को 7 साल, 3 महीने, 4 दिन बाद उनके किये की सजा मिली। उनकी फाँसी कितनी बार टली ये भी लोग भूल चुके होंगे। दया याचिका के नाम पर अदालतों से राष्ट्रपति भवन तक जितनी कवायद हुई वह दोषियों के वकीलों की पेशेवर दक्षता का परिचायक है या हमारी न्याय व्यवस्था की कमजोरी, ये बहस का विषय है। किसी बेकसूर को सजा मिलना निश्चित रूप से कानून के नाम पर धब्बा होता है। और फिर मृत्युदंड मिलने के बाद तो गलती सुधारने का अवसर भी नहीं होता। इसीलिये निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय और उसके बाद भी राष्ट्रपति के पास दया याचिका लगाने का प्रावधान है। लेकिन इसका दुरूपयोग नरपिशाचों की मौत को टलवाने के लिए जिस तरह किया जाता है, संदर्भित प्रकरण उसका जीता-जागता उदाहरण है। निर्भया काण्ड के दोषी अब दुनिया में नहीं रहे। थोड़े दिनों की चर्चा के बाद समूचा प्रकरण लोगों की स्मृति से लुप्त हो जायेगा। क़ानून के छात्र भले इसका अध्ययन करें किन्तु आम जनता में आज के बाद निर्भया काण्ड के प्रति रूचि घटते-घटते खत्म हो जायेगी। दोषियों के वकील और देश की न्याय प्रणाली भी उसे भूलकर अपने काम में लग जायेगी। जो टीवी चैनल निर्भया की बिलखती माँ को दिखाकर अपनी टीआरपी बढ़ाया करते थे वे भी दूसरे मुद्दों की तलाश में लग जायेंगे। लेकिन ये काण्ड अनेक ऐसे सवाल छोड़ गया है जिनका उत्तर तलाशकर न्याय प्रणाली में व्याप्त उन छिद्रों को भरना जरूरी है जिनका लाभ उठाकर दरिन्दे मौत से बचते रहे। इसके लिए अदालतों और न्यायाधीशों को दोषी ठहराना ही काफी नहीं है क्योंकि जघन्यतम अपराधों के कसूरवारों को उनके किये की सजा देते समय भी हमारी न्याय व्यवस्था अपनी चिर परिचित शैली में काम करती है। ये ठीक है कि हर मामले में विशेष अदालत नहीं बनाई जा सकती और जिस मामले में मृत्युदंड की सम्भावना हो उसमें अदालतों को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी होती है। लेकिन निर्भया काण्ड के अंजाम तक पहुँचने में लगा समय और दोषियों को बचाने के लिए उनके वकील द्वारा चली गयी चालों ने हमारी न्यायपालिका की निरीहता को उजागर कर दिया। शायद ही इसके पहले किसी फाँसी की तारीख तय होने के बाद इतनी बार आगे सरकाई गयी होगी। ऐसे में डर इस बात का है कि भविष्य में भी बलात्कार या उस जैसे ही किसी अपराध में मृत्युदंड पाने वाले को बचाने के लिए उसके अधिवक्ता निर्भया कांड में आजमाए गए कानूनी दांव पेचों को दोहराने का भरपूर प्रयास करंगे और हमारी न्याय प्रणाली सब कुछ जानते हुए भी लाचार बनी रहेगी। जिस या जिन वकीलों ने निर्भया के दोषियों को फाँसी के तख्ते पर लटकने से बचाने के लिये अपने विधिक ज्ञान का उपयोग किया, उनका व्यवसाय हो सकता है और चमक जाए। लेकिन उन्हें अपने बारे में जनता द्वारा व्यक्त की गयी प्रतिक्रियाओं का भी संज्ञान लेना चाहिए। उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि वे पहले एक मनुष्य हैं और बाद में वकील। किसी की जान बचाने के लिये अपने ज्ञान और क्षमता का उपयोग करना स्वागतयोग्य है लेकिन किसी नर पिशाच को जीवित रखने में सहायक बनना गैर मानवीय है। इसके पहले कि निर्भया काण्ड कानून की किताबों में कैद होकर विस्मृति का शिकार हो जाए, इस बारे में गम्भीर चिंतन जरूरी है कि जघन्यतम अपराध करने वालों को आखिर कितने अवसर दिए जाने चाहिए ? हमारे देश की न्याय प्रणाली में उदारता और मानवीयता का जो गुण है वह अपनी जगह ठीक है लेकिन उसका लाभ उठाते हुए यदि राक्षसी मानसिकता के हौसले बुलंद हों तब उसे बदलने की जरूरत है। इस दिशा में सोचने और कुछ करने का ये सही अवसर है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 19 March 2020

संवैधानिक पद : अधिकार ही नहीं मर्यादा भी याद रहे




मप्र की राजनीति बड़े ही नाटकीय मोड़ पर आकर खड़ी हो गई है। साम , दाम दंड , भेद सभी उपायों को खुलकर आजमाया जा रहा है। मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाने के बाद भी सडकों पर राजनीति का नुक्कड़ नाटक बदस्तूर जारी है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कांग्रेस के बागी विधायकों को मनाने सदल - बल बेंगुलुरु जा पहुंचे लेकिन उनकी कोशिश बेकार साबित हुई। विधायकों ने वीडियो जारी करते हुए उनसे मिलने से साफ मना कर दिया। ऊपर से पुलिस ने गिरफ्तार किया सो अलग। प्रचार जरुर उन्हें मिल गया हो लेकिन बागी विधायकों ने जिस तरह से उनका तिरस्कार किया उससे एक बात फिर उजागर हो गयी कि कमलनाथ सरकार को खतरे में डालकर कांग्रेस के लिए मुसीबत पैदा करने में दिग्विजय सिंह का ही हाथ रहा। उनको कहीं जाने आने की पूरी आजादी है लेकिन इस तरह की गतिविधियों से पूर्व मुख्यमंत्री हंसी के पात्र बनने लगे हैं। इसी तरह भोपाल में चल रहे जवाबी राजनीतिक दांव पेंचों का कोई औचित्य नहीं है। जब दोनों पक्ष सर्वोच्च न्यायलय जा पहुंचे हैं और वहां सभी विवादित मुद्दों पर बहस चल रही है तब अदालत के बाहर होने वाली नौटंकीनुमा राजनीति किसी काम की नहीं कही जा सकती। सर्वोच्च न्यायालय में सभी पक्ष अपने-अपने तर्क रखते हुए खुद को पाक-साफ और दूसरे को गलत ठहराने में लागे हैं। आज भी सर्वोच्च न्यायालय में जो प्रश्न उठाए गये वे अधिकतर इस बात पर केन्द्रित थे कि क्या राज्य विधानसभा अध्यक्ष के जो संवैधानिक अधिकार हैं उनमें हस्तक्षेप किया जा सकता है ? न्यायाधीशों ने राज्यपाल द्वारा जारी फ्लोर टेस्ट के आदेश का पालन न किये जाने पर सवाल उठाते हुए अध्यक्ष द्वारा शेष 16 बागी विधायकों के इस्तीफे पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये विचार करने के बारे में सहमति माँगी गयी जिसे उनके अधिवक्ता ने नकार दिया। अदालत क्या फैसला देती है इस पर सभी की निगाहें लगी हैं। लेकिन इस सबके बीच एक बात जो सामने आई वह है संवैधानिक पदों पर विराजमान लोगों के असीमित विशेषाधिकार जिसके आधार पर वे स्वच्छन्द हो जाते हैं। नियन्त्रण और संतुलन का जो सिद्धांत ऐसी परिस्थितियों में ध्यान रखा जाना चाहिए है उसे पूरी तरह से उपेक्षित किया जाने लगा है। संविधान निर्माताओं ने जब संवैधानिक पदों के विशेषाधिकार निश्चित किये तब उनके मन में पक्ष - विपक्ष में बैठे देश के तत्कालीन राजनीतिक व्यक्तित्वों का चित्र था जो राजनीतिक नफे नुक्सान से उपर उठकर लोकतंत्र और देश के बारे में सोचते थे। उनका सोच और आचरण दोनों गरिमामय होता था और लोकनिंदा से उन्हें डर भी लगता था। संविधान सभा को भरोसा था कि इन विशेषाधिकारों का भस्मासुर को मिले वरदान की तरह दुरूपयोग नहीं होगा। आजादी के कुछ दशकों तक तो संसदीय प्रजातंत्र अपने आदर्श रूप का कुछ हद तक प्रदर्शन करता रहा लेकिन सत्तर के दशक के बाद से राजनीति में शुचिता , पवित्रता , मर्यादा , गरिमा ,और सबसे बढ़कर तो शर्म खत्म ही हो गयी। अधिकारों के नाम पर जो कुछ भी हुआ और हो रहा है वह पूरी तरह से स्वेच्छाचारिता है और इसीलिये बात - बात में अदालतों की शरण लेने की नौबत आ जाती है। मप्र में बीते एक सप्ताह के भीतर संविधान को जिस तरह से फुटबाल बनाकर लतियाया गया उसके बाद अब ये सोचने का वक्त आ गया है कि राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों को पुन: परिभाषित किया जाना चाहिए। यही नहीं तो इस जैसे दूसरे पदों के अधिकारों की भी समीक्षा हो। आज सर्वोच्च न्यायालय में विधानसभा अध्यक्ष की ओर से अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी द्वारा यहाँ तक कहा गया कि अध्यक्ष के क्षेत्राधिकार में न्यायपालिका का हस्तक्षेप भी मान्य नहीं है। राज्यपाल के आदेश को लेकर भी अध्यक्ष की ओर से यही बात कही गई। ये विवाद अब रह - रहकर उठने लगा है। देश में बहुदलीय लोकतंत्र होने से अलग - अलग पदों पर परस्पर विरोधी दलों के लोग नियुक्त होते हैं। उनसे अपेक्षा होती है कि वे दलीय प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर संविधान द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा में रहते हुए कार्य करते हुए अपने अधिकारों का विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए कर्तव्यों का निर्वहन करें। लेकिन बीते कुछ दशकों में स्थित्तियाँ बिगड़ते - बिगड़ते इस हद तक आ गईं कि अधिकार तो सभी को याद रहते हैं लेकिन उनसे जुड़ी मर्यादाएं और दायित्वबोध के प्रति उदासीन रवैया अपनाया जाता है।  मप्र के राजनीतिक दंगल में पहलवान लड़ते तो वह स्वाभाविक होता लेकिन यहाँ तो निर्णायक ही लंगोट कसकर आपस में उलझ गये हैं। ये हालात दुखद भी हैं और हास्यास्पद भी। विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल दोनों सम्मानित पद हैं। लेकिन उनके बीच चल रहा विवाद राजनीति को सब्जीमंडी के माहौल से भी बदतर साबित करने के लिए पर्याप्त है। कभी-कभी तो लगता है इन सफेद हाथियों की जरूरत ही क्या है ? विधानसभा का अध्यक्ष लोकतंत्र के मंदिर का संरक्षक होता है। वहीं राज्यपाल प्रदेश का शासन संविधान के अनुरूप चले इसकी निगरानी के लिए नियुक्त होते हैं। संविधान ने दोनों के अधिकार और सीमाएं भी तय कर रखी हैं। ऐसे में बेहतर हो ऐसे पदों के बीच सार्थक संवाद के माध्यम से संतुलन बना रहे लेकिन जातिगत छुआछूत मिटाने का दावा करने वाले राजनेताओं ने राजनीतिक छुआछूत रूपी नई बीमारी ऊपर से नीचे तक फैला रखी है। मप्र बीते अनेक दिनों से इसी से संक्रमित है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 18 March 2020

गोगोई : अब बात निकल ही पड़ी है तो .....





पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के राज्यसभा में मनोनयन पर उठा विवाद बड़ा ही महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका के उच्च पदों से निवृत्त होने के बाद किसी पद पर नियुक्ति का ये पहला मामला नहीं है। अनेक संवैधानिक और अन्य पदों पर केवल सेवानिवृत उच्च या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ही नियुक्त होते हैं। लोकपाल और लोकायुक्त के अलावा प्रेस काउन्सिल ऑफ  इंडिया सहित मानवाधिकार आयोग और उस जैसे अनेक संस्थानों में पूर्व न्यायाधीश की नियुक्ति अनिवार्य है। इन सब पर चयन राज्य या केंद्र की सरकारें ही करती हैं। तो क्या ये सभी राजनीति से प्रभावित नहीं हैं? अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति भी पूर्व न्यायाधीश बनाये गये। विभिन्न जांच आयोगों में भी उनकी नियुक्ति होती रही है। अब सवाल ये है कि क्या जब भी इस तरह की नियुक्ति होगी सम्बन्धित पूर्व न्यायाधीश की ईमानदारी और निष्पक्षता पर उंगलियां नहीं उठेंगीं ? श्री  गोगोई के मनोनयन की उनके साथ पत्रकार वार्ता में बैठे सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री मदन बी. लोकुर और कुरियन जोसफ  ने तो आलोचना की ही लेकिन उन मार्कंडेय काटजू ने भी तीखे शब्द इस्तेमाल किये जो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय से निवृत्ति उपरान्त प्रेस काउन्सिल ऑफ  इंडिया के अध्यक्ष के रूप में सरकारी सुविधाओं  के साथ रुतबे का लाभ उठा चुके हैं। वर्तमान में देश भर में न जाने कितने पूर्व न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद शासन द्रारा प्रदत्त किसी न किसी ऊंचे ओहदे पर बैठकर अच्छा खासा वेतन, सुविधाएं और रुतबे का मजा लूट रहे हैं। अब चूँकि श्री गोगोई की नियुक्ति पर विवाद उठ खड़ा हुआ है तो बेहतर होगा बाकी नियुक्तियों की भी विधिवत समीक्षा की जावे जिससे देश को ये पता चले कि न्याय की आसंदी से उतरकर कौन-कौन से मी लार्ड सरकारी खैरात का फायदा उठाते हुए बुढ़ापे का आनन्द ले रहे हैं। लगे हाथ ये भी स्पष्ट होना चाहिए कि देश के तमाम उच्च न्यायालयों के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय में पदस्थ वर्तमान न्यायाधीश किस राजनेता या न्यायाधीश के परिवार से हैं ? इस तरह के विवाद केवल आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित नहीं रहें  और उनसे व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियां दूर हो सकें  तो ये देशहित में होगा। रंजन गोगोई राज्यसभा की सदस्यता लेने के बाद क्या कहने वाले हैं ये सभी सुनना चाहेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

विधायकों को मतदाताओं से दूर रखना मौलिक अधिकार का हनन




मप्र की राजनीति में जो कुछ भी हो रहा है उसे देखकर हंसी भी आती है और दु:ख भी होता है। दोनों पक्षों की तरफ  से नैतिकता और लोकतांत्रिक मर्यादाओं की दुहाई दी जा रही है लेकिन इनके प्रति आस्था कहीं भी नहीं दिखाई देती। यदि कमलनाथ के पास बहुमत है तो बजाय कोरोना की आड़ लेकर मुकाबले से बचने के उन्हें उसे साबित करना था। और यदि नहीं है तो बिना लागलपेट के इस्तीफा देते हुए विपक्ष में आ बैठते। इसी तरह भाजपा भी जिन 22 विधायकों को बेंगुलुरु में बिठाये हुए है उन्हें भोपाल लाकर विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष पेश कर देती तो अब तक अनिश्चितता दूर हो जाती। विधानसभा अध्यक्ष भी पूरी तरह से दलीय राजनीति का हिस्सा बने दिखाई दे रहे हैं। 22 बागी विधायकों में से 6 के इस्तीफे उनके वीडियो देखकर उन्होंने स्वीकार कर लिए लेकिन बाकी के बारे में उनकी नीति और नीयत दोनों समझ से परे हैं। राज्यपाल महोदय संविधान के मुखिया के तौर पर हैं लेकिन उनको भी कोई निष्पक्ष नहीं मान रहा। उनके स्पष्ट निर्देशों की मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष दोनों ने खुले आम धज्जियां उड़ा दीं लेकिन वे ये कहते हुए रह गये कि मुझे आदेशों का पालन करवाना आता है। भाजपा सर्वोच्च न्यायालय में लोकतंत्र बचाने के नाम पर जा पहुंची तो पीछे - पीछे कांग्रेस ने भी बागी विधायकों को बेंगुलुरु से लाने के लिए अदालत में अर्जी लगा दी। उधर बेंगुलुरु में बैठे विधायक वहां क्यों रुके हैं इसका जवाब भी किसी के पास नहीं है। उनके जो वीडियो सामने आये उनमें वे किसी दबाव से मुक्त होकर स्वेच्छा से ठहरे होने की बात दोहरा रहे हैं किन्तु उनके पास इस बात का कोई ठोस आधार नहीं है कि वे लौट क्यों नहीं रहे ? विधायकों को दूसरे राज्य में जाकर छिपने की क्या जरूरत पड़ गई इसका जवाब कोई नहीं दे पा रहा। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने उन्हें जबरन बंधक बना रखा है। मुख्यमंत्री ने तो ये तक कहा कि वे सब अपने घर लौट आयें और खुली हवा में सांस लें उसके बाद फिर वे विधानसभा में अपना बहुमत साबित करेंगे। लेकिन ये आरोप तो कांग्रेस पर भी है कि वह अपने विधायकों को अकेला नहीं छोड़ रही। यदि उनकी निष्ठा असंदिग्ध है तो पहले जयपुर और अब भोपाल के एक आलीशान होटल में उन्हें क्यों बिठा रखा है ? इसी तरह भाजपा भी अपने विधायकों को बटोरकर एक साथ रखे हुए है। कुल मिलाकर अविश्वास पूरे माहौल पर हावी है। न कोई नैतिक है और न ही निष्पक्ष। एक पक्ष सत्ता हासिल करने के लिए मरा जा रहा है तो दूसरा उससे चिपके रहने के लिए किसी भी हद तक जाने को आमादा है। संख्या बल हाथ से खिसक जाने के बाद भी बीते दो - तीन दिनों में जिस तरह से प्रशासनिक और राजनीतिक नियुक्तियां की गईं वे लूट सके सो लूट वाली कहावत को चरितार्थ कर रही है। इस सबके लिए किसी एक को कसूरवार ठहराना तो अन्याय होगा क्योंकि सभी पक्ष किसी न किसी रूप में लोकतंत्र का चीरहरण करने पर आमादा हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने अपने विधायकों को भेड़-बकरी जैसा बना दिया है। बीते 10-15 दिनों से वे अपने मतदाताओं और परिजनों से दूर हैं। भोपाल से सर्वोच्च न्यायालय तक संविधान के पालन और उल्लंघन की चर्चा चल रही है लेकिन प्रदेश के करोड़ों मतदाता अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधि से जबरन दूर किये जाएं तो क्या ये उनके मौलिक आधिकारों का हनन नहीं है ? मामला चूंकि सर्वोच्च न्यायालय में है इसलिए होगा तो वही जो वह चाहेगा लेकिन इस समूचे विवाद में जो मतदाता इस संसदीय प्रजातंत्र का आधार है उसकी न कोई भूमिका है और न ही पूछ-परख। हमारे देश में ये स्थिति गाहे बगाहे किसी न किसी राज्य में बनती ही रहती है इसलिए आम जनता भी उसे गंभीरता से नहीं लेती लेकिन अब उसे भी सामने आना चाहिए। जनप्रतिनिधि अपनी राजनीतिक पार्टी के प्रति वफादार रहें ये तो जरूरी है लेकिन इस दौरान जनता पूरी तरह उपेक्षित कर दी जाए ये कहां का लोकतंत्र है?

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 17 March 2020

पूर्व न्यायाधीशों को लेकर आचार संहिता बननी चाहिए

मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : सम्पादकीय
- रवीन्द्र वाजपेयी

पूर्व न्यायाधीशों को लेकर आचार संहिता बननी चाहिए

देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई एक बार फिर चर्चाओं के साथ विवाद में हैं। लेकिन उसकी वजह उनका अदालती फैसला न होकर राज्यसभा में उन्हें मनोनीत किया जाना है। राजनीतिक क्षेत्र के अलावा सोशल मीडिया पर भी उनके, मनोनयन पर पक्ष-विपक्ष में टीका-टिप्पणी हो रही है। ये कहा जा रहा है कि राम मन्दिर संबंधी फैसले के पुरस्कार स्वरूप उन्हें ये सौगात दी गई। कुछ लोगों का ये मानना है कि मोदी सरकार का ये कदम दूरगामी सोच की तरफ  इशारा करता है। ऐसा करके उसने वर्तमान न्यायाधीशों को ये लालच दे दिया है कि वे सरकार के अनुकूल फैसले देते रहें तो सेवा निवृत्ति के बाद उनका ध्यान रखा जाएगा। और भी अनेक बातें कहीं जा रही हैं। वैसे ये पहला अवसर नहीं है जब न्यायपालिका की सर्वोच्च आसंदी से निवृत्ति के उपरान्त किसी को राजनीतिक सत्ता ने उपकृत किया हो। सबसे बड़ा उदाहरण देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे रंगनाथ मिश्र का है जिन्हें कांग्रेस सरकार ने राज्यसभा में भेजा। दिल्ली में सिख दंगों के दौरान हुए नरसंहार में कांग्रेस के कतिपय नेताओं को बेकसूर ठहरा देने वाले आयोग के श्री मिश्र ही मुखिया रहे। दूसरा उदाहरण देश के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे एम एस गिल का था जिन्हें कांगे्रस ने राज्यसभा में भेजने के बाद केन्द्रीय मंत्रीमंडल में राज्य मंत्री भी बनाया। यद्यपि पूर्व न्यायाधीशों और नौकरशाहों को इस तरह से महिमामंडित करने पर आलोचना के स्वर सदैव उठे। ये सुझाव भी आया कि एक निश्चित अवधि तक उन्हें कोई पद स्वीकार नहीं करना चाहिए। न्यायपालिका में भी इस बारे में बुद्धिविलास होता रहा। अभी तक आम तौर से पूर्व न्यायाधीश किसी जांच आयोग, नियामक संस्थाएं, मध्यस्थत्ता ट्रिब्यूनल आदि में नियुक्त होते रहे। लेकिन राज्यसभा में मनोनयन का ये पहला प्रकरण है। फिर भी श्री गोगोई पर जिस तरह के तंज कसे जा रहे हैं उनके पीछे यदि नैतिक और पारदर्शी सोच होती तब उसे सहज रूप में लिया जा सकता था। लेकिन आज उनके विरोध में खड़े अधिकतर लोग वही हैं जो कुछ बरस पहले सर्वोच्च न्यायालय में चार न्यायाधीशों द्वारा की गयी पत्रकारवार्ता में श्री गोगोई के शामिल रहने पर उनके साहस की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। उस दौरान तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के बहाने चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने मोदी सरकार पर न्यायिक स्वतंत्रता में दखल देने का आरोप लगाया। उस पत्रकार वार्ता ने पूरे देश में तहलका मचा दिया था। उस समय ऐसा माहौल बना जैसे देश में न्यायपालिका पूरी तरह से सरकार के शिकंजे में कैद होकर रह गयी। उन चार में से तीन तो सेवा निवृत्त हो गए। बचे श्री गोगोई जिनके बारे में ये माना जा रहा था कि कांग्रेसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण शायद केंद्र सरकार उनसे कनिष्ट किसी को मुख्य न्यायाधीश बनायेगी। अतीत में भी ऐसा हुआ है। पत्रकार वार्ता में उनकी मौजूदगी भी उनकी राह में अवरोधक थी। लेकिन मोदी सरकार ने ऐसा नहीं किया।  उनके पद पर आने के बाद ही उनके बारे में सरकार के साथ मिल जाने जैसी चर्चाएं शुरू हो गईं। राम जन्मभूमि के अलावा अनेक ऐसे प्रकरण हुए जिनमें श्री गोगोई द्वारा दिये गए फैसलों को सरकार की तरफदारी समझा गया। अयोध्या विवाद को दैनिक सुनवाई द्वारा उन्होंने जिस तत्परता से निपटाया वह इतिहास बन चुका है। उसके लिए उनकी जबरदस्त तारीफ  हुई लेकिन सेकुलर और अवार्ड वापिसी तबके को वह फैसला हजम नहीं हुआ जो उन्होंने अपनी सेवा निवृत्ति के ठीक पहले दिया। लेकिन याद रखने वाली बात येे भी है कि उस पीठ में चार न्यायाधीश और भी थे जिनमें एक मुस्लिम भी था। लेकिन सभी ने एक सा निर्णय दिया जो बड़ी बात थी। बहरहाल श्री गोगोई के पद से हटने के बाद भी उनके ऊपर निशाने साधे जाते रहे। ये भी कहा जाता है कि एक महिला द्वारा उन पर लगाये गये आरोप इसी षडय़ंत्र का हिस्सा थे जिस कारण वे दबाव में रहे। अनेक पूर्व मुख्य न्यायाधीश विभिन्न कारणों से विवादित हुए। कुछ पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगे और जांच भी हुई। भाई भतीजावाद भी न्यायपालिका में जमकर छाया रहता है। भ्रष्टाचार की बात तो खुद न्यायाधीश भी स्वीकार करते हैं। ऐसे में पूर्व मुख्य न्यायाधीश को राज्यसभा में मनोनीत किये जाने पर उठ रहे सवाल अपनी जगह सही हैं। बेहतर तो यही होता कि वे खुद होकर इसके लिए असहमति व्यक्त कर देते। लेकिन अब समय आ गया है जब इस तरह की नियुक्तियों को लेकर नियम या आचार संहिता बनाई जावे। सेवा निवृत्त न्यायाधीश के अनुभव का उपयोग करना बुरा नहीं है लेकिन ऐसा करते समय उसकी निष्पक्षता पर सवाल न उठें ये ध्यान रखना जरूरी है। हालांकि हमारे देश के नेता और न्यायपालिका से जुड़े लोग इस बारे में कितने सहमत होंगे ये कहना मुश्किल है। क्योंकि नैतिकता का ढिंढोरा पीटना और उसका पालन करना दो अलग बातें होकर रह गई हैं। यही वजह है कि श्री गोगोई की आलोचना वही लोग कर रहे हैं जिन्होंने खुद सत्ता में रहते हुए गलत परम्परा शुरू की। और जिनने ये मनोनयन किया वे उस समय उनका विरोध किया करते थे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 16 March 2020

निष्पक्षता छोड़ पक्षकार बन गये निर्णायक



मप्र के राजनीतिक संकट का परिणाम फिलहाल पूरी तरह अनिश्चित है। दोनों पक्ष अपने प्रतिद्वंदी को मात देने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं। नैतिकता, शुचिता और लोकतान्त्रिक मर्यादाएं भोपाल के तालाब की गहराइयों में समा चुकी हैं। लेकिन इस सबके बीच संवैधानिक पदों पर विराजमान महानुभावों की कार्यप्रणाली पर उठ रहे सवाल हर उस व्यक्ति को विचलित कर रहे हैं जिसका लोकतंत्र में अटूट विश्वास है। इस तरह के राजनीतिक संकट के समय दो पद अचानक महत्वपूर्ण हो जाते हैं , पहला राज्यपाल और दूसरा विधानसभा अध्यक्ष। मप्र की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में भी इनके निर्णयों पर पूरा खेल आकर टिक गया है। विधायकों का पाला बदल और उन्हें भोपाल से दूर कहीं ले जाकर रखने के पीछे का मकसद तो समझ में आता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने काफी पहले ही ये व्यवस्था कर दी थी कि किसी भी सरकार का बहुमत राष्ट्रपति या राजभवन में नहीं वरन सदन के भीतर मतदान से होना चाहिए। इसीलिये जब भी किसी सरकार के बहुमत पर सवाल उठता है तब महामहिम उसे सदन के भीतर साबित करने का निर्देश देते है। मप्र में कांग्रेस के अनेक विधायकों द्वारा सदस्यता से इस्तीफा दे दिए जाने के कारण कमलनाथ की सरकार का बहुमत ज्योंही खतरे में में आया त्योंही भाजपा ने राज्यपाल का दरवाजा खटखटाया और उन्होंने आज 16 मार्च को विधानसभा का सत्र शुरू होते ही अपने अभिभाषण के फौरन बाद सरकार को बहुमत साबित करने का निर्देश दे दिया। उनकी तरफ  से ये निर्देश भी दिया गया कि मतदान बटन दबाकर किया जावे। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री कमलनाथ ने उनसे मिलकर कहा कि बेंगुलुरु में बैठे 22 विधायकों को वापिस लाये जाने की व्यवस्था पहले हो। इस दौरान ये पेंच भी फंस गया कि बेंगुलुरु जा बैठे 22 विधायकों के जो इस्तीफे विधानसभा अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद प्रजापति तक एक भाजपा नेता द्वारा पहुंचाए गए थे उन्हें मंजूर करने के लिए उन्होंने तिथि निर्धारित की। इसके पीछे उद्देश्य इस बात की पुष्टि करना था कि त्यागपत्र बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से दिया गया है। यद्यपि उनके बुलाने पर विधायक नहीं आये लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से श्री प्रजापति ने उनमें से छह के त्यागपत्र मंजूर कर लिए। ये छह पूर्व मंत्री थे जिन्हें मुख्यमंत्री के आग्रह पर राज्यपाल द्वारा एक दिन पहले ही बर्खास्त किया जा चुका था। अध्यक्ष महोदय का ये निर्णय चौंकाने वाला था क्योंकि उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित नहीं होने के बावजूद भी इस आधार पर छह पूर्व मंत्रियों के इस्तीफे मंजूर कर दिए क्योंकि वे वीडियो साक्षात्कार में ऐसा कह चुके थे। यद्यपि शेष विधायकों ने भी वीडियो पर वैसे ही साक्षात्कार दिए थे लेकिन अध्यक्ष ने उनका संज्ञान नहीं लिया जिसका कारण वे ही बता सकते हैं। दूसरी तरफ  राज्यपाल द्वारा आज बहुमत साबित किये जाने के निर्देश को हवा में उड़ा दिया गया। पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर श्री प्रजापति ने उसे एक काल्पनिक सवाल बताते हुए ये एहसास करवाने की कोशिश की कि वे महामहिम की बात मानने को बाध्य नहीं हैं। उधर राज्यपाल को जब भाजपा से पता लगा कि सदन में वोटिंग के लिए बटन दबाने वाली प्रणाली खराब है और ध्वनि मत से बहुमत साबित किये जाने पर गड़बड़ी की आशंका है तब महामहिम ने विधानसभा सचिव को बुलाकर उनकी खिंचाई कर दी। यहीं नहीं आधी रात को मुख्यमंत्री को बुलवाकर आज की कार्यसूची में बहुमत साबित करने का जिक्र न होने पर नाराजगी भी व्यक्त की। इस पर कमलनाथ ने अपनी पहले वाली बात दोहराते हुए बेंगुलुरु से 20 विधायकों के लौटने की शर्त रख दी। राज्यपाल द्वारा दबाव बनाये जाने पर उन्होंने ये कहकर बात टाल दी कि बहुमत परीक्षण पर अध्यक्ष ही निर्णय लेंगे जिन्होंने आज राज्यपाल के अभिभाषण के बाद कोरोना का बहाना बनाकर सदन 26 मार्च तक स्थगित कर दिया गया। इस दौरान ये साफ़  हो गया कि भाजपा बहुमत साबित करने के लिए लालायित है वहीं सत्ता पक्ष इसे जितना हो सके टालने की रणनीति पर चल रहा है। दोनों तरफ  से व्हिप जारी हो चुके थे। बागी विधायकों के अलावा भी कुछ और के एन वक्त पर पाला बदलने की चर्चा दोनों तरफ  से चलाई जा रही थी। सरकार को गिराने और बचाने के साथ ही राज्यसभा चुनाव के लिहाज से भी मोर्चेबंदी हो रही है। लेकिन राजनीतिक रस्साकशी से अलग हटकर राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष भी इस खेल में बजाय निष्पक्ष निर्णायक बने रहने के पक्षकार बनकर सामने आ गए। हालांकि ये कोई पहला उदाहरण नहीं है। जिस राज्य में भी इस तरह का राजनीतिक संकट आता है वहां राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका पर सवाल उठते हैं। यदि दोनों एक ही राजनीतिक दल से जुड़े रहे हों तब तो सामंजस्य बना रहता है लेकिन अलग दलों से होने पर वैसा ही टकराव देखने मिलता है जैसा मप्र के मौजूदा राजनीतिक संकट में दिखाई दे रहा है। क्या राज्यपाल सदन की कार्यसूची तय करने संबंधी निर्देश दे सकते है और विधानसभा अध्यक्ष उसे मानने बाध्य हैं या नहीं इसे लेकर भी सवाल खड़े हो गये हैं। कौन सही है और कौन गलत ये विश्लेषण और वैधानिक समीक्षा का विषय है लेकिन एक बार फिर इन दोनों संवैधानिक पदों से जुडी गरिमा को ठेस पहुंची है। भले ही दोनों अपने को निष्पक्ष और नियम प्रक्रिया से जुड़ा बताते फिरें लेकिन सामान्यतया ये माना जा रहा है कि राज्यपाल भाजपा की सरकार बनवाने की भूमिका तैयार कर रहे हैं वहीं विधानसभा अध्यक्ष की पूरी कोशिश कमलनाथ सरकार को बचाने की है। आज सदन में जो कुछ हुआ उसके बाद राजभवन की भूमिका क्या होगी इस पर सभी की निगाहें लगी रहेंगीं। बात राष्ट्रपति शासन की भी हो रही है। भाजपा आज के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय भी जा पहुंची है जहां कल सुनवाई होनी है। लेकिन दु:ख का विषय ये है कि संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरूपयोग की पुनरावृत्ति रुकने का नाम नहीं ले रही। मप्र में जो कुछ भी हो रहा है और आगे भी होगा उसमें जीते हारे कोई भी लेकिन जिस संविधान की दुहाई पक्ष-विपक्ष बात-बात में देते नहीं थकते उसका जमकर मजाक उड़ रहा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 14 March 2020

