Saturday 21 March 2020

कमलनाथ : महत्वाकांक्षा भले पूरी हो गई लेकिन ....

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मेरी नजर में कमलनाथ कभी भी मप्र के नैसर्गिक नेता नहीं बन सके। इंदिरा जी ने उन्हें छिन्दवाड़ा की सियासी जागीर सौंपी थी। जिसकी उनने अच्छी तरह देखभाल की ये स्वीकार करना पड़ेगा।  लेकिन अगल - बगल के जिलों के प्रति उनका रवैया उपेक्षापूर्ण ही रहा। यही वजह है कि वे छिन्दवाड़ा के बाहर उतने प्रभावशाली नहीं रहे। कमलनाथ बीते 40 साल से मप्र की राजनीति में हैं लेकिन उसके बाद भी छिन्दवाड़ा में उनका किसी पर इतना विश्वास नहीं रहा कि वे उसे अपनी सीट पर बिठा देते। हवाला काण्ड के चलते जब टिकिट कटी तब उन्होंने बजाय किसी कांग्रेस नेता के अपनी गैर राजनीतिक पत्नी को लोकसभा हेतु लड़वाया जो जीत भी गईं। बाद में उनसे इस्तीफा दिलवाकर खुद लोकसभा में जाने के लिए उपचुनाव करवाया लेकिन उस समय के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की चालों के कारण कमलनाथ को हार का सामना करना पड़ा। भाजपा के कद्दावर नेता सुन्दरलाल पटवा ने उन्हें शिकस्त दी थी। हालाँकि अगले चुनाव में वे पुन: जीते। 2018 में वे मप्र के मुख्यमंत्री बन गए पर लोकसभा सीट उन्होंने अपनी मु_ी में रखी तथा अपने बेटे नकुल नाथ को टिकिट दिलवा दी। चूँकि नरेंद्र मोदी छिंदवाड़ा नहीं आये इसलिए नकुल मामूली अंतर से जीत गए। लेकिन ये बात एक बार फिर उजागार हो गयी कि छिंदवाड़ा के कांग्रेसियों ने भले ही बाहरी होने के बावजूद कमलनाथ पर आँख मूंदकर विश्वास किया किन्तु उन्हें आज भी वहां के लोगों पर यकीन नहीं रहा वरना लोकसभा सीट पर बजाय अपने बेटे के वे किसी कांग्रेसी नेता को उतारते। कल मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कमलनाथ का कद निश्चित्त रूप से छोटा हो गया। वैसे वे जिस दिन प्रदेश के मुखिया बने उसी दिन उनकी छवि राष्ट्रीय से प्रांतीय हो चुकी थी। बीते सवा साल में भी वे केवल मुख्यमंत्री रहे। मप्र के जनमानस पर भी कोई छाप नहीं छोड़ सके क्योंकि उनका स्थानीय लोगों से यहाँ तक कि कांग्रेसियों से भी जमीनी रिश्ता कभी नहीं रहा। अपने चंद प्रबंधकों के माध्यम से वे सियासत को रिमोट कंट्रोल से चलाते रहे। हाँ , एक बात जरुर थी कि उन्होंने अपनी सम्पन्नता का काफी पेशेवर तरीके से उपयोग करते हुए छिन्दवाड़ा जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र में अपना आभामंडल बनाये रखा। प्रदेश की सत्ता से बेदखल होने के बाद अब वह आभामंडल बरकरार रखना उनके लिये मुश्किल हो जाएगा। भाजपा ने जिस तरह से गुना में ज्योतिरादित्य सिंधिया को घेरा था और चुरहट में अजय सिंह राहुल का नूर उतारा बैठने ही अब छिंदवाड़ा उसका अगला निशाना होगा। कमलनाथ भले ही पूरी तरह धराशायी नहीं हुए हों लेकिन अब वे उस बूढ़े शेर की मानिंद होकर रह गये हैं जिसके नाखून और दांत घिस चुके हैं और वह खुद होकर शिकार करने की स्थिति में नहीं रहा। जब तक कमलनाथ ने खुद को केंद्र की राजनीति तक सीमित रखा तब तक दिग्विजय सिंह को वे प्रिय रहे लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही राघोगढ़ नरेश उनको पचा नहीं पा रहे थे। सरकार चलाने में दिग्विजय सिंह की दखलंदाजी का कमलनाथ ने सीधा विरोध नहीं किया लेकिन कुछ मंत्रियों