Thursday 24 January 2019

प्रियंका : ये तो होना ही था


आखिऱ वह हो गया  जो होना ही था। लम्बे  समय से इसकी सम्भावना बनी हुई थी। पहले क्यों नहीं हुआ ये सवाल जरूर पूछा जा सकता है किंतु इस फैसले से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी की बेटी और वर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी की बहिन प्रियंका वाड्रा को गत दिवस कांग्रेस का महासचिव बनाकर बिना देर किए पूर्वी उप्र का प्रभारी भी बना दिया गया। यद्यपि इसके पहले वे पार्टी में किस पद पर थीं ये शायद ही किसी को पता हो। लेकिन कांग्रेस और उप्र के लिए श्रीमती वाड्रा का राजनीति के अग्रभाग में आकर नेतृत्व करने से जरूर थोड़ा अचंभा है क्योंकि खुद इसी तरह कांग्रेस में शीर्ष पद तक आ पहुंचे राहुल पैराशूट से आने वालों के विरुद्ध बोलते रहे हैं। बहरहाल अब प्रियंका के साथ महासचिव का औपचारिक सम्बोधन जुड़ गया है वरना पार्टी की उच्च स्तरीय निर्णय प्रक्रिया में तो वे गत माह ही खुलकर शामिल हो चुकी थीं जब मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के मुख्यमंत्री चयन के समय वे सोनिया जी और राहुल के साथ न सिर्फ बैठीं वरन निर्णय करने में अपना मंतव्य भी खुलकर व्यक्त किया। सूत्रों के मुताबिक मप्र में कमलनाथ की ताजपोशी में प्रियंका की भूमिका निर्णायक रही थी। हालांकि रायबरेली और अमेठी में क्रमश: माँ और भाई के चुनाव प्रचार में वे मैदान में  दिखाई देती थीं किन्तु बाकी जगह कभी-कभार माँ के साथ दौरे में जाने के अलावा वे प्रचार से दूर ही रहीं। जबसे श्रीमती गांधी का स्वास्थ्य खराब हुआ है तबसे ही प्रियंका के रायबरेली से लडऩे की चर्चाएं चल पड़ी थीं। उस आधार पर कहा जा रहा था कि पहले वे सांसद बनेंगीं और फिर संगठन में उन्हें समाहित किया जाएगा। जब राहुल को कांग्रेस महासचिव , उपाध्यक्ष और अंत में अध्यक्ष बनाया गया तब भी ये बहस चली थी कि श्रीमती गांधी को उनकी जगह प्रियंका को आगे  बढ़ाना चाहिए था, जिनकी छवि और आकर्षण कहीं ज्यादा था किंतु स्व.इंदिरा गांधी और उनके पति स्व. फिरोज गांधी के बीच की अनबन की कड़वी यादों  ने सभवत: सोनिया जी को राहुल के जिम्मे विरासत सौंपने का प्रेरित किया। शुरुवाती लडख़ड़ाहट और विफलताओं के बाद यद्यपि अब वे बतौर राष्ट्रीय नेता स्थापित हो चुके हैं लेकिन ये बात भी दीवार पर लिखी इबारत जैसी साफ है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता जिस उप्र से होकर जाता है उसमें कांग्रेस की हालत दयनीय से भी बदतर है। मायावती और अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव हेतु गठबंधन करते हुए जिस तरह कांग्रेस के लिए रायबरेली और अमेठी सीट छोड़ दीं उसने राहुल की हैसियत को पलक झपकते कम कर दिया और प्रधानमंत्री बनने की उनकी सम्भावनाओं पर प्रश्नचिन्ह लग गया। चूंकि उप्र में पार्टी के पास एक भी चमकदार चेहरा ऐसा नहीं बचा जिसका प्रभाव 10 सीटों तक पर हो इसलिए आखिरकार प्रियंका को ही मैदान में उतारना पड़ा। यदि सोनिया जी का स्वास्थ्य कुछ अच्छा होता तब भी ये निर्णय चुनाव बाद के लिए टल जाता लेकिन हालात की मजबूरियों और समय की कमी के चलते गांधी