दंगाइयों से हर्जाना वसूली का कानून पूरे देश में लागू हो



उप्र सरकार द्वारा जुलूस, प्रदर्शन, हड़ताल और बंद आदि के दौरान होने वाले उपद्रव से सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वालों से हर्जाना वसूलने के लिए गत दिवस एक अध्यादेश लाया गया। बीते दिनों अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सीएए विरोधी दंगों के दौरान सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वालों के नाम और पते युक्त चित्रों के पोस्टर सड़कों पर प्रदर्शित किये जाने पर स्वत: संज्ञान से विचार करते हुए उप्र सरकार को उन्हें उतारने का आदेश देते हुए उसे निजता और सम्मान के विरुद्ध बताया। राज्य सरकार उस आदेश के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय गई लेकिन वहां भी उससे सवाल पूछा गया कि उस कदम का कानूनी आधार क्या था? उच्च न्यायालय ने अपने आदेश के क्रियान्वयन हेतु 16 मार्च तक का समय दिया है। उक्त आदेश पर पूरे देश में बहस हो रही है। दंगाइयों की निजता और सम्मान की बात बहुतों को हजम नहीं हुईं। दंगों के दौरान सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाना आम हो गया है। लखनऊ दंगों का पूरा घटनाक्रम टीवी कैमरों में सीधा प्रसारित हुआ था। उप्र सरकार ने उसके बाद नुकसान की भरपाई दोषी व्यक्तियों से करने के लिए बाकायदा नोटिस देकर वसूली की कार्रवाई शुरू कर दी। दंगा भड़काने के आरोपी कुछ लोगों के नाम, पते और चित्र युक्त पोस्टर लगाकर सार्वजनिक किये गए। जिन्हें अलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश गोविन्द माथुर ने हटवाने के आदेश दे दिए। सर्वोच्च न्यायालय में उस आदेश के विरुद्ध की गयी अपील की सुनावाई के दौरान भी राज्य सरकार को असहज लगने वाले प्रश्नों का सामना करना पड़ा। इसीलिये योगी सरकार ने बिना देर किये एक अध्यादेश निकलवा दिया जिसमें सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वाले से उसका हर्जाना वसूल किये जाने का प्रावधान है। यद्यपि इसकी विस्तृत नियमावली इतनी जल्दी तैयार नहीं हो सकती इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत अपील में राज्य सरकार को कितनी राहत मिलेगी ये कहना कठिन है लेकिन अध्यादेश लागू होने के बाद दंगों के दौरान उपद्रव करने वालों में खौफ  जरूर पैदा होगा ये उम्मीद की जा सकती है। योगी सरकार के इस कदम की आलोचना करने वाले भी शांत नहीं बैठेंगे किन्तु हर समझदार व्यक्ति इस बात को लेकर चिंतित है कि जनांदोलनों के दौरान तोडफ़ोड़ सामान्य हो गई है। पुलिस की गाडिय़ों के अलावा सार्वजनिक बसों और निजी वाहनों को क्षति पहुँचाने और आग लगा देने की प्रवृत्ति आम होती जा रही है। निजी संपत्ति भी निशाने पर होती है। लखनऊ के उपद्रव में सीसी कैंमरों के जरिये दोषी तत्वों की पहिचान करने के बाद राज्य सरकार द्वारा उन पर हर्जाने की कार्रवाई की गयी। दिल्ली में हुए हालिया दंगों में भी बड़े पैमाने पर सरकारी और निजी सम्पत्ति में तोडफ़ोड़ और आगजनी का नजारा दिखाई दिया। इस परिप्रेक्ष्य में योगी सरकार द्वारा जारी किया गया अध्यादेश सामयिक कदम भी है और साहसिक भी। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति और आन्दोलन की स्वतंत्रता एक आवश्यक तत्व है लेकिन हमारे देश में इसके स्वछंदता में बदल जाने से अनुशासनहीनता का बोलबाला हो गया। कानून का लिहाज और भय दोनों नजर नहीं आते। आन्दोलनकारी कब दंगाई बन जाते हैं ये समझ ही नहीं आता। किसी भी मांग के लिए सड़क पर खड़े वाहनों को नुकसान पहुंचाना या जला देना कैसा लोकतंत्र है? पुलिस चौकी में आग या किसी दूकान अथवा मकान को जला देने का भी औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। लखनऊ और दिल्ली के दंगों के बाद के जो चित्र आये उन्हें देखकर लगा कि दंगाइयों को केवल सजा देने मात्र से काम नहीं चलने वाला। उस दृष्टि से योगी सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश पर केंद्र सरकार को भी विचार करते हुए पूरे देश के लिए वैसा ही कानून बनाने की पहल करना चाहिए। हो सकता है सरकार के कुछ सहयोगी भी इस पर आपत्ति दर्ज करवाएं और इसमें भी सांप्रदायिकता ढूंढ ली जावे लेकिन लोकतंत्र को बेलगाम होने से बचाने के लिए ऐसा करना निहायत जरूरी हो गया है। शांतिपूर्ण आन्दोलन कब हिंसक हो जाए कहना कठिन होता है। ये कहना भी गलत नहीं है कि भीड़ का लाभ लेकर असामाजिक, अपराधी और राष्ट्रविरोधी तत्व अपना खेल दिखा देते हैं। निजी खुन्नस निकालने का काम भी होता है। पहले ऐसे लोगों की पहिचान नहीं हो पाने से पुलिस और प्रशासन उनके विरुद्ध कुछ करने में सक्षम नहीं होते थे लेकिन अब सीसी कैमरों की मदद से उपद्रवियों की शिनाख्त सम्भव है। ऐसे में उनके द्वारा की जाने वाली तोडफ़ोड़ और आगजनी की भरपाई उनसे किया जाना संभव हो गया है। इस आधार पर योगी सरकार के इस अध्यादेश का राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में समर्थन किया जाना चाहिये। कानून केवल किताबों में सिमटकर रह जाने की बजाय व्यवहारिक हो और उसके पालन के प्रति गम्भीरता हो इसके लिए ऐसे कदम जरूरी हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 13 March 2020

गनीमत है कोरोना भारत से शुरू नहीं हुआ वरना ....

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विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोरोना को वैश्विक महामारी घोषित करने के बाद अमेरिका जैसे देश तक ने उसे खतरनाक मानते हुए यूरोप से आने वाले लोगों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्री भी  कोरोना पीडि़त हो गए हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति तो एक विदेशी राष्ट्र प्रमुख के स्वागत में नमस्कार करते दिखाई दिए। ईरान सरकार के अनेक  बड़े नेता इस बीमारी की चपेट में आकर जान गँवा बैठे। इटली भी कोरोना  से हलाकान है। वहां सभी लोगों को घर में रहने कह दिया गया है। अनेक देशों में कर्मचारियों को घर में रहकर ही काम करने की सुविधा दे दी गयी है। चीन में अब नये मरीजों की संख्या में तो कमी आई है लेकिन अनेक देशों में कोरोना से लाखों लोग संक्रमित हो चुके हैं। चूँकि अभी तक इसका कोई टीका नहीं बना इसलिए इसको रोकने  के बारे में चिकित्सा जगत भी असहाय है। केवल इजरायल ने ये दावा किया है कि वह कोरोना को रोकने वाली दवाई बनाने के करीब पहुंच चुका है। इस बीच भारत की संसद में गत दिवस स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने कोरोना  को लेकर  जो जानकारी प्रस्तुत की वह वाकई उत्साहवर्धक है। चीन के साथ भारत के व्यापार सम्बन्ध होने से वहां आना जाना बढ़ा है। बीमारी के चरमोत्कर्ष के वक्त भी उसके मुख्य केंद्र वुहान में सैकड़ों भारतीय थे जिन्हें सुरक्षित निकाल लिया गया। ईरान में कार्यरत भारतीय भी सुरक्षित बुला लिए गये। जबकि वहां के हालात बेहद चिंताजानक हैं। यही नहीं तो भारत सरकार ने कोरोना  की जांच हेतु एक आधुनिक लैब के उपकरण ईरान भेजे हैं जिन्हें उसे भेंट में दे दिया जावेगा। एहतियातन भारत में भी हाई एलर्ट कर दिया गया है। हवाई अड्डों पर विदेशों से आने वालों की सघन जाँच हो रही है। दिल्ली सहित अनेक राज्यों में स्कूल 31 मार्च तक बंद कर  दिए गये हैं। दिल्ली सरकार ने तो सिनेमा घरों में भी तालाबंदी करवा दी। वहीं आईपीएल मैच बिना दर्शकों के करने कहा गया है। आम जनता को कोरोना से बचाने के लिए सावधानी बरतने हेतु सरकारी प्रचार किया जा रहा है। संचार माध्यम भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। भारत सरकार  ने 15 अप्रैल तक सभी वीजा रद्द कर दिए हैं। इसके कारण पर्यटन, होटल, उड्डयन व्यवसाय चौपट होने लगा है। तथा पहले से चली आ रही आर्थिक मंदी और भी खतरनाक स्तर तक जा पहुँची है। भारत में हालाँकि कोरोना से संक्रमित मरीजों की संख्या अभी तक 100 से भी कम है और सऊदी अरब से लौटे  एक वृद्ध की कल हुई मौत के अलावा अभी तक किसी और के मरने की जानकारी नहीं आई है। लेकिन आर्थिक क्षेत्र में कोरोना का जबर्दस्त असर हुआ है। अर्थव्यवस्था की हालत चिंताजनक है। चीन से आयात रुकने की वजह से कच्चे माल की किल्लत हो रही है। जिसका असर आने वाले दिनों में दिखाई देगा। चेहरे पर लगाने वाले मास्क और हाथ धोने वाले एल्कोहल युक्त सैनेटाईजर खत्म हो चुके हैं या उनकी कालाबाजारी हो रही है। लेकिन इस बारे में सबसे बड़ी बात एक आर्थिक विशेषज्ञ ने कही जिसके अनुसार यदि ये बीमारी चीन की बजाय भारत से शुरू हुई होती तो हालात भयावह हो जाते। चीन में महामारी का हमला बेहद भयानक था। इसके पहले कि कुछ समझ में आता तब तक हजारों लोग संक्रमित हो चुके थे और बड़ी संख्या में मौतें हो गईं। ये भी माना जाता है कि साम्यवादी सरकार होने के नाते वहां कोरोना से मारे गये लोगों की सही जानकारी नहीं दी गई। करोड़ों लोग लम्बे समय तक घरों में कैद जैसे रहे किन्तु हल्ला नहीं मचा। हफ्ते भर के भीतर हजारों मरीजों की क्षमता वाले अस्थायी अस्पातल की व्यवस्था भी वुहान में कर ली गयी। उस दृष्टि से  भारत में अचानक आने वाली ऐसी किसी महामारी से निपटने के इंतजाम बहुत ही कम हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने जिस तरह के कदम उठाये उसकी वजह से बीमारी का प्रकोप ज्यादा नहीं फैला। सरकारी आंकड़ों को सही न मानें तब भी इटली और ईरान की अपेक्षा भारत ने काफी बचाव कर  लिया। विदेशों  से आने वालों की सघन जाँच और जरा भी लक्षण पाए जाने पर पूरी सावधानी बरतने के साथ ही देश भर में तकरीबन 50 लैब के अलावा उतने ही कलेक्शन सेंटर स्थापित करना काफी सहायक बना। जनता को जागरूक भी समय रहते कर  लिया गया। भारतीय मौसम और बाकी  परिस्थितियों के मद्देनजर कोरोना का बहुत ज्यादा असर शायद नहीं पड़े लेकिन इस बहाने हमें अपनी स्वास्थ्य सेवाओं के आकलन का एक अच्छा अवसर मिल गया। सरकार के आलोचकों ने भी ये माना कि केंद्र सरकार ने कोरोना को लेकर अभी तक जो कुछ भी किया वह संतोषजनक कहा जा सकता है। लेकिन इसी के साथ ये बात भी स्वीकार करनी होगी कि प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला सरकारी खर्च समय और जरूरत के मुताबिक बहुत ही कम है। चंद अपवादों को छोड़ दें तो सरकारी चिकित्सा सुविधाएँ ही बीमार हैं। मोदी सरकार ने जिस आयुष्मान योजना को लागू किया वह मुख्य रूप से शहरों में ही कारगर है क्योंकि वहां सरकारी के साथ ही निजी अस्पतालों की भरमार है किन्तु छोटे शहरों, कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में हालात बहुत ही दयनीय हैं। किसी भी तरह की विपत्ति उससे लडऩे के तरीकों की खोज का आधार बनती है। महामारी के बाद ही उसका इलाज खोजा  जाता है। लेकिन भारत में इस बारे में आत्मनिर्भरता का अभाव है क्योंकि चिकित्सा जगत में शोध की स्थिति वैश्विक स्तर के हिसाब से  बहुत ही मामूली है। केंद्र  और राज्यों के बजट में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च के आंकड़े बढ़ती जरूरत को पूरा नहीं करते। दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने मोहल्ला क्लीनिक की दशा को काफी सुधारा और मुफ्त इलाज की सुविधा भी प्रदान की किन्तु किसी बड़ी महामारी से लडऩे की योग्यता और क्षमता हमारे देश के चिकित्सा तंत्र में नहीं है। मौजूदा संकट तो आने वाले कुछ दिनों में तापमान बढ़ते ही खत्म हो जाएगा लेकिन कोरोना दोबारा नहीं लौटेगा इसकी गारंटी क्या है? इसी के साथ यदि इसी तरह का कोई नया और अपरिचित वायरस कहीं भारत में आ धमका तब क्या होगा उसकी तैयारी भी होनी चाहिए।  फर्ज करें यदि कोरोना का प्रकोप चीन के बजाय भारत से प्रारम्भ हुआ होता तो जो हालात बनते उसकी कल्पना मात्र से रूह कांपने लगती है। हर साल चमकी बुखार से सैकड़ों बच्चों की मौत को रोक पाने में विफल हमारे चिकित्सा तंत्र को स्वस्थ और तंदुरस्त बनाने के लिए उसे देश की सुरक्षा जैसी सर्वोच्च प्राथमिकता देना समय की मांग ही नहीं जरूरत भी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 12 March 2020

दिग्विजय की राजनीति ने डुबो दिया कमलनाथ को



हालांकि आज की राजनीति इतनी अनिश्चित और अविश्वसनीय हो गयी है कि किसी तरह की भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होती  है किन्तु मप्र की कमलनाथ सरकार जिस तरह के संकट में फंसी है उसे देखते हुए सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी ये मानकर चल रहा है कि ये कुछ ही  दिनों की मेहमान है। 20 कांग्रेसी विधायक जिनमें 6 मंत्री भी थे, बेंगलुरु में बैठे हुए हैं। उनके नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पहले कांग्रेस  छोड़ी और गत दिवस वे विधिवत भाजपा में शामिल हो गए। जैसा कहा जा रहा है उसके अनुसार  वे काफी समय से नाराज चल रहे थे। मप्र की सत्ता में कांग्रेस की वापिसी में उल्लेखनीय योगदान के बाद भी पार्टी ने सत्ता और संगठन में उन्हें अपेक्षित महत्व नहीं दिया। रही-सही कसर पूरी कर दी 2019 के लोकसभा चुनाव में गुना सीट पर हुई अप्रत्याशित हार ने जिसके बाद श्री सिंधिया हाशिये पर सिमटकर रह गये थे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की उनकी कोशिशों को भी कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जुगलबन्दी ने सफल नहीं  होने दिया। ऐसे में उनके लिए  केवल राज्यसभा में जाना ही एक अवसर बचा था किन्तु इसके बारे में  भी कोई ठोस आश्वासन उन्हें न तो प्रदेश स्तर पर मिला और न ही अपने दोस्त राहुल गांधी से। ऐसे में जब श्री सिंधिया को लगा कि उनके लिए कांग्रेस में संभावनाओं के सभी दरवाजे बंद हो चले हैं तब उन्होंने वह फैसला किया जो  चौंकाने वाला था। मप्र की कमलनाथ सरकार को गिराने की भाजपाई कोशिशें तो शुरू  से ही चल रही थीं। लेकिन बीच में  उसके अपने दो विधायक ही कांग्रेस की गोद में जा बैठे। लेकिन पहले आधा दर्जन विधायकों का गुरुग्राम में जा बैठना और फिर छह मंत्रियों सहित 20 विधायकों  के  भाजपा के संरक्षण में बेंगुलुरु चले जाने के बाद ये साफ हो गया था कि इस मुहिम के पीछे किसी दिग्गज कांग्रेसी का हाथ है और होली के दिन ये साफ हो गया कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बगावत का बिगुल फूंक दिया है। कांग्रेस ने उन्हें मनाने की कितनी  कोशिशें कीं ये स्पष्ट  नहीं है। 9 मार्च को उन्होंने श्रीमती  गांधी से मिलना चाहा किन्तु उन्हें समय नहीं दिया गया। यदि वह  मुलाकात हो जाती तब संभवत: श्री सिंधिया ठन्डे पड़ जाते। लेकिन इस बारे में चौंकाने वाली बात ये रही कि उनके अभिन्न मित्र राहुल ने भी उनकी खोज खबर नहीं ली। आखिरकार गत दिवस वे भाजपा में शामिल हो गए और उन्हें बतौर पुरस्कार राज्यसभा की टिकिट भी दे दी गयी। हालाँकि इसकी पुष्टि नहीं हुई किन्तु ऐसा कहा जा रहा है कि उन्हें केन्द्रीय मंत्रीमंडल में भी जल्द ही शामिल  किया जावेगा। इस पूरे घटनाक्रम का सबसे उल्लेखनीय पहलू ये है कि गांधी परिवार के बेहद निकट रहने के बाद भी श्री सिंधिया की नाराजगी दूर करने का प्रयास न तो सोनिया जी की तरफ से हुआ और न ही राहुल के। प्रियंका वाड्रा की भी कोई भूमिका नहीं दिखी। इसके विपरीत भाजपा ने इस मौके को लपकने में जरा भी देर नहीं की और गृहमंत्री अमित शाह खुद श्री  सिंधिया को लेकर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के पास गए। बहरहाल अब श्री सिंधिया भाजपा में आ गए हैं और आज भोपाल पहुंचकर राज्यसभा का पर्चा  भी भर देंगे। लेकिन अभी इस सियासी नाटक का मध्यांतर ही हुआ है। पटकथा का क्लाइमैक्स तो अब सामने आयेगा। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने-अपने विधायकों को क्रमश: हरियाणा और राजस्थान भेज दिया है। बेंगलुरु में बैठे 20 बागी कांग्रेसी विधायकों पर ही पूरा दारोमदार है। कांग्रेस उनमें से कुछ को तोडऩे की पूरी कोशिश कर रही है किन्तु अभी तक सफलता उससे दूर ही है। वहीं भाजपा भी ये समझ बैठी है कि जरा सी भी रणनीतिक चूक से बना बनाया खेल खराब हो सकता है। इसलिए दोनों पक्षों से पूरी ताकत झोंकी जा रही है। 20 विधायकों ने विधायकी से अपने त्यागपत्र भेज दिए हैं लेकिन वे आवश्यक प्रक्रिया का पालन होने तक स्वीकार  नहीं हो पाएंगे। उनके पहले 2 विधायकों ने भी अपने त्यागपत्र सौंप दिए थे। कांग्रेस के पास सपा- बसपा और निर्दलीय मिलाकर 92-94 विधायक बचे हैं जबकि भाजपा 105 को लेकर बैठी है। त्यागपत्र देने वाले विधायकों के बारे में फैसला विधानसभा अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद प्रजापति को करना है जो जाहिर है कांग्रेस के हितों के मुताबिक होगा। जैसी खबर है उसके अनुसार कमलनाथ समझ गये हैं कि बाजी उनके हाथ से निकल गयी है। लेकिन वे अपने अनुभव और प्रबंध कौशल का पूरा उपयोग करते हुए ये भरोसा दिला रहे  हैं कि उनका मास्टर स्ट्रोक अभी बाकी है। 20 विधायकों का जो होगा उसका राज्यसभा चुनाव पर जैसे भी असर पड़े लेकिन जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार कमलनाथ सरकार का बचना तकरीबन असम्भव होता जा रहा है। अब सवाल ये है कि ये हालात आखिरकार बने तो बने कैसे? और जवाब है कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दिग्विजय सिंह की सियासी चालों से उनकी गद्दी खतरे में आ गयी। जैसी जानकारी मिल रही है उसके अनुसार मुख्यमंत्री तो श्री सिंधिया के साथ सामंजस्य बिठाने के इच्छुक थे किन्तु दिग्विजय सिंह ने ग्वालियर राजघराने से अपनी निजी खुन्नस के चलते सब कुछ चौपट करके रख दिया। इस तरह आन्तरिक गुटबाजी और चंद नेताओं की महत्वाकांक्षा ने अच्छी भली चल रही सरकार की विदाई तय कर दी। ज्योतिरादित्य भले ही  पूरे प्रदेश में प्रभाव न रखते हों लेकिन उनकी छवि कमलनाथ और दिग्विजय की अपेक्षा बेहतर है। और यही भाजपा के लिए फायदेमंद हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में सिंधिया घराने के असर वाले ग्वालियर-चम्बल संभाग में भाजपा को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा था। ज्योतिरादित्य के आने से वहां पार्टी राजमाता सिंधिया वाले दौर में लौट सकती है। खैर, ये सब तो भविष्य की कोख में छिपी बातें हैं किन्तु आने वाले कुछ दिनों में कमलनाथ सरकार की विदाई होना तय है। ये काम राज्यसभा चुनाव के पहले होगा या बाद में ये अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन आंकड़े कमलनाथ से दूर होते जा रहे हैं। उनका मास्टर स्ट्रोक कुछ भी हो लेकिन दिग्विजय सिंह की शकुनी चालों ने जिस तरह के हालात पैदा कर दिए उनके कारण प्रदेश में सत्ता परिवर्तन अवश्यम्भावी है। इस राजनीतिक महाभारत का अंतिम परिणाम जो भी हो लेकिन एक बात निश्चित है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की राजनीति अंतिम सांसें गिनने की ओर है। आयु के चलते वे दोबारा लडऩे की स्थिति में नहीं होंगे। इस प्रकार मप्र में लम्बे इन्तजार के बाद आये कांग्रेस के अच्छे दिन जल्द ही खत्म होने जा रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 9 March 2020

कमलनाथ : मजबूत से मजबूर बने



मप्र की कमलनाथ सरकार पर मंडराते संकट के लिए कांग्रेस ने भाजपा पर जो आरोप लगाये थे वे उसी के गले पड़ते जा रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इस मामले में सबसे ज्यादा मुखर रहे। उनने भाजपा पर कांग्रेस सहित कुछ और  विधायकों को बंधक बनाने और 30-35 करोड़ रूपये में खरीदने का आफर देने की बात कहते हुए दावा  किया कि वे इसका प्रमाण भी दे देंगे। कांग्रेस, सपा, बसपा और कुछ निर्दलीय  विधायक जिस तरह से गायब हुए उससे उनकी बातें सही भी लगीं। उनमें से कुछ को गुरुग्राम के एक होटल से छुड़ाकर लाने की कवायद भी हुई। लेकिन अनेक विधायक फिर भी हाथ नहीं आये। इस पर कहा गया कि उन्हें भाजपा ने बेंगुलुरु में छिपाकर रखा हुआ है। बीते दो दिनों में एक-एक करके विधायक लौट रहे हैं। परसों शेरा लौटे और गत दिवस बिसाहूलाल सिंह नामक पूर्व मंत्री भी आ गए। इस दावे को नकारना जल्दबाजी होगी कि इस सब में भाजपा का हाथ था लेकिन ये भी उतना ही सही है कि गायब हुए जो भी विधायक लौटकर आये उनमें से एक ने भी ये नहीं कहा कि उन्हें किसी ने जबर्दस्ती रोके रखा था या खरीदने की कोशिश की गई। सभी ने स्वेच्छा से जाने की बात कहते हुए साफ कर  दिया कि उनकी पूरी कोशिश मंत्री पद हासिल करने के लिए दबाव बनाने की है। सपा, बसपा, निर्दलीय सहित कांग्रेस के गायब हुए विधायकों में से लगभग सभी ने मंत्री बनने की इच्छा जताते हुए खुलकर अपना असंतोष व्यक्त किया। कल बेंगुलुरु से लौटकर आये बिसाहूलाल ने तो साफ़  कहा कि वे मंत्री नहीं बनाये जाने से नाराज थे और अपनी मर्जी से तीर्थयात्रा पर गये थे। जो भी विधायक अज्ञातवास से लौटकर आये उनमें से किसी ने भी दिग्विजय सिंह और दूसरे कांग्रेस नेताओं द्वारा खरीद फरोख्त के आरोप की पुष्टि नहीं की। कुछ ने तो उनके आरोप का मखौल तक उड़ाया। बिसाहूलाल को जिन दिग्विजय सिंह के गुट का माना जाता है उनने भी उनके तमाम आरोपों को हवा में उड़ा दिया। अभी भी कांग्रेस के दो विधायक लापता हैं। उनके बेंगुलुरु में भाजपा के कब्जे में होने की बात कही जा रही है। इस उठापटक के पीछे राज्यसभा के चुनाव को कारण माना जा रहा है। भाजपा चाहती है वह दूसरी सीट पर कांग्रेस को न जीतने दे। अभी तक जो कुछ भी हुआ वह नाटक से कम नहीं था। भाजपा पर ऑपरेशन लोटस चलाने का आरोप लगाने वाली कांग्रेस भी दावा कर रही है कि भाजपा के दर्जन भर विधायक उसके संपर्क में हैं। इसका साफ मतलब है कि जिस खरीद फरोख्त का आरोप वह भाजपा पर लगा रही है वही उसके द्वारा भी किया जा रहा है। नारायण त्रिपाठी और शरद कोल नामक दो भाजपा विधायक तो खुलकर कांग्रेस की गोद में बैठे हुए हैं। यदि रहस्यमय ढंग से गायब हुए विधायक भाजपा के दबाव या लालच में गये थे तो वे  इतनी आसानी से कैसे लौटे  ये बड़ा सवाल है। ये भी खबर है कि विधानसभा के बजट सत्र के पहले कमलनाथ उनमें से अधिकतर को मंत्री पद देकर ठंडा कर लेंगे। उनके अलावा भी कई विधायकों ने पार्टी में असंतोष की बात कही। राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने तो पार्टी का पूर्णकालिक प्रदेश अध्यक्ष नहीं होने को समूचे  विवाद की वजह बताते हुए जल्द इस पद पर नई नियुक्ति की बात उछाल दी। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या दिग्विजय सिंह भाजपा पर लगाये आरोप वापिस लेंगे? इस दौरान भाजपा ने जो और जैसे भी किया उससे वह भी दूध की धुली नहीं कही जा सकती। ये आरोप भी गलत नहीं है कि वह शुरुवात से ही कमलनाथ सरकार को अस्थिर करने में लगी हुई है लेकिन उसका दांव सही नहीं बैठ रहा जिसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। अव्वल तो उसके भीतर नेतृत्व को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है और दूसरा उसके  सभी शीर्ष प्रादेशिक नेता बड़बोलेपन की बीमारी से ग्रसित हैं। सरकार गिराने जैसे काम अखाड़े की कुश्ती जैसे सबके सामने तो होते नहीं हैं। बीते कुछ  दिनों में कांग्रेस और सरकार समर्थक कुछ  विधायकों का अज्ञातवास पर जाना भाजपा द्वारा प्रायोजित था या नहीं लेकिन उसके दामन पर छींटे जरुर पड़ गए। बहरहाल प्रदेश सरकार पर संकट अभी बना हुआ है। कमलनाथ नए मंत्री बनाने के लिए मौजूदा में से जिसकी छुट्टी करेंगे कल को वह नाराज नहीं  होगा इसकी गारंटी नहीं है। इसी तरह राज्यसभा में जाने के इच्छुक अनेक नेताओं में भी इस बात पर असंतोष है कि दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की महत्वाकांक्षा उनके राजनीतिक भविष्य को चौपट कर रही है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि मप्र कांग्रेस में जबर्दस्त अंतर्कलह है जिसके चलते पार्टी के बड़े नेताओं ने कमलनाथ को मजबूत से मजबूर नेता बनाकर रख दिया। जो विधायक अभी तक मुख्यमंत्री के सामने कुर्सी पर बैठने की हिम्मत तक नहीं करते थे वे ही उनकी आँख में आँख डालकर बातें करने का साहस कर रहे हैं। कमलनाथ यूँ भी  मप्र के नैसर्गिक नेता कभी नहीं रहे। उनके गुट में भी ऐसे लोग नहीं हैं जो प्रदेश तो क्या आंचलिक वजनदारी भी रखते हों।  ऐसे में जो कुछ भी राजनीतिक उठापटक बीते कुछ दिनों से चली आ रही है उसके लिए कांग्रेस और उसके पदलोलुप नेता ही पूर्णत: जिम्मेदार हैं। अपने बेटे और  भाई-भतीजे को स्थापित करने के बाद भी दिग्विजय सिंह की भूख नहीं मिट रही और उसी के कारण उनने  कमलनाथ सरकार पर संकट पैदा करते हुए अपना उल्लू सीधा करने की बिसात बिछाई। कहना गलत नहीं  होगा कि भाजपा भी कुछ हद तक उसमें उलझकर रह गयी। हाँ, ये बात जरूर है कि दिग्विजय द्वारा छेड़ा गया ये छद्म युद्ध कमलनाथ की सरकार के लिए घातक साबित हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस की कमजोरी उजागर होने से भाजपा के मुंह में भी पानी आने लगा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 7 March 2020

