Thursday 31 January 2019

संगम में महिलाएँ भी स्नान करती हैं थरूर साहब


कुछ लोगों को अक्ल का अजीर्ण होता है। उन्हीं में से एक पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर भी हैं।  तिरुवनन्तपुरम से लोकसभा के लिए निर्वाचित श्री थरूर यूँ तो बड़े विद्वान हैं। अनेक पुस्तकों के रचयिता भी हैं। स्तम्भ लेखन भी अच्छा करते हैं। संरासंघ में लंबे समय तक रहने से वैश्विक स्तर की सोच रखते हैं। अपने अभिजात्य रहन-सहन और सुदर्शन व्यक्तित्व के चलते ग्लैमर की दुनिया में भी चर्चित हैं। वैसे राजनीति से समानान्तर उनके प्रेम प्रसंग भी उन्हें खबरों में बनाये रखते हैं। मनमोहन सरकार में मंत्री बनने के बाद आवंटित बंगले की साज-सज्जा के चलते 27 हजार रोज के किराए वाले होटल में महीनों रहे। हवाई जहाज की इकॉनामी क्लास को जानवरों की श्रेणी कहकर आलोचना झेल चुके श्री थरूर अक्सर ऐसा कुछ बोल देते हैं जिससे न सिर्फ  उन्हें वरन पूरी कांग्रेस पार्टी को शर्मसार होना पड़ता है। हिन्दू धर्म और संस्कृति को लेकर अतीत में की गईं उनकी टिप्पणियों के कारण लोग उन्हें मणिशंकर अय्यर की श्रेणी में रखने लगे जो अपने उल-जलूल बयानों से कांग्रेस के लिए मुसीबत खड़ी करते रहते हैं। आदत से मजबूर श्री थरूर ने गत दिवस एक और विवाद खड़ा कर दिया। ट्विटर पर उन्होंने उप्र मंत्रीमण्डल के सदस्यों के प्रयागराज में कुंभ स्नान का चित्र पोस्ट करते हुए टिप्पणी की कि इस संगम में सब नंगे हैं। उनके इस ट्वीट को लेकर सोशल मीडिया पर तो उनकी फजीहत हुई ही अन्य माध्यमों में भी लोगों ने श्री थरूर पर थू-थू  की। उल्लेखनीय है देश-विदेश से नामी- गिरामी हस्तियां कुंभ मेले में संगम स्नान करने आती हैं। इनमें राजनेता भी बड़ी संख्या में होते हैं। कुंभ केवल धार्मिक आस्था ही बल्कि भारत की प्राचीन संस्कृति का जीवंत प्रगटीकरण है जो राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता को अक्षुण्ण बनाये रखता है। पूरे विश्व में इस आयोजन की भव्यता और दिव्यता की चर्चा और प्रशंसा होती हैं। गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम में स्नान करने की लालसा करोड़ों हिंदुओं के मन में रहती है। इस संगम में  सब नंगे हैं जैसी टिप्पणी करने वाले श्री थरूर शायद भूल गए कि पिछले अनेक कुंभ में उनकी पार्टी के दिग्गज नेता भी स्नान करने पहुंचे थे जिनमें मंत्री स्तर के भी तमाम लोग रहे। इस बार भी ऐसा हो रहा है। मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ के कई मांत्रियों सहित संगम स्नान हेतु जाने की खबर भी आज प्रसारित हुई है। और तो और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और हाल ही में पार्टी की महासचिव नियुक्त की गईं उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा भी संगम में स्नान करने जाने वाले हैं। ऐसे में ट्विटर पर की गई उनकी स्तरहीन टिप्पणी क्या कांग्रेस के उन नेताओं के लिए भी है जो संगम में स्नान कर चुके हैं या करने वाले हैं। जैसा प्रारम्भ में कहा गया श्री थरूर की योग्यता और विद्वता निश्चित रूप से आकर्षित करती है। मणिशंकर अय्यर भी उन्हीं की तरह विदेश सेवा से निवृत्त हुए मेधावी व्यक्ति हैं। लेकिन इसे संयोग ही कहा जायेगा कि ये दोनों अपनी बेलगाम जुबान और संदर्भहीन टिप्पणियों से अपनी छीछालेदर करवाने के साथ ही कांग्रेस पार्टी को भी मुंह छिपाने के लिए मजबूर कर देते हैं। बेहतर हो राहुल गांधी स्वयं आगे आकर श्री थरूर के ताजा ट्वीट की