से श्री सिंह पर हमले करवाए जिसके कारण दोनों में दूरी बढ़ी। जहां तक बात श्री सिंधिया की है तो उनके कमलनाथ से आत्मीय रिश्ते थे। दोनो गांधी परिवार के करीबी माने जाते थे। लेकिन दिग्विजय सिंह ने इन दोनों के बीच खाई बना दी जिसे वे निरंतर चौड़ा करते रहे। कमलनाथ सरकार चलाने में मशगूल रहे और दिग्विजय अपना और अपने बेटे का राजनीतिक भविष्य संवारने में जुट गये। अपने अनुज विधायक लक्षमण सिंह से सरकार विरोधी बयान दिलवाना राघोगढ़ परिवार का खेल था जिसे कमलनाथ समझ ही नहीं सके। यही वजह थी कि बागी विधायकों से उनका कोई संपर्क नहीं होने पाया और वे पूरी तरह दिग्विजय सिंह पर निर्भर रहे जिन्होंने काम बनाया कम बिगाड़ा ज्यादा। यद्यपि बतौर मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अनेक साहसिक और सुधारवादी फैसले किये। विकास के प्रति ललक भी उनके कामों में झलकी लेकिन नौकरशाही के तबादलों को दैनिक कार्य बना लेने की वजह से वे प्रशासनिक ढांचे में स्थिरता और कसावट नहीं ला सके। उलटे नौकरशाही उनसे नाराज होती चली गई। ऐसा उनने दिग्विजय के दबाव में किया या ये उनका निर्णय था ये स्पष्ट नहीं हो सका परन्तु इससे उनकी छवि खराब हुई। उनकी एक कमजोरी छिंदवाड़ा के प्रति अतिरिक्त प्रेम भी रही। बतौर मुख्यमंत्री अपने क्षेत्र को विकसित करना गलत नहीं था लेकिन ऐसा करते समय वे बाकी जिलों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे सके। और जो कुछ किया भी वह जमीन पर नहीं उतर सका। हालांकि अभी भी वे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के तौर पर जाने जायेंगे लेकिन शिवराज सिंह जैसी गतिशीलता और दिग्विजय सिंह जैसा व्यापक सम्पर्क न होने के कारण वे अभूतपूर्व नहीं बन सके। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि उनके सत्ता से हटते ही उनका दौर भी खत्म होने को आ गया। यहीं नहीं तो मप्र में कांग्रेस एक बार फिर वहां लौट गई जहां उसे दिग्विजय सिंह ने 2003 में लाकर छोड़ा था। कमलनाथ और दिग्विजय का उम्रदराज होना , राहुल सिंह का पराजित योद्धा बन जाना, अरुण यादव का महत्वहीन हो जाना और इनके अलावा किसी अन्य नेता की प्रादेशिक स्तर पर पहिचान नहीं होने से कांग्रेस अब बिखरी हुई सेना बनकर रह गई है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को हाशिये  पर धकेलने की दिग्विजय सिंह की चालबाजी पार्टी को कितनी महंगी पड़ी ये बताने की जरूरत नहीं है। आखिऱी दिनों में भाजपा नेताओं के विरुद्ध बदले की कार्रवाई, राजनीतिक नियुक्तियां और अधिकारियों के ट्रान्सफर जैसे कदमों ने कमलनाथ की घबराहट उजागर कर दी थी। वे चाहते तो गरिमामय तरीके से सत्ता छोड़ सकते थे लेकिन उससे चिपके रहने का जो प्रयास किया उस वजह से उनकी भद्द पिट गयी। आखिर में तो वे इतने हताश हो गये कि विधानसभा का सामना करने का साहस तक नहीं बटोर सके। भले ही मुख्यमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी हो गई हो लेकिन प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में उनका उल्लेख आधे पन्ने से ज्यादा नहीं होगा और वह भी बतौर एक मजबूर सेनापति के जो अपने ही सैनिकों से घिरकर पराजित हो गया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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