Monday 16 March 2020

निष्पक्षता छोड़ पक्षकार बन गये निर्णायक



मप्र के राजनीतिक संकट का परिणाम फिलहाल पूरी तरह अनिश्चित है। दोनों पक्ष अपने प्रतिद्वंदी को मात देने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं। नैतिकता, शुचिता और लोकतान्त्रिक मर्यादाएं भोपाल के तालाब की गहराइयों में समा चुकी हैं। लेकिन इस सबके बीच संवैधानिक पदों पर विराजमान महानुभावों की कार्यप्रणाली पर उठ रहे सवाल हर उस व्यक्ति को विचलित कर रहे हैं जिसका लोकतंत्र में अटूट विश्वास है। इस तरह के राजनीतिक संकट के समय दो पद अचानक महत्वपूर्ण हो जाते हैं , पहला राज्यपाल और दूसरा विधानसभा अध्यक्ष। मप्र की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में भी इनके निर्णयों पर पूरा खेल आकर टिक गया है। विधायकों का पाला बदल और उन्हें भोपाल से दूर कहीं ले जाकर रखने के पीछे का मकसद तो समझ में आता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने काफी पहले ही ये व्यवस्था कर दी थी कि किसी भी सरकार का बहुमत राष्ट्रपति या राजभवन में नहीं वरन सदन के भीतर मतदान से होना चाहिए। इसीलिये जब भी किसी सरकार के बहुमत पर सवाल उठता है तब महामहिम उसे सदन के भीतर साबित करने का निर्देश देते है। मप्र में कांग्रेस के अनेक विधायकों द्वारा सदस्यता से इस्तीफा दे दिए जाने के कारण कमलनाथ की सरकार का बहुमत ज्योंही खतरे में में आया त्योंही भाजपा ने राज्यपाल का दरवाजा खटखटाया और उन्होंने आज 16 मार्च को विधानसभा का सत्र शुरू होते ही अपने अभिभाषण के फौरन बाद सरकार को बहुमत साबित करने का निर्देश दे दिया। उनकी तरफ  से ये निर्देश भी दिया गया कि मतदान बटन दबाकर किया जावे। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री कमलनाथ ने उनसे मिलकर कहा कि बेंगुलुरु में बैठे 22 विधायकों को वापिस लाये जाने की व्यवस्था पहले हो। इस दौरान ये पेंच भी फंस गया कि बेंगुलुरु जा बैठे 22 विधायकों के जो इस्तीफे विधानसभा अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद प्रजापति तक एक भाजपा नेता द्वारा पहुंचाए गए थे उन्हें मंजूर करने के लिए उन्होंने तिथि निर्धारित की। इसके पीछे उद्देश्य इस बात की पुष्टि करना था कि त्यागपत्र बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से दिया गया है। यद्यपि उनके बुलाने पर विधायक नहीं आये लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से श्री प्रजापति ने उनमें से छह के त्यागपत्र मंजूर कर लिए। ये छह पूर्व मंत्री थे जिन्हें मुख्यमंत्री के आग्रह पर राज्यपाल द्वारा एक दिन पहले ही बर्खास्त किया जा चुका था। अध्यक्ष महोदय का ये निर्णय चौंकाने वाला था क्योंकि उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर उपस्थित नहीं होने के बावजूद भी इस आधार पर छह पूर्व मंत्रियों के इस्तीफे मंजूर कर दिए क्योंकि वे वीडियो साक्षात्कार में ऐसा कह चुके थे। यद्यपि शेष विधायकों ने भी वीडियो पर वैसे ही साक्षात्कार दिए थे लेकिन अध्यक्ष ने उनका संज्ञान नहीं लिया जिसका कारण वे ही बता सकते हैं। दूसरी तरफ  राज्यपाल द्वारा आज बहुमत साबित किये जाने के निर्देश को हवा में उड़ा दिया गया। पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर श्री प्रजापति ने उसे एक काल्पनिक सवाल बताते हुए ये एहसास करवाने की कोशिश की कि वे महामहिम की बात मानने को बाध्य नहीं हैं। उधर राज्यपाल को जब भाजपा से पता लगा कि सदन में वोटिंग के लिए बटन दबाने वाली प्रणाली खराब है और ध्वनि मत से बहुमत साबित किये जाने पर गड़बड़ी की आशंका है तब महामहिम ने विधानसभा सचिव को बुलाकर उनकी खिंचाई कर दी। यहीं नहीं आधी रात को मुख्यमंत्री को बुलवाकर आज की कार्यसूची में बहुमत साबित करने का जिक्र न होने पर नाराजगी भी व्यक्त की। इस पर कमलनाथ ने अपनी पहले वाली बात दोहराते हुए बेंगुलुरु से 20 विधायकों के लौटने की शर्त रख दी। राज्यपाल द्वारा दबाव बनाये जाने पर उन्होंने ये कहकर बात टाल दी कि बहुमत परीक्षण पर अध्यक्ष ही निर्णय लेंगे जिन्होंने आज राज्यपाल के अभिभाषण के बाद कोरोना का बहाना बनाकर सदन 26 मार्च तक स्थगित कर दिया गया। इस दौरान ये साफ़  हो गया कि भाजपा बहुमत साबित करने के लिए लालायित है वहीं सत्ता पक्ष इसे जितना हो सके टालने की रणनीति पर चल रहा है। दोनों तरफ  से व्हिप जारी हो चुके थे। बागी विधायकों के अलावा भी कुछ और के एन वक्त पर पाला बदलने की चर्चा दोनों तरफ  से चलाई जा रही थी। सरकार को गिराने और बचाने के साथ ही राज्यसभा चुनाव के लिहाज से भी मोर्चेबंदी हो रही है। लेकिन राजनीतिक रस्साकशी से अलग हटकर राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष भी इस खेल में बजाय निष्पक्ष निर्णायक बने रहने के पक्षकार बनकर सामने आ गए। हालांकि ये कोई पहला उदाहरण नहीं है। जिस राज्य में भी इस तरह का राजनीतिक संकट आता है वहां राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका पर सवाल उठते हैं। यदि दोनों एक ही राजनीतिक दल से जुड़े रहे हों तब तो सामंजस्य बना रहता है लेकिन अलग दलों से होने पर वैसा ही टकराव देखने मिलता है जैसा मप्र के मौजूदा राजनीतिक संकट में दिखाई दे रहा है। क्या राज्यपाल सदन की कार्यसूची तय करने संबंधी निर्देश दे सकते है और विधानसभा अध्यक्ष उसे मानने बाध्य हैं या नहीं इसे लेकर भी सवाल खड़े हो गये हैं। कौन सही है और कौन गलत ये विश्लेषण और वैधानिक समीक्षा का विषय है लेकिन एक बार फिर इन दोनों संवैधानिक पदों से जुडी गरिमा को ठेस पहुंची है। भले ही दोनों अपने को निष्पक्ष और नियम प्रक्रिया से जुड़ा बताते फिरें लेकिन सामान्यतया ये माना जा रहा है कि राज्यपाल भाजपा की सरकार बनवाने की भूमिका तैयार कर रहे हैं वहीं विधानसभा अध्यक्ष की पूरी कोशिश कमलनाथ सरकार को बचाने की है। आज सदन में जो कुछ हुआ उसके बाद राजभवन की भूमिका क्या होगी इस पर सभी की निगाहें लगी रहेंगीं। बात राष्ट्रपति शासन की भी हो रही है। भाजपा आज के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय भी जा पहुंची है जहां कल सुनवाई होनी है। लेकिन दु:ख का विषय ये है कि संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरूपयोग की पुनरावृत्ति रुकने का नाम नहीं ले रही। मप्र में जो कुछ भी हो रहा है और आगे भी होगा उसमें जीते हारे कोई भी लेकिन जिस संविधान की दुहाई पक्ष-विपक्ष बात-बात में देते नहीं थकते उसका जमकर मजाक उड़ रहा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment