Friday 20 March 2020

निर्भया काण्ड : दरिंदों के प्रति उदारता की भी सीमा हो



जब सारा देश सो रहा था तब सर्वोच्च न्यायालय खुला हुआ था। इसकी वजह राष्ट्रीय महत्व का कोई मामला न होकर चार बलात्कारियों की फाँसी रुकवाने की याचिका पर विचार करना था। आज सुबह निर्भया काण्ड के चारों दोषियों को लटकाना तय था। दिल्ली की जेल में जल्लाद भी आ चुका था। लेकिन दोषियों के वकील ने कल उच्च न्यायालय में अर्जी लगाकर फाँसी रुकवाने का दांव चला किन्तु उसे निराशा हाथ लगी। न्यायालय ने याचिका के साथ जरूरी दस्तावेज न होने पर ऐतराज जताया तो वकील साहब ने हास्यास्पद बहाने बनाते हुए फांसी टलवाने की गुहार लगाई। तब भर भी बात नहीं बनी तो सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेने का पैंतरा चला गया और न्याय में विलम्ब के लिए जानी जाने वाली हमारे देश की न्यायपालिका का सर्वोच्च प्रतिष्ठान आधी रात को तैयार होकर बैठ गया उन चार लोगों की अर्जी सुनने जिन्होंने दरिंदगी की सीमाएं तोड़ दीं। निर्भया काण्ड के वृत्तांत को दोहराने का कोई मतलब नहीं क्योंकि उसके बारे में इतना ज्यादा कहा, लिखा और पढ़ा जा चुका है कि वह अपने आप में एक इतिहास बनकर रह गया। आखिऱकार सर्वोच्च न्यायालय ने अर्जी ठुकरा दी और आज सुबह जब देश जागा तब तक वे चारों अपने किये की सजा पा चुके थे। सवाल ये है कि सर्वोच्च न्यायालय आधी रात को क्यों खुला और देर रात तक उसने उन चार लोगों की सुनवाई क्यों की जिनका अपराध जघन्यतम की श्रेणी से भी ज्यादा जघन्य था। और जवाब में सुनाई दिया कि हमारी न्यायपालिका पूरी दुनिया को ये संदेश देना चाहती है कि वह न्याय प्रदान करने के मामले में बेहद उदार है और हरसंभव अवसर फरियादी को देती है। कुछ बरस पहले याकूब मेनन नामक आतंकवादी की फाँसी रुकवाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय इसी तरह देर रात से भोर तक खुला रहा और याचिका नामंजूर किये जाने के कुछ घंटे बाद ही याकूब भी तख्ते पर लटक गया। कहते हैं न्याय होना ही नहीं होते हुए दिखना भी चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय की सम्वेदनशीलता उसी को प्रतिबिंबित करती है। लेकिन इस सदाशयता से एक नकारात्मक संदेश भी निकलता है। निर्भया कांड के दोषियों को 7 साल, 3 महीने, 4 दिन बाद उनके किये की सजा मिली। उनकी फाँसी कितनी बार टली ये भी लोग भूल चुके होंगे। दया याचिका के नाम पर अदालतों से राष्ट्रपति भवन तक जितनी कवायद हुई वह दोषियों के वकीलों की पेशेवर दक्षता का परिचायक है या हमारी न्याय व्यवस्था की कमजोरी, ये बहस का विषय है। किसी बेकसूर को सजा मिलना निश्चित रूप से कानून के नाम पर धब्बा होता है। और फिर मृत्युदंड मिलने के बाद तो गलती सुधारने का अवसर भी नहीं होता। इसीलिये निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय और उसके बाद भी राष्ट्रपति के पास दया याचिका लगाने का प्रावधान है। लेकिन इसका दुरूपयोग नरपिशाचों की मौत को टलवाने के लिए जिस तरह किया जाता है, संदर्भित प्रकरण उसका जीता-जागता उदाहरण है। निर्भया काण्ड के दोषी अब दुनिया में नहीं रहे। थोड़े दिनों की चर्चा के बाद समूचा प्रकरण लोगों की स्मृति से लुप्त हो जायेगा। क़ानून के छात्र भले इसका अध्ययन करें किन्तु आम जनता में आज के बाद निर्भया काण्ड के प्रति रूचि घटते-घटते खत्म हो जायेगी। दोषियों के वकील और देश की न्याय प्रणाली भी उसे भूलकर अपने काम में लग जायेगी। जो टीवी चैनल निर्भया की बिलखती माँ को दिखाकर अपनी टीआरपी बढ़ाया करते थे वे भी दूसरे मुद्दों की तलाश में लग जायेंगे। लेकिन ये काण्ड अनेक ऐसे सवाल छोड़ गया है जिनका उत्तर तलाशकर न्याय प्रणाली में व्याप्त उन छिद्रों को भरना जरूरी है जिनका लाभ उठाकर दरिन्दे मौत से बचते रहे। इसके लिए अदालतों और न्यायाधीशों को दोषी ठहराना ही काफी नहीं है क्योंकि जघन्यतम अपराधों के कसूरवारों को उनके किये की सजा देते समय भी हमारी न्याय व्यवस्था अपनी चिर परिचित शैली में काम करती है। ये ठीक है कि हर मामले में विशेष अदालत नहीं बनाई जा सकती और जिस मामले में मृत्युदंड की सम्भावना हो उसमें अदालतों को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी होती है। लेकिन निर्भया काण्ड के अंजाम तक पहुँचने में लगा समय और दोषियों को बचाने के लिए उनके वकील द्वारा चली गयी चालों ने हमारी न्यायपालिका की निरीहता को उजागर कर दिया। शायद ही इसके पहले किसी फाँसी की तारीख तय होने के बाद इतनी बार आगे सरकाई गयी होगी। ऐसे में डर इस बात का है कि भविष्य में भी बलात्कार या उस जैसे ही किसी अपराध में मृत्युदंड पाने वाले को बचाने के लिए उसके अधिवक्ता निर्भया कांड में आजमाए गए कानूनी दांव पेचों को दोहराने का भरपूर प्रयास करंगे और हमारी न्याय प्रणाली सब कुछ जानते हुए भी लाचार बनी रहेगी। जिस या जिन वकीलों ने निर्भया के दोषियों को फाँसी के तख्ते पर लटकने से बचाने के लिये अपने विधिक ज्ञान का उपयोग किया, उनका व्यवसाय हो सकता है और चमक जाए। लेकिन उन्हें अपने बारे में जनता द्वारा व्यक्त की गयी प्रतिक्रियाओं का भी संज्ञान लेना चाहिए। उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि वे पहले एक मनुष्य हैं और बाद में वकील। किसी की जान बचाने के लिये अपने ज्ञान और क्षमता का उपयोग करना स्वागतयोग्य है लेकिन किसी नर पिशाच को जीवित रखने में सहायक बनना गैर मानवीय है। इसके पहले कि निर्भया काण्ड कानून की किताबों में कैद होकर विस्मृति का शिकार हो जाए, इस बारे में गम्भीर चिंतन जरूरी है कि जघन्यतम अपराध करने वालों को आखिर कितने अवसर दिए जाने चाहिए ? हमारे देश की न्याय प्रणाली में उदारता और मानवीयता का जो गुण है वह अपनी जगह ठीक है लेकिन उसका लाभ उठाते हुए यदि राक्षसी मानसिकता के हौसले बुलंद हों तब उसे बदलने की जरूरत है। इस दिशा में सोचने और कुछ करने का ये सही अवसर है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment