Thursday 19 March 2020

संवैधानिक पद : अधिकार ही नहीं मर्यादा भी याद रहे




मप्र की राजनीति बड़े ही नाटकीय मोड़ पर आकर खड़ी हो गई है। साम , दाम दंड , भेद सभी उपायों को खुलकर आजमाया जा रहा है। मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाने के बाद भी सडकों पर राजनीति का नुक्कड़ नाटक बदस्तूर जारी है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कांग्रेस के बागी विधायकों को मनाने सदल - बल बेंगुलुरु जा पहुंचे लेकिन उनकी कोशिश बेकार साबित हुई। विधायकों ने वीडियो जारी करते हुए उनसे मिलने से साफ मना कर दिया। ऊपर से पुलिस ने गिरफ्तार किया सो अलग। प्रचार जरुर उन्हें मिल गया हो लेकिन बागी विधायकों ने जिस तरह से उनका तिरस्कार किया उससे एक बात फिर उजागर हो गयी कि कमलनाथ सरकार को खतरे में डालकर कांग्रेस के लिए मुसीबत पैदा करने में दिग्विजय सिंह का ही हाथ रहा। उनको कहीं जाने आने की पूरी आजादी है लेकिन इस तरह की गतिविधियों से पूर्व मुख्यमंत्री हंसी के पात्र बनने लगे हैं। इसी तरह भोपाल में चल रहे जवाबी राजनीतिक दांव पेंचों का कोई औचित्य नहीं है। जब दोनों पक्ष सर्वोच्च न्यायलय जा पहुंचे हैं और वहां सभी विवादित मुद्दों पर बहस चल रही है तब अदालत के बाहर होने वाली नौटंकीनुमा राजनीति किसी काम की नहीं कही जा सकती। सर्वोच्च न्यायालय में सभी पक्ष अपने-अपने तर्क रखते हुए खुद को पाक-साफ और दूसरे को गलत ठहराने में लागे हैं। आज भी सर्वोच्च न्यायालय में जो प्रश्न उठाए गये वे अधिकतर इस बात पर केन्द्रित थे कि क्या राज्य विधानसभा अध्यक्ष के जो संवैधानिक अधिकार हैं उनमें हस्तक्षेप किया जा सकता है ? न्यायाधीशों ने राज्यपाल द्वारा जारी फ्लोर टेस्ट के आदेश का पालन न किये जाने पर सवाल उठाते हुए अध्यक्ष द्वारा शेष 16 बागी विधायकों के इस्तीफे पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये विचार करने के बारे में सहमति माँगी गयी जिसे उनके अधिवक्ता ने नकार दिया। अदालत क्या फैसला देती है इस पर सभी की निगाहें लगी हैं। लेकिन इस सबके बीच एक बात जो सामने आई वह है संवैधानिक पदों पर विराजमान लोगों के असीमित विशेषाधिकार जिसके आधार पर वे स्वच्छन्द हो जाते हैं। नियन्त्रण और संतुलन का जो सिद्धांत ऐसी परिस्थितियों में ध्यान रखा जाना चाहिए है उसे पूरी तरह से उपेक्षित किया जाने लगा है। संविधान निर्माताओं ने जब संवैधानिक पदों के विशेषाधिकार निश्चित किये तब उनके मन में पक्ष - विपक्ष में बैठे देश के तत्कालीन राजनीतिक व्यक्तित्वों का चित्र था जो राजनीतिक नफे नुक्सान से उपर उठकर लोकतंत्र और देश के बारे में सोचते थे। उनका सोच और आचरण दोनों गरिमामय होता था और लोकनिंदा से उन्हें डर भी लगता था। संविधान सभा को भरोसा था कि इन विशेषाधिकारों का भस्मासुर को मिले वरदान की तरह दुरूपयोग नहीं होगा। आजादी के कुछ दशकों तक तो संसदीय प्रजातंत्र अपने आदर्श रूप का कुछ हद तक प्रदर्शन करता रहा लेकिन सत्तर के दशक के बाद से राजनीति में शुचिता , पवित्रता , मर्यादा , गरिमा ,और सबसे बढ़कर तो शर्म खत्म ही हो गयी। अधिकारों के नाम पर जो कुछ भी हुआ और हो रहा है वह पूरी तरह से स्वेच्छाचारिता है और इसीलिये बात - बात में अदालतों की शरण लेने की नौबत आ जाती है। मप्र में बीते एक सप्ताह के भीतर संविधान को जिस तरह से फुटबाल बनाकर लतियाया गया उसके बाद अब ये सोचने का वक्त आ गया है कि राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों को पुन: परिभाषित किया जाना चाहिए। यही नहीं तो इस जैसे दूसरे पदों के अधिकारों की भी समीक्षा हो। आज सर्वोच्च न्यायालय में विधानसभा अध्यक्ष की ओर से अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी द्वारा यहाँ तक कहा गया कि अध्यक्ष के क्षेत्राधिकार में न्यायपालिका का हस्तक्षेप भी मान्य नहीं है। राज्यपाल के आदेश को लेकर भी अध्यक्ष की ओर से यही बात कही गई। ये विवाद अब रह - रहकर उठने लगा है। देश में बहुदलीय लोकतंत्र होने से अलग - अलग पदों पर परस्पर विरोधी दलों के लोग नियुक्त होते हैं। उनसे अपेक्षा होती है कि वे दलीय प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर संविधान द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा में रहते हुए कार्य करते हुए अपने अधिकारों का विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए कर्तव्यों का निर्वहन करें। लेकिन बीते कुछ दशकों में स्थित्तियाँ बिगड़ते - बिगड़ते इस हद तक आ गईं कि अधिकार तो सभी को याद रहते हैं लेकिन उनसे जुड़ी मर्यादाएं और दायित्वबोध के प्रति उदासीन रवैया अपनाया जाता है।  मप्र के राजनीतिक दंगल में पहलवान लड़ते तो वह स्वाभाविक होता लेकिन यहाँ तो निर्णायक ही लंगोट कसकर आपस में उलझ गये हैं। ये हालात दुखद भी हैं और हास्यास्पद भी। विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल दोनों सम्मानित पद हैं। लेकिन उनके बीच चल रहा विवाद राजनीति को सब्जीमंडी के माहौल से भी बदतर साबित करने के लिए पर्याप्त है। कभी-कभी तो लगता है इन सफेद हाथियों की जरूरत ही क्या है ? विधानसभा का अध्यक्ष लोकतंत्र के मंदिर का संरक्षक होता है। वहीं राज्यपाल प्रदेश का शासन संविधान के अनुरूप चले इसकी निगरानी के लिए नियुक्त होते हैं। संविधान ने दोनों के अधिकार और सीमाएं भी तय कर रखी हैं। ऐसे में बेहतर हो ऐसे पदों के बीच सार्थक संवाद के माध्यम से संतुलन बना रहे लेकिन जातिगत छुआछूत मिटाने का दावा करने वाले राजनेताओं ने राजनीतिक छुआछूत रूपी नई बीमारी ऊपर से नीचे तक फैला रखी है। मप्र बीते अनेक दिनों से इसी से संक्रमित है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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