निंदा करें क्योंकि वे और प्रियंका स्वयं भी संगम स्नान हेतु जाने वाले हैं। यही नहीं तो उनकी टिप्पणी उन करोड़ों श्रद्धालुओं का उपहास है जो तरह-तरह की तकलीफें उठाकर कुंभ में स्नान करने जाते हैं। खुद श्री थरूर जिस शहर और राज्य के मूल निवासी और सांसद हैं वह सनातन धर्म और हिन्दू संस्कृति के पालन के प्रति बेहद गम्भीर है। केरल देश का पहला राज्य है जिसने शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य काफी पहले हासिल कर लिया था। इस राज्य में ईसाई और मुसलमान भी काफी हैं। बावजूद उसके वहां भारतीय संस्कृति अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ दिखाई देती है। अपनी जि़ंदगी का बड़ा हिस्सा विदेशों में गुजारने के कारण सम्भवत: श्री थरूर के दिमाग में तथाकथित आधुनिकता ने अतिक्रमण कर लिया है। लेकिन उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि विदेशों में पढ़े उनकी पार्टी  के अध्यक्ष राहुल गांधी भी अच्छी तरह समझ गए कि भारत की आत्मा कहां बसती है? इसीलिए बीते कुछ समय से हिन्दू मंदिरों और मठों में उनकी आवाजाही भले ही राजनीतिक लाभ के लिये की जा रही हो किन्तु इससे एक बात साबित हो गई कि छद्म धर्मनिरपेक्षता की निरर्थकता श्री गाँधी को अच्छी तरह से समझ में आ गई। हाल में केरल के सुप्रसिद्ध सबरी माला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक की परंपरा को खत्म कर देने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का कांग्रेस दिल्ली में तो समर्थन कर रही है लेकिन उसने अपनी केरल इकाई को जिसके श्री थरूर भी एक हिस्से हैं, उक्त फैसले का विरोध करने की छूट दी जिससे वहां का सनातन धर्मी हिन्दू समाज पार्टी से नाराज न हो जाये। इस संगम में सब नंगे हैं जैसी मूर्खतापूर्ण टिप्पणी करने वाले श्री थरूर ने पार्टी हाईकमान के उस निर्देश का विरोध करने का साहस क्यों नहीं दिखाया ये प्रश्न भी उठ खड़ा होता है। यदि उन्हें प्रयागराज में चल रहा कुंभ ढकोसला लगता है तो उनको राहुल और प्रियंका सहित उन सभी कांग्रेस नेताओं का भी मजाक उड़ाना चाहिए जो संगम स्नान कर चुके हैं या  करने वाले हैं। कांग्रेस पार्टी को श्री थरूर और श्री अय्यर जैसे मानसिक बीमारों के घटिया बयानों से पहले भी काफी नुकसान हो चुका है। मणिशंकर को तो कुछ समय के लिए पार्टी से निलंबित भी किया गया था। गुजरात विधानसभा चुनाव के अन्तिम दौर में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में जो अभद्र टिप्पणी की उसने कांग्रेस के हाथ से आती हुई सत्ता छीन ली थी। पता नहीं श्री गांधी ओछी मानसिकता वाले ऐसे नेताओं को पार्टी में क्यों रखे हुए हैं? इस संगम में सब नंगे हैं जैसी टिप्पणी करने से पहले श्री थरूर को कम से कम इतना ध्यान तो रखना ही चाहिये था कि संगम में महिलाएं भी स्नान करती हैं।संगम में महिलाएँ भी स्नान करती हैं थरूर साहब
कुछ लोगों को अक्ल का अजीर्ण होता है। उन्हीं में से एक पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर भी हैं।  