परिवार के पास इस अंतिम उपाय को जिसे ब्रह्मास्त्र कहकर प्रचारित किया जा रहा है, इस्तेमाल करने के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं था। इस निर्णय की जरूरत उप्र में कांग्रेस के जमीन छू चुके मनोबल को ऊपर उठाने के लिए कितनी ज्यादा थी इसका प्रमाण यही  है कि प्रियंका के विदेश में होते हुए ही उन्हें महामंत्री बनाने की घोषणा करते हुए पूर्वी उप्र का प्रभार भी उनके हवाले कर दिया गया। इस निर्णय के बाद अब कांग्रेस नेहरू - गांधी युग से निकलकर गांधी - वाड्रा दौर में आ गई है। प्रियंका को कमान दिए जाने के कुछ दिन  पहले ही उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के भूमि घोटाले के आरोप पत्र अदालत में पेश हो चुके हैं तथा उन्हें सम्मन भी जारी हो गए हैं। अचानक प्रियंका के राजनीति में आरोहण के पीछे अदालती कार्रवाई भी हो सकती है जिससे समूचे आरोपपत्र को सियासी साबित करने का चिर परिचित खेल खेला जा सके। रही बात प्रियंका की तो पहली परीक्षा सपा -बसपा गठबंधन में कुछ ज्यादा हिस्सा प्राप्त करने से होगी। कहते हैं अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल और प्रियंका के बीच मित्रता है जिसके कारण ही 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल ने सपा से गठबंधन किया था। यदि प्रियंका उसमें सफल नहीं हुईं तब उन्हें पूर्वी उप्र में पार्टी को लडऩे लायक बनाना होगा जो अभी अखाड़े से ही बाहर है। ये चुनौती बहुत बड़ी है। हो सकता है अपने पुश्तैनी आभामण्डल की वजह से श्रीमती वाड्रा रायबरेली से जीत जाएं और अमेठी में राहुल की मददगार बनें किंतु मौजूदा हालात में उप्र में कांग्रेस को कोमा से निकलना असम्भव सा ही है। भाजपा और अन्य दलों ने प्रियंका के राजतिलक पर जो कहा वह अपनी जगह ठीक है क्योंकि  उनकी एकमात्र योग्यता अभी तक तो सोनिया जी की बेटी और राहुल की बहिन होना ही है। रही बात परिवारवाद की तो कांग्रेस ने जब इसे अपनी संस्कृति और परंपरा बना लिया तब किसी और के ऐतराज करने का औचित्य ही नहीं रह जाता। लेकिन इससे ये बात भी उभरकर सामने आ गई कि कांग्रेस के उच्च नेतृत्व में बैठे तमाम अनुभवी नेताओं की अपेक्षा गांधी परिवार अभी भी अपने खून पर ही विश्वास करता है जो राजघरानों की संस्कृति होती है। प्रियंका आकर्षक व्यक्तित्व और आक्रामक अंदाज के लिए जानी जाती हैं। बहुत लोगों को वे उनकी दादी इंदिरा जी जैसी भी लगती हैं किन्तु राजनीति में उनका विधिवत पदार्पण प्रौढ़ शिक्षा वाली शैली में हुआ है। देखना है वे लोकसभा चुनाव रूपी पहली परीक्षा में क्या कर पाती हैं? लेकिन यदि असफल रहीं तब भी उनका कुछ नहीं बिगडऩे वाला क्योंकि कांग्रेस में उनके परिवार को हर तरह के दोषों से स्थायी मुक्ति दे दी गई है। उनके साथ ही मप्र के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी महामंत्री बनाकर पश्चिमी उप्र सौंप दिया गया किन्तु वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है। पार्टी हाईकमान उन्हें मप्र से हटाना चाह रहा था क्योंकि मुख्यमंत्री कमलनाथ के लिए वे सिरदर्द बन सकते थे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment