Wednesday 18 March 2020

गोगोई : अब बात निकल ही पड़ी है तो .....





पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के राज्यसभा में मनोनयन पर उठा विवाद बड़ा ही महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका के उच्च पदों से निवृत्त होने के बाद किसी पद पर नियुक्ति का ये पहला मामला नहीं है। अनेक संवैधानिक और अन्य पदों पर केवल सेवानिवृत उच्च या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ही नियुक्त होते हैं। लोकपाल और लोकायुक्त के अलावा प्रेस काउन्सिल ऑफ  इंडिया सहित मानवाधिकार आयोग और उस जैसे अनेक संस्थानों में पूर्व न्यायाधीश की नियुक्ति अनिवार्य है। इन सब पर चयन राज्य या केंद्र की सरकारें ही करती हैं। तो क्या ये सभी राजनीति से प्रभावित नहीं हैं? अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति भी पूर्व न्यायाधीश बनाये गये। विभिन्न जांच आयोगों में भी उनकी नियुक्ति होती रही है। अब सवाल ये है कि क्या जब भी इस तरह की नियुक्ति होगी सम्बन्धित पूर्व न्यायाधीश की ईमानदारी और निष्पक्षता पर उंगलियां नहीं उठेंगीं ? श्री  गोगोई के मनोनयन की उनके साथ पत्रकार वार्ता में बैठे सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री मदन बी. लोकुर और कुरियन जोसफ  ने तो आलोचना की ही लेकिन उन मार्कंडेय काटजू ने भी तीखे शब्द इस्तेमाल किये जो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय से निवृत्ति उपरान्त प्रेस काउन्सिल ऑफ  इंडिया के अध्यक्ष के रूप में सरकारी सुविधाओं  के साथ रुतबे का लाभ उठा चुके हैं। वर्तमान में देश भर में न जाने कितने पूर्व न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद शासन द्रारा प्रदत्त किसी न किसी ऊंचे ओहदे पर बैठकर अच्छा खासा वेतन, सुविधाएं और रुतबे का मजा लूट रहे हैं। अब चूँकि श्री गोगोई की नियुक्ति पर विवाद उठ खड़ा हुआ है तो बेहतर होगा बाकी नियुक्तियों की भी विधिवत समीक्षा की जावे जिससे देश को ये पता चले कि न्याय की आसंदी से उतरकर कौन-कौन से मी लार्ड सरकारी खैरात का फायदा उठाते हुए बुढ़ापे का आनन्द ले रहे हैं। लगे हाथ ये भी स्पष्ट होना चाहिए कि देश के तमाम उच्च न्यायालयों के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय में पदस्थ वर्तमान न्यायाधीश किस राजनेता या न्यायाधीश के परिवार से हैं ? इस तरह के विवाद केवल आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित नहीं रहें  और उनसे व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियां दूर हो सकें  तो ये देशहित में होगा। रंजन गोगोई राज्यसभा की सदस्यता लेने के बाद क्या कहने वाले हैं ये सभी सुनना चाहेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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