तिरुवनन्तपुरम से लोकसभा के लिए निर्वाचित श्री थरूर यूँ तो बड़े विद्वान हैं। अनेक पुस्तकों के रचयिता भी हैं। स्तम्भ लेखन भी अच्छा करते हैं। संरासंघ में लंबे समय तक रहने से वैश्विक स्तर की सोच रखते हैं। अपने अभिजात्य रहन-सहन और सुदर्शन व्यक्तित्व के चलते ग्लैमर की दुनिया में भी चर्चित हैं। वैसे राजनीति से समानान्तर उनके प्रेम प्रसंग भी उन्हें खबरों में बनाये रखते हैं। मनमोहन सरकार में मंत्री बनने के बाद आवंटित बंगले की साज-सज्जा के चलते 27 हजार रोज के किराए वाले होटल में महीनों रहे। हवाई जहाज की इकॉनामी क्लास को जानवरों की श्रेणी कहकर आलोचना झेल चुके श्री थरूर अक्सर ऐसा कुछ बोल देते हैं जिससे न सिर्फ  उन्हें वरन पूरी कांग्रेस पार्टी को शर्मसार होना पड़ता है। हिन्दू धर्म और संस्कृति को लेकर अतीत में की गईं उनकी टिप्पणियों के कारण लोग उन्हें मणिशंकर अय्यर की श्रेणी में रखने लगे जो अपने उल-जलूल बयानों से कांग्रेस के लिए मुसीबत खड़ी करते रहते हैं। आदत से मजबूर श्री थरूर ने गत दिवस एक और विवाद खड़ा कर दिया। ट्विटर पर उन्होंने उप्र मंत्रीमण्डल के सदस्यों के प्रयागराज में कुंभ स्नान का चित्र पोस्ट करते हुए टिप्पणी की कि इस संगम में सब नंगे हैं। उनके इस ट्वीट को लेकर सोशल मीडिया पर तो उनकी फजीहत हुई ही अन्य माध्यमों में भी लोगों ने श्री थरूर पर थू-थू  की। उल्लेखनीय है देश-विदेश से नामी- गिरामी हस्तियां कुंभ मेले में संगम स्नान करने आती हैं। इनमें राजनेता भी बड़ी संख्या में होते हैं। कुंभ केवल धार्मिक आस्था ही बल्कि भारत की प्राचीन संस्कृति का जीवंत प्रगटीकरण है जो राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता को अक्षुण्ण बनाये रखता है। पूरे विश्व में इस आयोजन की भव्यता और दिव्यता की चर्चा और प्रशंसा होती हैं। गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम में स्नान करने की लालसा करोड़ों हिंदुओं के मन में रहती है। इस संगम में  सब नंगे हैं जैसी टिप्पणी करने वाले श्री थरूर शायद भूल गए कि पिछले अनेक कुंभ में उनकी पार्टी के दिग्गज नेता भी स्नान करने पहुंचे थे जिनमें मंत्री स्तर के भी तमाम लोग रहे। इस बार भी ऐसा हो रहा है। मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ के कई मांत्रियों सहित संगम स्नान हेतु जाने की खबर भी आज प्रसारित हुई है। और तो और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और हाल ही में पार्टी की महासचिव नियुक्त की गईं उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा भी संगम में स्नान करने जाने वाले हैं। ऐसे में ट्विटर पर की गई उनकी स्तरहीन टिप्पणी क्या कांग्रेस के उन नेताओं के लिए भी है जो संगम में स्नान कर चुके हैं या करने वाले हैं। जैसा प्रारम्भ में कहा गया श्री थरूर की योग्यता और विद्वता निश्चित रूप से आकर्षित करती है। मणिशंकर अय्यर भी उन्हीं की तरह विदेश सेवा से निवृत्त हुए मेधावी व्यक्ति हैं। लेकिन इसे संयोग ही कहा जायेगा कि ये दोनों अपनी बेलगाम जुबान और संदर्भहीन टिप्पणियों से अपनी छीछालेदर करवाने के साथ ही कांग्रेस पार्टी को भी मुंह छिपाने के लिए मजबूर कर देते हैं। बेहतर हो राहुल गांधी स्वयं आगे आकर श्री थरूर के ताजा ट्वीट की निंदा करें क्योंकि वे और प्रियंका स्वयं भी संगम स्नान हेतु जाने वाले हैं। यही नहीं तो उनकी टिप्पणी उन करोड़ों श्रद्धालुओं का उपहास है जो तरह-तरह की तकलीफें उठाकर कुंभ में स्नान करने जाते हैं। खुद श्री थरूर जिस शहर और राज्य के मूल निवासी और सांसद हैं वह सनातन धर्म और हिन्दू संस्कृति के पालन के प्रति बेहद गम्भीर है। केरल देश का पहला राज्य है जिसने शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य काफी पहले हासिल कर लिया था। इस राज्य में ईसाई और मुसलमान भी काफी हैं। बावजूद उसके वहां भारतीय संस्कृति अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ दिखाई देती है। अपनी जि़ंदगी का बड़ा हिस्सा विदेशों में गुजारने के कारण सम्भवत: श्री थरूर के दिमाग में तथाकथित आधुनिकता ने अतिक्रमण कर लिया है। लेकिन उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि विदेशों में पढ़े उनकी पार्टी  के अध्यक्ष राहुल गांधी भी अच्छी तरह समझ गए कि भारत की आत्मा कहां बसती है? इसीलिए बीते कुछ समय से हिन्दू मंदिरों और मठों में उनकी आवाजाही भले ही राजनीतिक लाभ के लिये की जा रही हो किन्तु इससे एक बात साबित हो गई कि छद्म धर्मनिरपेक्षता की निरर्थकता श्री गाँधी को अच्छी तरह से समझ में आ गई। हाल में केरल के सुप्रसिद्ध सबरी माला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक की परंपरा को खत्म कर देने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का कांग्रेस दिल्ली में तो समर्थन कर रही है लेकिन उसने अपनी केरल इकाई को जिसके श्री थरूर भी एक हिस्से हैं, उक्त फैसले का विरोध करने की छूट दी जिससे वहां का सनातन धर्मी हिन्दू समाज पार्टी से नाराज न हो जाये। इस संगम में सब नंगे हैं जैसी मूर्खतापूर्ण टिप्पणी करने वाले श्री थरूर ने पार्टी हाईकमान के उस निर्देश का विरोध करने का साहस क्यों नहीं दिखाया ये प्रश्न भी उठ खड़ा होता है। यदि उन्हें प्रयागराज में चल रहा कुंभ ढकोसला लगता है तो उनको राहुल और प्रियंका सहित उन सभी कांग्रेस नेताओं का भी मजाक उड़ाना चाहिए जो संगम स्नान कर चुके हैं या  करने वाले हैं। कांग्रेस पार्टी को श्री थरूर और श्री अय्यर जैसे मानसिक बीमारों के घटिया बयानों से पहले भी काफी नुकसान हो चुका है। मणिशंकर को तो कुछ समय के लिए पार्टी से निलंबित भी किया गया था। गुजरात विधानसभा चुनाव के अन्तिम दौर में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में जो अभद्र टिप्पणी की उसने कांग्रेस के हाथ से आती हुई सत्ता छीन ली थी। पता नहीं श्री गांधी ओछी मानसिकता वाले ऐसे नेताओं को पार्टी में क्यों रखे हुए हैं? इस संगम में सब नंगे हैं जैसी टिप्पणी करने से पहले श्री थरूर को कम से कम इतना ध्यान तो रखना ही चाहिये था कि संगम में महिलाएं भी स्नान करती हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 30 January 2019

आतंकवादी की फाँसी से ज्यादा महत्वपूर्ण है अयोध्या

24 घण्टे में अयोध्या विवाद  हल करने का दावा करने संबंधी उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के  बयान  के बाद ही केंद्र सरकार द्वारा अयोध्या में अधिग्रहीत की गई गैर विवादित भूमि राम जन्मभूमि न्यास को सौंपने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लगाए जाने से अचानक राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई। प्रयागराज में चल रहे कुम्भ में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी की अगुआई में आयोजित धर्मसंसद के पहले ही केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लागाकर एक तरह से साधु-सन्यासियों की नाराजगी दूर करने का प्रयास किया है। एक धर्मसंसद विश्व हिंदू परिषद द्वारा भी प्रायोजित की जा रही है। कुंभ के शुरू होते ही साधु समुदाय अयोध्या विवाद को लेकर भाजपा को चेतावनी देने लगा था। मोदी सरकार को ये उम्मीद थी कि सर्वोच्च न्यायालय इस विवाद पर निर्णय देकर अनिश्चितता खत्म कर देगा लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि उसने न सिर्फ सरकार अपितु पूरे देश को निराश किया है। योगी आदित्यनाथ ने जो दावा किया वह एक तरह से न्याय की सर्वोच्च आसन्दी पर तीखा कटाक्ष भी था। केंद्र सरकार की इस पहल की एक वजह स्वामी स्वरूपानंद जी द्वारा कुम्भ के बाद अयोध्या जाकर राम मंदिर का निर्माण किये जाने की घोषणा भी है। ये भी सही है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उप्र में भाजपा की संभावनाओं को मजबूती देने के लिए मोदी सरकार के लिये ऐसा कुछ करना जरूरी हो गया था जिससे हिन्दू जनमानस के मन से ये धारणा दूर की जा सके कि सत्ता में आने के बाद भाजपा मंदिर को भूल जाती है। राहुल गांधी भी उसे ये ताना देते रहते हैं कि मंदिर वहीं बनायेंगे लेकिन तारीख नहीं बताएंगे। लेकिन इस सबसे हटकर देखें तो केंद्र सरकार का ताजा कदम मौजूदा परिस्थितियों में एकदम सही कहा जायेगा क्योंकि 1993 में अधिग्रहीत की गई लगभग 68 एकड़ भूमि में विवादित भूखंड मात्र 0.313 एकड़ ही है। हालांकि केंद्र की इस पहल का मुस्लिम समाज के वकीलों ने विरोध किया है लेकिन विवाद से जुड़े कई मुसलमानों ने टीवी पर खुलकर कहा कि इस अर्जी पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं है। ऐसा लगता है साधु-सन्यासियों के साथ ही हिन्दू समाज का धैर्य जिस तरह जवाब देने लगा था उसके बाद केंद्र सरकार के लिए ऐसा करना मजबूरी भी थी और जरूरी भी। सर्वोच्च न्यायालय में हो रही अकारण देरी की वजह से रास्वसंघ सहित भाजपा का समर्थक वर्ग अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त करने का दबाव बना रहा था लेकिन सहयोगियों की नाराजगी के डर से प्रधानमंत्री चाहकर भी वैसा नहीं कर सके। बीच में एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने साफ  कहा भी की उनकी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार करेगी। राजनीतिक दृष्टि से भी भाजपा के लिए कुछ न कुछ ऐसा करना जरूरी होता जा रहा था जिससे ये आभास हो कि वह मंदिर निर्माण के प्रति ईमानदार है। बहरहाल इस समूचे प्रकरण में सबसे ज्यादा निराश किया तो वह न्यायपालिका ने। बीते कुछ दिनों से तो हद ही हो गई जब किसी न किसी कारण से सुनवाई को टाला गया। कभी पीठ का गठन तो कभी किसी न्यायाधीश का खुद को सुनवाई से अलग कर लेना या फिर अवकाश पर चले जाने से बात एक कदम आगे दो कदम पीछे जैसी बनने लगी थी। ये भी सही है कि सहयोगी संगठनों के उलाहनों और दबाव के बावजूद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अब तक बहुत धैर्य का परिचय दिया वरना नरेंद्र मोदी की जो छवि रही है उसे देखते हुए अपेक्षा की जाती थी कि वे हिंदुओं को खुश करने के लिए कोई अप्रत्याशित कदम उठा सकते हैं। उस दृष्टि से गत दिवस केंद्र ने जो कदम उठाया वह सूझबूझ भरा है। आखिऱ जिस भूमि को लेकर कोई विवाद ही नहीं है उसे अदालती विवाद में उलझाकर रखने से लाभ क्या है? यद्यपि साधु समुदाय में से भी एक वर्ग ऐसा है जो इसमें भी मोदी सरकार की चालाकी देख रहा है लेकिन ये बात भी सही है कि पूरी तरह से रुके रहने की बजाय यदि एक कदम आगे बढ़ाया जाए तो उसमें कुछ भी गलत नहीं होगा। इस अर्जी के बाद अब गेंद सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है। उसे भी ये देखना चाहिये कि जनभावनाएं कहीं उग्र न हो जाएं। हालांकि मौजूदा हालात में विवादित स्थान पर मन्दिर निर्माण शुरू करना न तो स्वामी स्वरूपानंद जी के बस की बात है और न ही विश्व हिन्दू परिषद के किन्तु गैर विवादित जमीन यदि राम जन्म भूमि न्यास को सौंप दी जाए तो लोगों में बढ़ते आक्रोश को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 2003 में पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में जो अवशेष मिले वे इस बात को सिद्ध  करने के लिए पर्याप्त हैं कि 6 दिसम्बर 1992 को गिराया गया विवादित ढांचा किसी हिन्दू मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। पता नहीं क्या कारण है कि न्यायपालिका इस दिशा में उदासीन बनी हुई है। एक समय था जब मंदिर आंदोलन से जुड़े नेता और संगठन ये मानते थे कि आस्था का विषय होने से ये प्रकरण कानून के अधिकार क्षेत्र से ऊपर है लेकिन अब तो लगभग सभी पक्ष न्यायपालिका के फैसले को मानने को राजी हो गए हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही देरी औचित्यहीन लगती है। हालांकि हमारे देश में नयाय प्रक्रिया की कछुआ चाल जगजाहिर है लेकिन कतिपय मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह की फुर्ती दिखाई उसके बाद से लोगों को ये लगने लगा था कि अयोध्या विवाद पर भी वैसी ही सक्रियता दिखाई जावेगी किन्तु पेशी दर पेशी बढ़ती गईं लेकिन बात जहां की तहां बनी हुई है। न्यायपालिका के प्रति असंदिग्ध आस्था और सम्मान के बाद भी ये कहने में कोई संकोच नहीं होता कि अयोध्या मसले को सुलझाने के प्रति वह अपेक्षित गम्भीरता नहीं दिखा सकी। इस बारे में मोदी सरकार की तारीफ  करनी होगी कि उसने अध्यादेश जैसा कोई कदम नहीं उठाकर किसी भी प्रकार के तनाव को टाला। गैर विवादित भूमि संबंधी उसकी अर्जी पर सर्वोच्च न्यायालय को प्राथमिकता के तौर पर फैसला देना चाहिए। वरना उस पर ये तोहमत लगती रहेगी कि आतंकवादी की फाँसी रुकवाने की याचिका सुनने के लिए तो उसे आधी रात में भी अदालत खोलने से परहेज नहीं हुआ लेकिन देश के 80 फीसदी हिंदुओं के आराध्य भगवान राम उसके लिए एक सामान्य पक्षकार हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 29 January 2019

गडकरी के बयान में भविष्य का संकेत

दो दिनों से केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का ये बयान चर्चाओं में है कि वायदे वही करो जिन्हें पूरा कर सको वरना जनता पीटेगी। श्री गडकरी उन चंद राजनेताओं में से हैं जो काम करने के लिए जाने जाते हैं। महाराष्ट्र के लोक निर्माण मंत्री के तौर पर उनके काम की देश भर में प्रशंसा हुई थी। नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद उन्हें गंगा सफाई, सड़क, पुल, फ्लाईओवर, हाइवे और बंदरगाह बनाने जैसे काम वाला मंत्रालय दिया गया और पाँच साल पूरे होते-होते वे ही ऐसे मंत्री हैं जिनका रिपोर्ट कार्ड उन्हें 90 फीसदी अंक देता है। उनके ताजा बयान को प्रधानमंत्री पर कटाक्ष के रूप में लिया जा रहा है। राजनीति का विश्लेषण करने वालों के अनुसार श्री गडकरी की नजर चुनाव बाद के सियासी हालात पर है। हालिया चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में यद्यपि एनडीए सबसे ज्यादा सीटें जीतेगा लेकिन उसे बहुमत नहीं मिलेगा और उस सूरत में श्री मोदी की बजाय श्री गडकरी के नाम पर बाहरी समर्थन बटोरकर सरकार बनाई जा सकेगी। उल्लेखनीय है कि वे रास्वसंघ के अत्यंत निकट हैं, बावजूद उसके उनकी छवि ऐसे व्यवहारिक राजनेता के तौर पर है जो विकास की राजनीति करता है। स्मरणीय है कि कुछ समय पहले श्री गडकरी के उस बयान पर काफी हल्ला मचा था कि जब नौकरियां हैं ही नहीं तब आरक्षण का लाभ ही क्या ? इस तरह की बात कहने का साहस भी अपवाद स्वरूप ही कोई नेता करता है। लोकसभा चुनाव के पहले दिए उनके ताजा बयान को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो वह एक संदेश है सभी राजनीतिक दलों के लिए जो चुनाव जीतने के लिए ऐसे-ऐसे वायदे कर देते हैं जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता और उसकी वजह से  जनता के मन में गुस्सा तो बढ़ता ही है उससे भी ज्यादा राजनीति के बारे में अविश्वास का भाव उत्पन्न होता है। 1971 के लोकसभा चुनाव में अपनी ही पार्टी के भीतर संकट से घिरी इंदिरा जी ने जनताा के बीच जा-जाकर कहा कि मैं कहती हूं गरीबी हटाओ और विपक्षी कहते हैं इंदिरा हटाओ। देश की जनता ने उनकी बात पर भरोसा करते हुए उन्हें प्रचंड बहुमत दे दिया। लेकिन गरीबी हटना तो दूर अब तो गरीबी रेखा से नीचे वाली श्रेणी भी अस्तित्व में आ गई। यही हाल रोजगार का है। केंद्र की सत्ता में आई  हर सरकार ने बेरोजगारी मिटाने का वायदा तो किया किन्तु उसे पूरा करने में विफल रही। किसानों के साथ किये गए वायदे भी हवा-हवाई होकर रह गए। आज देश में जो अविश्वास और चौतरफा असन्तोष का वातावरण है उसका सबसे बड़ा कारण चुनावी वायदे पूरे न होना ही है। आजकल किसानों के कर्ज माफ  किया जाना चुनाव जीतने का नुस्खा बन गया है। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसे पूरा करने में तरह-तरह की परेशानियां आती हैं जिससे किसानों में गुस्सा बढ़ता है। गडकरी जी के जिस बयान पर दो दिनों से बवाल मचा है उसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने सत्ता में आने के बाद हर व्यक्ति को न्यूनतम आय देने का वायदा करते  हुए कह दिया कि उनके खाते में प्रति माह एक निश्चित राशि जमा कर दी जावेगी। कहा जा रहा है कि मोदी सरकार तीन दिन बाद पेश किए जाने वाले बजट में ऐसा ही प्रावधान करने वाली है। इसी के साथ किसानों के खाते में भी हर फसल के पहले तय रकम जमा करने का प्रावधान भी अपेक्षित है। गरीब लोगों को मिलने वाली विभिन्न सब्सिडी के एवज में  राशि उनके बैंक खाते में जमा किये जाने की उम्मीद भी जताई जा रही है। यदि वाकई मोदी सरकार ऐसा करती है तब उसके पीछे एकमात्र उद्देश्य लोकसभा चुनाव जीतना होगा। राहुल ने मनरेगा की चर्चा करते हुए कहा कि कांग्रेस ने 100 दिन का रोजगार सुनिश्चित किया था। जैसे-जैसे चुनाव करीब आएँगे वायदों की टोकरी और भी भरती जावेगी। प्रश्न ये है कि उन्हें पूरा करने की गारंटी क्या है? श्री गडकरी ने जो कहा उसका राजनीतिक निहितार्थ तो लोगों ने निकाल लिया लेकिन उसमें जो व्यवहारिक और सामयिक चेतावनी है उस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा और यही हमारी देश की सबसे बड़ी विडंबना है। चुनाव आयोग के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर चुनाव घोषणापत्र को हलफनामे के तौर पर लिए जाने की बात कही किन्तु राजनीतिक दल उसके लिए राजी नहीं हैं और आगे भी शायद ही होंगे क्योंकि उनका मकसद येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना मात्र है। यदि वे ईमानदार होते तो देश में नेताओं और राजनीति के प्रति इतनी वितृष्णा नहीं होती। उस दृष्टि से श्री गडकरी ने वायदे पूरे न होने पर जनता द्वारा पीटे जाने संबंधी जो बात कही उसे गम्भीरता से लिया जाना चाहिए क्योंकि पीटे जाने से आशय केवल सत्ता से हटाना मात्र नहीं बल्कि उसके आगे भी सम्भव है। समय आ गया है जब चुनावी वायदे करने की गारंटी का भी प्रावधान चुनाव आयोग रखे वरना राजनेताओं की पिटाई को रोकना असम्भव हो जाएगा। आखिर सहनशक्ति की भी कोई सीमा होती है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी