Thursday 12 March 2020

दिग्विजय की राजनीति ने डुबो दिया कमलनाथ को



हालांकि आज की राजनीति इतनी अनिश्चित और अविश्वसनीय हो गयी है कि किसी तरह की भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होती  है किन्तु मप्र की कमलनाथ सरकार जिस तरह के संकट में फंसी है उसे देखते हुए सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी ये मानकर चल रहा है कि ये कुछ ही  दिनों की मेहमान है। 20 कांग्रेसी विधायक जिनमें 6 मंत्री भी थे, बेंगलुरु में बैठे हुए हैं। उनके नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पहले कांग्रेस  छोड़ी और गत दिवस वे विधिवत भाजपा में शामिल हो गए। जैसा कहा जा रहा है उसके अनुसार  वे काफी समय से नाराज चल रहे थे। मप्र की सत्ता में कांग्रेस की वापिसी में उल्लेखनीय योगदान के बाद भी पार्टी ने सत्ता और संगठन में उन्हें अपेक्षित महत्व नहीं दिया। रही-सही कसर पूरी कर दी 2019 के लोकसभा चुनाव में गुना सीट पर हुई अप्रत्याशित हार ने जिसके बाद श्री सिंधिया हाशिये पर सिमटकर रह गये थे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की उनकी कोशिशों को भी कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जुगलबन्दी ने सफल नहीं  होने दिया। ऐसे में उनके लिए  केवल राज्यसभा में जाना ही एक अवसर बचा था किन्तु इसके बारे में  भी कोई ठोस आश्वासन उन्हें न तो प्रदेश स्तर पर मिला और न ही अपने दोस्त राहुल गांधी से। ऐसे में जब श्री सिंधिया को लगा कि उनके लिए कांग्रेस में संभावनाओं के सभी दरवाजे बंद हो चले हैं तब उन्होंने वह फैसला किया जो  चौंकाने वाला था। मप्र की कमलनाथ सरकार को गिराने की भाजपाई कोशिशें तो शुरू  से ही चल रही थीं। लेकिन बीच में  उसके अपने दो विधायक ही कांग्रेस की गोद में जा बैठे। लेकिन पहले आधा दर्जन विधायकों का गुरुग्राम में जा बैठना और फिर छह मंत्रियों सहित 20 विधायकों  के  भाजपा के संरक्षण में बेंगुलुरु चले जाने के बाद ये साफ हो गया था कि इस मुहिम के पीछे किसी दिग्गज कांग्रेसी का हाथ है और होली के दिन ये साफ हो गया कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बगावत का बिगुल फूंक दिया है। कांग्रेस ने उन्हें मनाने की कितनी  कोशिशें कीं ये स्पष्ट  नहीं है। 9 मार्च को उन्होंने श्रीमती  गांधी से मिलना चाहा किन्तु उन्हें समय नहीं दिया गया। यदि वह  मुलाकात हो जाती तब संभवत: श्री सिंधिया ठन्डे पड़ जाते। लेकिन इस बारे में चौंकाने वाली बात ये रही कि उनके अभिन्न मित्र राहुल ने भी उनकी खोज खबर नहीं ली। आखिरकार गत दिवस वे भाजपा में शामिल हो गए और उन्हें बतौर पुरस्कार राज्यसभा की टिकिट भी दे दी गयी। हालाँकि इसकी पुष्टि नहीं हुई किन्तु ऐसा कहा जा रहा है कि उन्हें केन्द्रीय मंत्रीमंडल में भी जल्द ही शामिल  किया जावेगा। इस पूरे घटनाक्रम का सबसे उल्लेखनीय पहलू ये है कि गांधी परिवार के बेहद निकट रहने के बाद भी श्री सिंधिया की नाराजगी दूर करने का प्रयास न तो सोनिया जी की तरफ से हुआ और न ही राहुल के। प्रियंका वाड्रा की भी कोई भूमिका नहीं दिखी। इसके विपरीत भाजपा ने इस मौके को लपकने में जरा भी देर नहीं की और गृहमंत्री अमित शाह खुद श्री  सिंधिया को लेकर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के पास गए। बहरहाल अब श्री सिंधिया भाजपा में आ गए हैं और आज भोपाल पहुंचकर राज्यसभा का पर्चा  भी भर देंगे। लेकिन अभी इस सियासी नाटक का मध्यांतर ही हुआ है। पटकथा का क्लाइमैक्स तो अब सामने आयेगा। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने-अपने विधायकों को क्रमश: हरियाणा और राजस्थान भेज दिया है। बेंगलुरु में बैठे 20 बागी कांग्रेसी विधायकों पर ही पूरा दारोमदार है। कांग्रेस उनमें से कुछ को तोडऩे की पूरी कोशिश कर रही है किन्तु अभी तक सफलता उससे दूर ही है। वहीं भाजपा भी ये समझ बैठी है कि जरा सी भी रणनीतिक चूक से बना बनाया खेल खराब हो सकता है। इसलिए दोनों पक्षों से पूरी ताकत झोंकी जा रही है। 20 विधायकों ने विधायकी से अपने त्यागपत्र भेज दिए हैं लेकिन वे आवश्यक प्रक्रिया का पालन होने तक स्वीकार  नहीं हो पाएंगे। उनके पहले 2 विधायकों ने भी अपने त्यागपत्र सौंप दिए थे। कांग्रेस के पास सपा- बसपा और निर्दलीय मिलाकर 92-94 विधायक बचे हैं जबकि भाजपा 105 को लेकर बैठी है। त्यागपत्र देने वाले विधायकों के बारे में फैसला विधानसभा अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद प्रजापति को करना है जो जाहिर है कांग्रेस के हितों के मुताबिक होगा। जैसी खबर है उसके अनुसार कमलनाथ समझ गये हैं कि बाजी उनके हाथ से निकल गयी है। लेकिन वे अपने अनुभव और प्रबंध कौशल का पूरा उपयोग करते हुए ये भरोसा दिला रहे  हैं कि उनका मास्टर स्ट्रोक अभी बाकी है। 20 विधायकों का जो होगा उसका राज्यसभा चुनाव पर जैसे भी असर पड़े लेकिन जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार कमलनाथ सरकार का बचना तकरीबन असम्भव होता जा रहा है। अब सवाल ये है कि ये हालात आखिरकार बने तो बने कैसे? और जवाब है कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दिग्विजय सिंह की सियासी चालों से उनकी गद्दी खतरे में आ गयी। जैसी जानकारी मिल रही है उसके अनुसार मुख्यमंत्री तो श्री सिंधिया के साथ सामंजस्य बिठाने के इच्छुक थे किन्तु दिग्विजय सिंह ने ग्वालियर राजघराने से अपनी निजी खुन्नस के चलते सब कुछ चौपट करके रख दिया। इस तरह आन्तरिक गुटबाजी और चंद नेताओं की महत्वाकांक्षा ने अच्छी भली चल रही सरकार की विदाई तय कर दी। ज्योतिरादित्य भले ही  पूरे प्रदेश में प्रभाव न रखते हों लेकिन उनकी छवि कमलनाथ और दिग्विजय की अपेक्षा बेहतर है। और यही भाजपा के लिए फायदेमंद हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में सिंधिया घराने के असर वाले ग्वालियर-चम्बल संभाग में भाजपा को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा था। ज्योतिरादित्य के आने से वहां पार्टी राजमाता सिंधिया वाले दौर में लौट सकती है। खैर, ये सब तो भविष्य की कोख में छिपी बातें हैं किन्तु आने वाले कुछ दिनों में कमलनाथ सरकार की विदाई होना तय है। ये काम राज्यसभा चुनाव के पहले होगा या बाद में ये अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन आंकड़े कमलनाथ से दूर होते जा रहे हैं। उनका मास्टर स्ट्रोक कुछ भी हो लेकिन दिग्विजय सिंह की शकुनी चालों ने जिस तरह के हालात पैदा कर दिए उनके कारण प्रदेश में सत्ता परिवर्तन अवश्यम्भावी है। इस राजनीतिक महाभारत का अंतिम परिणाम जो भी हो लेकिन एक बात निश्चित है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की राजनीति अंतिम सांसें गिनने की ओर है। आयु के चलते वे दोबारा लडऩे की स्थिति में नहीं होंगे। इस प्रकार मप्र में लम्बे इन्तजार के बाद आये कांग्रेस के अच्छे दिन जल्द ही खत्म होने जा रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment