Saturday 7 March 2020

उदारीकरण के नाम पर उधारीकरण का दुष्परिणाम



किसी व्यवसायी के दिवालिया हो जाने से उससे जुड़े लोगों पर असर पड़ता है लेकिन जब कोई बैंक डूबता है तब हजारों ही नहीं वरन लाखों लोग उससे प्रभावित होते हैं। भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण 1969 में स्व. इंदिरा गांधी की सरकार ने किया था। उसके पहले तक भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर शेष सभी बैंक निजी या यूँ कहें कि बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ में थे जो जनता का पैसा अपने पास रखकर ब्याज देते हुए जमा राशि का उपयोग अपने व्यवसाय में करते थे। लेकिन वह व्यवस्था एकपक्षीय थी। मसलन जनता की जमा राशि का उपयोग बैंकों के मालिक तो अपने निजी व्यवसाय हेतु कर लेते लेकिन जमाकर्ता को आसानी से कर्ज नहीं मिलता था। छोटे कारोबारी तो उस बारे में सोचते तक नहीं थे। लेकिन राष्ट्रीयकरण के बाद हालात बदले और हाथ ठेला, रिक्शा, छोटे दुकानदार आदि को भी बैंकों से कर्ज की सुविधा दी जाने लगी। हस्तशिल्प से जुड़े साधारण कारीगरों की मदद हेतु भी बैंक आगे आये। निश्चित रूप से वह एक क्रांतिकारी बदलाव था जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था से आम नागरिक का जुड़ाव पैदा किया। लेकिन इसका दूसरा पहलू ये था कि वह सब श्रीमती गांधी ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया। बैंकों के प्रबंधन में वित्तीय विशेषज्ञों के साथ ही ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाने लगा जो बैंकिंग प्रणाली को लेकर पूरी तरह से अनभिज्ञ थे और जिनका उद्देश्य राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना था। कहने का आशय ये है कि राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ता गया। भले ही रिजर्व बैंक को स्वायत्त कहा जाता रहा लेकिन निचले स्तर पर बैंकों के ऋण वितरण में सरकारी तंत्र की दखलंदाजी होने लगी । तब तक बैंकों में डूबंत कर्ज का आंकड़ा सामने नहीं आ पाता था। लेकिन 1991 में डा मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने और उन्होंने अर्थव्यवस्था को उदारीकरण या मुक्त अर्थव्यवस्था का नाम दिया तो उसका सबसे ज्यादा असर बैंकों की कार्यप्रणाली पर पड़ा। हालाँकि उस समय कांग्रेस पार्टी के भीतर भी एक वर्ग था जिसने डा. सिंह के उस प्रयोग को समाजवादी सोच के विपरीत बताकर उसे इंदिरा युग की आर्थिक नीतियों से मुंह मोडऩे वाला बताया किन्तु तत्कालीन प्रधानमन्त्री पीवी नरसिम्हा राव ने उन आपत्तियों की उपेक्षा करते हुए उदारीकरण को प्रश्रय दिया। ये कहना गलत नहीं होगा कि न केवल उद्योग-व्यापार जगत बल्कि मध्यम वर्ग ने भी उस बदलाव को पुरजोर समर्थन दिया। शेयर बाजार के दरवाजे भी आम लोगों के लिए खुले लेकिन धीरे-धीरे उदारीकरण के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे और बड़े-बड़े घोटालों के कारण सरकार के वित्तीय संस्थानों के अलावा आम जनता का धन भी उनमें डूबने लगा। हर्षद मेहता काण्ड इसकी सबसे पहली कड़ी थी। उसके बाद से न जाने कितने काण्ड होते गए और सार्वजानिक तथा निजी धन की लूटपाट होती रही। राव साहब के बाद आई सरकारों के सिर पर भी आर्थिक सुधारों का भूत सवार रहा जिसके कारण घपले और घोटालों की श्रृंखला जारी रही। उदारीकरण ने धीरे-धीरे उधारीकरण की शक्ल अख्तियार कर ली और जो भारतीय समाज कर्ज लेने को बुरा मानता वह कर्ज लेकर घी पीने की ऋषि चार्वाक की सलाह को अपना आदर्श मानकर छोटी-छोटी जरुरतों के लिए बैंकों से कर्ज लेने दौड़ पड़ा। यही नहीं तो बैंक भी कर्ज बांटने के लिए न्यौता देने में जुट गए। इसका लाभ अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने में अवश्य हुआ। सड़कों पर वाहनों की भीड़, आवासीय और व्यवसायिक भवनों का बड़े पैमाने पर निर्माण, मध्यम श्रेणी परिवारों में आधुनिक सुख-सुविधाओं के साधनों का प्रवेश इसका उदाहरण है। लेकिन इस सबके बीच जो सबसे बड़ी बात हुई वह बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा बैंकों से बड़े कर्ज लेकर हजम करने की प्रवृत्ति का विकास। मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री बनने के पहले तक एनपीए ( नॉन परफार्मिंग एसेट) जिसे डूबंत कर्ज कहना ज्यादा सही होगा, का बैंकिंग कार्यप्रणाली में कोई स्थान नहीं था। इस वजह से बैंकों की बैलेंस शीट में दिखाया जाने वाला मुनाफा वास्तविकता से दूर होता था। लेकिन एनपीए में फंसी रकम पर ब्याज लगाकर लाभ दिखाने पर रोक लगने के बाद से बैंकों की असली स्थिति सामने आने लगी और उसके बाद से ही बड़े कर्जदारों द्वारा अरबों-खरबों खाकर बैठ जाने की जानकारी बाहर आई। इस प्रकार ये कहना गलत नहीं होगा कि इन्दिरा जी द्वारा बैंकों को पूजीपतियों के नियन्त्रण से निकालने का जो साहस किया गया था वह डा. मनमोहन सिंह ने उदारीकरण के माध्यम से बेअसर कर दिया। आज चाहे सरकारी हों या निजी , सभी बैंक यदि डूबंत कर्ज के बोझ से चरमरा रहे हैं तो उसके लिए वे नीतियां जिम्मेदार हैं जिनमें आँख मूंद्कर कर्ज बांटे गये। गत दिवस निजी क्षेत्र का यस बैंक नामक बैंक संकट में आ गया। इसके पहले महाराष्ट्र में एक बैंक इसी तरह डूब चुका था। जमाकर्ताओं का संचित धन इसके चलते खतरे में आ गया। बीते कुछ वर्षों में जितने भी बैंक घोटाले सामने आये सभी की वजह बड़े कर्जदारों द्वारा अदायगी नहीं किया जाना रहा। जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार अधिकांश बड़े डूबंत कर्ज मनमोहन सिंह सरकार के समय बांटे गए और उनके लिए बैंकों के प्रबंधन पर राजनीतिक दबाव की बात भी सामने आ चुकी है। करोड़ों खाए बैठे कर्जदारों को और कर्ज देकर बैंकों की कमर तोडऩे का सिलसिला लगातार जारी रहा। इसे लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। आरोप-प्रत्यारोप भी सुनाई दे रहे हैं। मोदी सरकार ने बैंकों का विलय करते हुए स्थिति को सँभालने का जो प्रयोग किया उससे आंकड़े भले ही सुधर गये लेकिन जमीनी सच्चाई अभी भी उजागर नहीं हुई। बड़े बैंकों के उच्च पदस्थ अधिकारी और श्रेष्ठ बैंकर का पुरस्कार जीतने वाली हस्तियाँ भी बैंकों को डुबोने वालों के साथ लिप्त पाई गईं। ताजा चर्चा यस बैंक की हो रही है। उसके मालिकों के बीच हुआ पारिवारिक विवाद उसके पतन की वजह बना। लेकिन प्रश्न ये है कि समूची बैंकिंग व्यवस्था को नियंत्रित और निर्देशित करने वाला रिजर्व बैंक सब कुछ जानते और देखते हुए भी निठल्ला क्यों बैठा रहा और जो कदम उसने अब जाकर उठा वह पहले क्यों नहीं उठाया? भारतीय स्टेट बैंक यदि समय रहते यस बैंक को अधिग्रहीत कर लेता तो हालात इस कदर नहीं बिगड़ते। आर्थिक मोर्चे पर आलोचना से घिरी मोदी सरकार के लिए यस बैंक का डूबना बदनामी का एक और सबब बने बिना नहीं रहेगा। श्रेय लेने में आगे-आगे रहने वाली सरकार के लिये इस विफलता को दूसरे के सिर पर लाद देना भी संभव नहीं है। लेकिन बैंकिंग व्यवस्था रूपी नाव में नीचे से छेद किसने किये ये भी साफ  होना चाहिए। लगातार सामने आ रहे बैंकिंग घोटालों के बाद इस बात पर बहस जरूरी है कि उदारीकरण की आड़ में उधारीकरण और मुक्त के नाम पर उन्मुक्त अर्थव्यवस्था क्या भारतीय परिप्रेक्ष्य में सही थी और यदि नहीं तो उसका विकल्प क्या हो सकता है? बाजार की जरूरतों के मुताबिक अर्थव्यवस्था को ढालने के प्रयास में भारत मात्र एक बाजार बनकर रह गया है। इस बारे में याद रखने वाली बात ये होगी कि अमेरिका परस्त कहे जाने वाले मनमोहन सिंह की सरकार को पहले कार्यकाल में घोर वामपंथी और चीन समर्थक माकपा नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत ने वामपंथी दलों का समर्थन दिलवाकर टिकाये रखा। कहते हैं चंद्रमा की चमक तो पूरी दुनिया को दिखाई देती है किन्तु उसका पृष्ठ भाग अंधकारमय होता है। भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की मौजूदा स्थिति भी वैसी ही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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