उदारीकरण के नाम पर उधारीकरण का दुष्परिणाम



किसी व्यवसायी के दिवालिया हो जाने से उससे जुड़े लोगों पर असर पड़ता है लेकिन जब कोई बैंक डूबता है तब हजारों ही नहीं वरन लाखों लोग उससे प्रभावित होते हैं। भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण 1969 में स्व. इंदिरा गांधी की सरकार ने किया था। उसके पहले तक भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर शेष सभी बैंक निजी या यूँ कहें कि बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ में थे जो जनता का पैसा अपने पास रखकर ब्याज देते हुए जमा राशि का उपयोग अपने व्यवसाय में करते थे। लेकिन वह व्यवस्था एकपक्षीय थी। मसलन जनता की जमा राशि का उपयोग बैंकों के मालिक तो अपने निजी व्यवसाय हेतु कर लेते लेकिन जमाकर्ता को आसानी से कर्ज नहीं मिलता था। छोटे कारोबारी तो उस बारे में सोचते तक नहीं थे। लेकिन राष्ट्रीयकरण के बाद हालात बदले और हाथ ठेला, रिक्शा, छोटे दुकानदार आदि को भी बैंकों से कर्ज की सुविधा दी जाने लगी। हस्तशिल्प से जुड़े साधारण कारीगरों की मदद हेतु भी बैंक आगे आये। निश्चित रूप से वह एक क्रांतिकारी बदलाव था जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था से आम नागरिक का जुड़ाव पैदा किया। लेकिन इसका दूसरा पहलू ये था कि वह सब श्रीमती गांधी ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया। बैंकों के प्रबंधन में वित्तीय विशेषज्ञों के साथ ही ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाने लगा जो बैंकिंग प्रणाली को लेकर पूरी तरह से अनभिज्ञ थे और जिनका उद्देश्य राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना था। कहने का आशय ये है कि राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ता गया। भले ही रिजर्व बैंक को स्वायत्त कहा जाता रहा लेकिन निचले स्तर पर बैंकों के ऋण वितरण में सरकारी तंत्र की दखलंदाजी होने लगी । तब तक बैंकों में डूबंत कर्ज का आंकड़ा सामने नहीं आ पाता था। लेकिन 1991 में डा मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने और उन्होंने अर्थव्यवस्था को उदारीकरण या मुक्त अर्थव्यवस्था का नाम दिया तो उसका सबसे ज्यादा असर बैंकों की कार्यप्रणाली पर पड़ा। हालाँकि उस समय कांग्रेस पार्टी के भीतर भी एक वर्ग था जिसने डा. सिंह के उस प्रयोग को समाजवादी सोच के विपरीत बताकर उसे इंदिरा युग की आर्थिक नीतियों से मुंह मोडऩे वाला बताया किन्तु तत्कालीन प्रधानमन्त्री पीवी नरसिम्हा राव ने उन आपत्तियों की उपेक्षा करते हुए उदारीकरण को प्रश्रय दिया। ये कहना गलत नहीं होगा कि न केवल उद्योग-व्यापार जगत बल्कि मध्यम वर्ग ने भी उस बदलाव को पुरजोर समर्थन दिया। शेयर बाजार के दरवाजे भी आम लोगों के लिए खुले लेकिन धीरे-धीरे उदारीकरण के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे और बड़े-बड़े घोटालों के कारण सरकार के वित्तीय संस्थानों के अलावा आम जनता का धन भी उनमें डूबने लगा। हर्षद मेहता काण्ड इसकी सबसे पहली कड़ी थी। उसके बाद से न जाने कितने काण्ड होते गए और सार्वजानिक तथा निजी धन की लूटपाट होती रही। राव साहब के बाद आई सरकारों के सिर पर भी आर्थिक सुधारों का भूत सवार रहा जिसके कारण घपले और घोटालों की श्रृंखला जारी रही। उदारीकरण ने धीरे-धीरे उधारीकरण की शक्ल अख्तियार कर ली और जो भारतीय समाज कर्ज लेने को बुरा मानता वह कर्ज लेकर घी पीने की ऋषि चार्वाक की सलाह को अपना आदर्श मानकर छोटी-छोटी जरुरतों के लिए बैंकों से कर्ज लेने दौड़ पड़ा। यही नहीं तो बैंक भी कर्ज बांटने के लिए न्यौता देने में जुट गए। इसका लाभ अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने में अवश्य हुआ। सड़कों पर वाहनों की भीड़, आवासीय और व्यवसायिक भवनों का बड़े पैमाने पर निर्माण, मध्यम श्रेणी परिवारों में आधुनिक सुख-सुविधाओं के साधनों का प्रवेश इसका उदाहरण है। लेकिन इस सबके बीच जो सबसे बड़ी बात हुई वह बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा बैंकों से बड़े कर्ज लेकर हजम करने की प्रवृत्ति का विकास। मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री बनने के पहले तक एनपीए ( नॉन परफार्मिंग एसेट) जिसे डूबंत कर्ज कहना ज्यादा सही होगा, का बैंकिंग कार्यप्रणाली में कोई स्थान नहीं था। इस वजह से बैंकों की बैलेंस शीट में दिखाया जाने वाला मुनाफा वास्तविकता से दूर होता था। लेकिन एनपीए में फंसी रकम पर ब्याज लगाकर लाभ दिखाने पर रोक लगने के बाद से बैंकों की असली स्थिति सामने आने लगी और उसके बाद से ही बड़े कर्जदारों द्वारा अरबों-खरबों खाकर बैठ जाने की जानकारी बाहर आई। इस प्रकार ये कहना गलत नहीं होगा कि इन्दिरा जी द्वारा बैंकों को पूजीपतियों के नियन्त्रण से निकालने का जो साहस किया गया था वह डा. मनमोहन सिंह ने उदारीकरण के माध्यम से बेअसर कर दिया। आज चाहे सरकारी हों या निजी , सभी बैंक यदि डूबंत कर्ज के बोझ से चरमरा रहे हैं तो उसके लिए वे नीतियां जिम्मेदार हैं जिनमें आँख मूंद्कर कर्ज बांटे गये। गत दिवस निजी क्षेत्र का यस बैंक नामक बैंक संकट में आ गया। इसके पहले महाराष्ट्र में एक बैंक इसी तरह डूब चुका था। जमाकर्ताओं का संचित धन इसके चलते खतरे में आ गया। बीते कुछ वर्षों में जितने भी बैंक घोटाले सामने आये सभी की वजह बड़े कर्जदारों द्वारा अदायगी नहीं किया जाना रहा। जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार अधिकांश बड़े डूबंत कर्ज मनमोहन सिंह सरकार के समय बांटे गए और उनके लिए बैंकों के प्रबंधन पर राजनीतिक दबाव की बात भी सामने आ चुकी है। करोड़ों खाए बैठे कर्जदारों को और कर्ज देकर बैंकों की कमर तोडऩे का सिलसिला लगातार जारी रहा। इसे लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। आरोप-प्रत्यारोप भी सुनाई दे रहे हैं। मोदी सरकार ने बैंकों का विलय करते हुए स्थिति को सँभालने का जो प्रयोग किया उससे आंकड़े भले ही सुधर गये लेकिन जमीनी सच्चाई अभी भी उजागर नहीं हुई। बड़े बैंकों के उच्च पदस्थ अधिकारी और श्रेष्ठ बैंकर का पुरस्कार जीतने वाली हस्तियाँ भी बैंकों को डुबोने वालों के साथ लिप्त पाई गईं। ताजा चर्चा यस बैंक की हो रही है। उसके मालिकों के बीच हुआ पारिवारिक विवाद उसके पतन की वजह बना। लेकिन प्रश्न ये है कि समूची बैंकिंग व्यवस्था को नियंत्रित और निर्देशित करने वाला रिजर्व बैंक सब कुछ जानते और देखते हुए भी निठल्ला क्यों बैठा रहा और जो कदम उसने अब जाकर उठा वह पहले क्यों नहीं उठाया? भारतीय स्टेट बैंक यदि समय रहते यस बैंक को अधिग्रहीत कर लेता तो हालात इस कदर नहीं बिगड़ते। आर्थिक मोर्चे पर आलोचना से घिरी मोदी सरकार के लिए यस बैंक का डूबना बदनामी का एक और सबब बने बिना नहीं रहेगा। श्रेय लेने में आगे-आगे रहने वाली सरकार के लिये इस विफलता को दूसरे के सिर पर लाद देना भी संभव नहीं है। लेकिन बैंकिंग व्यवस्था रूपी नाव में नीचे से छेद किसने किये ये भी साफ  होना चाहिए। लगातार सामने आ रहे बैंकिंग घोटालों के बाद इस बात पर बहस जरूरी है कि उदारीकरण की आड़ में उधारीकरण और मुक्त के नाम पर उन्मुक्त अर्थव्यवस्था क्या भारतीय परिप्रेक्ष्य में सही थी और यदि नहीं तो उसका विकल्प क्या हो सकता है? बाजार की जरूरतों के मुताबिक अर्थव्यवस्था को ढालने के प्रयास में भारत मात्र एक बाजार बनकर रह गया है। इस बारे में याद रखने वाली बात ये होगी कि अमेरिका परस्त कहे जाने वाले मनमोहन सिंह की सरकार को पहले कार्यकाल में घोर वामपंथी और चीन समर्थक माकपा नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत ने वामपंथी दलों का समर्थन दिलवाकर टिकाये रखा। कहते हैं चंद्रमा की चमक तो पूरी दुनिया को दिखाई देती है किन्तु उसका पृष्ठ भाग अंधकारमय होता है। भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की मौजूदा स्थिति भी वैसी ही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी