Wednesday 18 March 2020

विधायकों को मतदाताओं से दूर रखना मौलिक अधिकार का हनन




मप्र की राजनीति में जो कुछ भी हो रहा है उसे देखकर हंसी भी आती है और दु:ख भी होता है। दोनों पक्षों की तरफ  से नैतिकता और लोकतांत्रिक मर्यादाओं की दुहाई दी जा रही है लेकिन इनके प्रति आस्था कहीं भी नहीं दिखाई देती। यदि कमलनाथ के पास बहुमत है तो बजाय कोरोना की आड़ लेकर मुकाबले से बचने के उन्हें उसे साबित करना था। और यदि नहीं है तो बिना लागलपेट के इस्तीफा देते हुए विपक्ष में आ बैठते। इसी तरह भाजपा भी जिन 22 विधायकों को बेंगुलुरु में बिठाये हुए है उन्हें भोपाल लाकर विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष पेश कर देती तो अब तक अनिश्चितता दूर हो जाती। विधानसभा अध्यक्ष भी पूरी तरह से दलीय राजनीति का हिस्सा बने दिखाई दे रहे हैं। 22 बागी विधायकों में से 6 के इस्तीफे उनके वीडियो देखकर उन्होंने स्वीकार कर लिए लेकिन बाकी के बारे में उनकी नीति और नीयत दोनों समझ से परे हैं। राज्यपाल महोदय संविधान के मुखिया के तौर पर हैं लेकिन उनको भी कोई निष्पक्ष नहीं मान रहा। उनके स्पष्ट निर्देशों की मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष दोनों ने खुले आम धज्जियां उड़ा दीं लेकिन वे ये कहते हुए रह गये कि मुझे आदेशों का पालन करवाना आता है। भाजपा सर्वोच्च न्यायालय में लोकतंत्र बचाने के नाम पर जा पहुंची तो पीछे - पीछे कांग्रेस ने भी बागी विधायकों को बेंगुलुरु से लाने के लिए अदालत में अर्जी लगा दी। उधर बेंगुलुरु में बैठे विधायक वहां क्यों रुके हैं इसका जवाब भी किसी के पास नहीं है। उनके जो वीडियो सामने आये उनमें वे किसी दबाव से मुक्त होकर स्वेच्छा से ठहरे होने की बात दोहरा रहे हैं किन्तु उनके पास इस बात का कोई ठोस आधार नहीं है कि वे लौट क्यों नहीं रहे ? विधायकों को दूसरे राज्य में जाकर छिपने की क्या जरूरत पड़ गई इसका जवाब कोई नहीं दे पा रहा। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने उन्हें जबरन बंधक बना रखा है। मुख्यमंत्री ने तो ये तक कहा कि वे सब अपने घर लौट आयें और खुली हवा में सांस लें उसके बाद फिर वे विधानसभा में अपना बहुमत साबित करेंगे। लेकिन ये आरोप तो कांग्रेस पर भी है कि वह अपने विधायकों को अकेला नहीं छोड़ रही। यदि उनकी निष्ठा असंदिग्ध है तो पहले जयपुर और अब भोपाल के एक आलीशान होटल में उन्हें क्यों बिठा रखा है ? इसी तरह भाजपा भी अपने विधायकों को बटोरकर एक साथ रखे हुए है। कुल मिलाकर अविश्वास पूरे माहौल पर हावी है। न कोई नैतिक है और न ही निष्पक्ष। एक पक्ष सत्ता हासिल करने के लिए मरा जा रहा है तो दूसरा उससे चिपके रहने के लिए किसी भी हद तक जाने को आमादा है। संख्या बल हाथ से खिसक जाने के बाद भी बीते दो - तीन दिनों में जिस तरह से प्रशासनिक और राजनीतिक नियुक्तियां की गईं वे लूट सके सो लूट वाली कहावत को चरितार्थ कर रही है। इस सबके लिए किसी एक को कसूरवार ठहराना तो अन्याय होगा क्योंकि सभी पक्ष किसी न किसी रूप में लोकतंत्र का चीरहरण करने पर आमादा हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने अपने विधायकों को भेड़-बकरी जैसा बना दिया है। बीते 10-15 दिनों से वे अपने मतदाताओं और परिजनों से दूर हैं। भोपाल से सर्वोच्च न्यायालय तक संविधान के पालन और उल्लंघन की चर्चा चल रही है लेकिन प्रदेश के करोड़ों मतदाता अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधि से जबरन दूर किये जाएं तो क्या ये उनके मौलिक आधिकारों का हनन नहीं है ? मामला चूंकि सर्वोच्च न्यायालय में है इसलिए होगा तो वही जो वह चाहेगा लेकिन इस समूचे विवाद में जो मतदाता इस संसदीय प्रजातंत्र का आधार है उसकी न कोई भूमिका है और न ही पूछ-परख। हमारे देश में ये स्थिति गाहे बगाहे किसी न किसी राज्य में बनती ही रहती है इसलिए आम जनता भी उसे गंभीरता से नहीं लेती लेकिन अब उसे भी सामने आना चाहिए। जनप्रतिनिधि अपनी राजनीतिक पार्टी के प्रति वफादार रहें ये तो जरूरी है लेकिन इस दौरान जनता पूरी तरह उपेक्षित कर दी जाए ये कहां का लोकतंत्र है?

- रवीन्द्र वाजपेयी

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