Monday 7 January 2019

दलों के दलदल में प्रतिष्ठा खोती राजनीति

लोकसभा चुनाव के पहले विभिन्न राजनीतिक दलों में गठबंधन की प्रक्रिया चल रही है। कांग्रेस चाहती है कि भाजपा विरोधी सभी पार्टियां उसके साथ खड़ी हो जाएं जिससे नरेंद्र मोदी को दोबारा सत्ता में आने से रोका जा सके। इस मुहिम को महागठबंधन का नाम दिया जा रहा है। गत वर्ष उप्र में हुए दो उपचुनावों में सपा-बसपा गठबंधन की वजह से भाजपा को करारी हार झेलनी पड़ी। कांग्रेस भी उस प्रयास में सहभागी बनी।  उसके बाद ये बात तो साफ हुई कि भाजपा विरोधी मतों का विभाजन रोककर उसे हराया जा सकता है किंतु उसके बाद मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के रवैये से क्षुब्ध सपा और बसपा ने अलग होकर चुनाव लड़ा।  छत्तीसगढ़ में तो मायावती ने अजीत जोगी से गठजोड़ किया। संयोगवश मप्र और राजस्थान में त्रिशंकु की स्थिति बनने से कांग्रेस को सपा और बसपा का समर्थन लेना पड़ा लेकिन जैसी कि खबरें आ रही हैं उनके अनुसार दोनों ही पार्टियां उप्र में कांग्रेस को बराबरी से बिठाने के लिए राजी नहीं हैं। महागठबंधन को राष्ट्रीय स्वरूप देने में सोनिया गांधी के प्रयास अभी तक तो सफल नहीं दिख रहे। हालांकि आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी का कांग्रेस के साथ आना भाजपा के लिए बड़ा झटका है लेकिन तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव द्वारा तीसरे मोर्चे की जो कोशिशें की जा रही हैं उनसे महागठबंधन को अपेक्षित ताकत नहीं मिल पा रही। बंगाल में ममता बैनर्जी और उड़ीसा में नवीन पटनायक हैं तो भाजपा विरोधी लेकिन वे कांग्रेस के साथ आने भी राजी नहीं हैं। यही स्थिति शिव सेना की है जो भाजपा से खार खाए बैठी है किंतु महाराष्ट्र में वह कांग्रेस और एनसीपी से भी हाथ नहीं मिला रही। बिहार में जरूर महागठबंधन आकार ले रहा है लेकिन उसका वैसा वृहद स्वरूप नहीं बन पाया जैसा कांग्रेस चाहती है। दूसरी तरफ  भाजपा के नेतृत्व में बना एनडीए भी 2014 वाली स्थिति में नहीं रहा। तेलुगु देशम और शिवसेना नामक दो बड़े धड़े उसे छोड़कर चलते बने वहीं बिहार में कुर्मियों के नेता उपेंद्र कुशवाहा ने भी सरकार और गठबंधन छोड़ दिया। हालांकि बिहार में नीतीश के साथ आ जाने से भाजपा को बल मिला है किन्तु एनडीए में शरीक अन्य छोटी पार्टियां जिस तरह से आये दिन उसे धमकाया करती हैं उससे भाजपा के दबदबे में भी कमी दिख रही है। रामविलास पासवान ने भाजपा नेतृत्व को जिस आसानी से घुटनाटेक करवाया उससे बाकी छोटी दलों की हिम्मत भी बढ़ गई। इस प्रकार ये स्पष्ट हो गया है कि गठबंधन के नाम पर सिद्धान्तों और नीतियों की राजनीति को तिलांजलि दे दी गई है। सारा ध्यान किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने पर केंद्रित होकर रह गया है। हालांकि यह भी सही है कि भारत सदृश विविधता भरे देश में  कोई राजनीतिक विचार या सोच सबको स्वीकार हो ये जरूरी नहीं है लेकिन दूसरी ओर ये भी सही है कि राष्ट्रीय पार्टियों के कमजोर होने से क्षेत्रीयतावाद को बढ़ावा मिल रहा है। 1956 में भाषावार राज्यों के गठन के बाद अलग पहिचान बनाने के फेर में राजनेताओं ने जो सियासत शुरू की उसकी विषबेल पूरे देश में फैल गई। इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि राष्ट्रीय हितों पर प्रादेशिक स्वार्थ हावी होने लगे। क्षेत्रीय दलों द्वारा शासित राज्यों की सरकार केंद्र से जिस तरह पेश आती है उससे कभी-कभी लगता है मानों वह किसी और देश की हों। इस समय गठबंधन की जो प्रक्रिया राष्ट्रीय स्तर पर चल रही है उसके पीछे सत्ता में हिस्सेदारी ही एकमात्र उद्देश्य है। रामविलास पासवान और नीतीश कुमार भले ही भाजपा के साथ हों लेकिन वे राम मन्दिर को चुनावी मुद्दा बनाने को राजी नहीं हैं। नीतीश ने तो राज्यसभा में तीन तलाक विधेयक पर भाजपा का समर्थन करने से भी इंकार कर दिया। कुल मिलाकर दलों के दलदल में फंसकर राजनीति अपनी प्रतिष्ठा और पवित्रता दोनों खोती जा रही है। लेकिन ये भी सही है कि जिस तरह से क्षेत्रीय ताकतें ताकतवर होती जा रही हैं उसे देखते हुए कांग्रेस या भाजपा का अपनी दम पर सरकार बना लेना कठिन होता जा रहा है। 2014 में मोदी लहर के चलते भाजपा ने लोकसभा में 282 सीटें हासिल कर स्पष्ट बहुमत तो पा लिया किंतु उसके पीछे गठबंधन की ताकत भी थी। राज्यों के भीतर भले ही कांग्रेस और भाजपा अपने बलबूते सता हासिल कर लें लेकिन संसद के चुनाव में उन्हें छोटे दलों से हाथ मिलाना ही पड़ेगा। दुर्भाग्य ये भी है कि राष्ट्रीय दल के तौर पर तो दो पार्टियां यद्यपि हैं किंतु ऐसे राष्ट्रीय नेता का सर्वथा अभाव हो गया है जिसका सम्मान और स्वीकृति पूरे देश में हो। इंदिरा जी और अटल जी जैसे नेताओं की कल्पना तक अब करना कठिन हो गया है। ये स्थिति कब बदलेगी या सुधरेगी कह पाना मुश्किल है क्योंकि कोई भी दल सत्ता का मोह छोडऩे को तैयार नहीं है। सैद्धांतिक पहिचान और नीतिगत अंतर भी अतीत की बात होकर रह गए हैं। चुनाव जीतने के लिए नीतियों के प्रचार से ज्यादा मुफ्त उपहार पर जोर दिया जाता है। प्रश्न ये है कि क्या ये स्थिति देश के हितों को सुरक्षित रख सकेगी क्योंकि राष्ट्रीय महत्व के अनेक विषयों पर फैसला ही नहीं हो पा रहा। यहां तक कि न्यायपालिका पर भी राजनीति की छाया पडऩे लगी है। आगामी लोकसभा चुनाव में किसकी सरकार बनेगी इससे ज्यादा जरूरी ये है कि जो भी दल या गठबंधन सत्ता में आए वह क्षणिक स्वार्थ सिद्ध करने की बजाय दूरगामी राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर काम करे। वर्तमान परिदृश्य तो निराशा उत्पान करने वाला है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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