Wednesday 16 January 2019

संदर्भ कर्नाटक : अब तो हमाम के बाहर भी ......

कर्नाटक में राजनीतिक अस्थिरता का आलम है। भाजपा गत वर्ष हुए चुनाव में 105 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी लेकिन बहुमत के लिए जरूरी 113 के आंकड़े को वह नहीं छू पाई क्योंकि पूरे परिणाम आने के पहले ही कांग्रेस ने भाजपा को रोकने की खातिर जनता दल (एस) को बिना शर्त समर्थन देकर पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद दे दिया। हवा का रुख देखकर बसपा का एक और दो निर्दलीय भी उसी तरफ हो लिए। सबसे बड़े दल के रूप में राज्यपाल ने भाजपा को सरकार बनाने का अवसर देते हुए 15 दिन का समय बहुमत साबित करने के लिए दिया। इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील हुई जिसने रात में बैठकर फौरन बहुमत साबित करने का फैसला दिया। मुख्यमंत्री बने येदियुरप्पा इसमें विफल रहे और कुमारस्वामी की ताजपोशी भी हो गई। जैसा होता है ठीक वैसे ही कांग्रेस और जनता दल (एस) के बीच मंत्री पद और विभागों को लेकर चों-चों भी चली लेकिन फिर बात बन गई। लेकिन जो मंत्री नहीं बन सके उनके मन में कसक बनी रही और रह-रहकर पाला बदलने की अटकलें लगती रहीं। दलबदल कानून से बचने के लिए सबसे आसान लक्ष्य चूंकि कुमारस्वामी का कुनबा ही है क्योंकि उसके 39 में से 13 विधायक तोडऩे पर उनकी सदस्यता सुरक्षित रहेगी। इसलिये भाजपा ने उसके भीतर सेंध लगाने के कई प्रयास किये लेकिन वार खाली जाते रहे और किरकिरी भी हो गई। हालांकि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कुमारस्वामी और कांग्रेस का गठबंधन तकरीबन तय हो चुका है लेकिन मंत्री पद को लेकर असंतोष बना रहा। बीते दो-तीन दिनों में कर्नाटक में जोड़तोड़ रूपी नाटक का मंचन फिर शुरू हो गया है। कुछ कांग्रेसी विधायकों के मुंबई जाकर बैठ जाने से हलचल मची। पता चला वे भाजपा की मेजबानी का लुत्फ उठा रहे हैं। उधर कांग्रेस ने भी दबाव बढ़ाया तो भाजपा ने अपने सभी 104 विधायक दिल्ली के पास गुरुग्राम के एक पांच सितारा रिसॉर्ट में भेज दिए। दोनों तरफ  से खरीद फरोख्त के आरोप होने लगे। इस बीच खबर आ गई कि दो निर्दलीय विधायकों ने सरकार से समर्थन वापिस लेने का पत्र विधानसभा अध्यक्ष को भेज दिया। इससे सरकार को खतरा नहीं होगा लेकिन आज खबर आ रही है कि जनता दल (एस) के 13 विधायक भाजपा ने पटा लिए हैं। यदि ऐसा हुआ तब सरकार का गिरना तय हो जाएगा और लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा अपनी सरकार बना ले जाएगी। हालांकि अभी नाटक का चर्मोत्कर्ष बाकी है लेकिन जो कुछ भी चल रहा है उसकी वजह से संसदीय प्रजातंत्र बाजारवादी संस्कृति का हिस्सा प्रतीत हो रहा है। इसके लिए दोषी कौन है इसका निर्णय करना आसान नहीं है क्योंकि नाटक के सभी पात्र खलनायक की तरह पेश आ रहे हैं। चुनाव के दौरान एक दूसरे के विरुद्ध जहर उगलने वाली कांग्रेस और जनता दल (एस) ने जिस तरह से गठबंधन किया उसके पीछे कोई सिद्धांत न होकर केवल भाजपा को रोकने का उद्देश्य था। भले ही भाजपा को बहुमत नहीं मिला किन्तु जनादेश उसके पास ही था। लेकिन राजनीतिक छुआछूत के कारण वह सत्ता में आने के बाद भी विपक्ष में बैठने बाध्य हो गई। कांग्रेस ने जिस तरह अपने से लगभग आधी सीटें जीतने वाले कुमारस्वामी को तश्तरी में रखकर मुख्यमंत्री पद दिया उसे जनादेश के पालन की बजाय बिना शर्त आत्मसमर्पण कहना सही होगा। दूसरी तरफ जब भाजपा को शुरुवात में ही पता चल चुका था कि वह सँख्या बल जुटाने में सफल नहीं हो सकी तब येदियुरप्पा को बजाय जल्दबाजी करने के प्रतीक्षा करना था। उस स्थिति में कांग्रेस-जनता दल (एस) की सरकार बनने के बाद भी अपने अंतर्विरोधों के चलते टूट जाती और जनता के मन में भाजपा के प्रति सहानुभूति और सम्मान भी बढ़ता। वर्तमान माहौल में भी दोनों खेमे जिस तरह से छापामार शैली का नजारा पेश कर रहे हैं  वह किस तरह की राजनीति है ये समझ से परे है। कांग्रेस के जो विधायक मुंबई में बैठकर भाजपा के साथ बड़ा-पाव खा रहे हैं वे दूध पीते बच्चे तो हैं नहीं। ज़ाहिर है वे सत्ता की चाहत में छटपटाते हुए वहां पहुंचे। दूसरी तरफ जिन दोनों निर्दलीयों ने गत दिवस सरकार से समर्थन वापिस लिया उनका हृदय परिवर्तन भी अचानक और अकारण हुआ ये भी कोई नहीं मानेगा। इससे भी बढ़कर बात ये है कि भाजपा को अपने 104 विधायक बटोरकर बेंगलुरु से गुरुग्राम की ऐशगाह में ले जाने की जरूरत क्यों पड़ गई? यदि वे पार्टी भक्त हैं तब उनसे क्या खतरा और बिकाऊ हैं तब उन्हें कितना भी बचाकर रखा जाए मौका पाते ही निकल भागेंगे। सत्ता के इस खेल में नौतिकता रूपी वस्त्र इस हद तक उतर चुके हैं कि अब कोई भी अन्य वस्तु राजनेताओं के वैचारिक नंगेपन को ढंक नहीं पा रही। राजनीतिक गठबंधन व्यापारिक सौदों की तरह होते जा रहे हैं। सत्ता की वासना में चरित्र का चीरहरण साधारण बात बन गई है। येन केन प्रकारेण पद और उससे जुड़ी झूठी प्रतिष्ठा को प्राप्त कर स्वयं को महिमामंडित करने की अंधी दौड़ ने पूरे समाज की सोच को इस हद तक प्रभावित कर दिया है कि बेईमान और ईमानदार के बीच अंतर करना बहुत कठिन हो गया है। कर्नाटक के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम का पटाक्षेप क्या और कब होगा ये तो उसके पात्र ही जानें लेकिन इन सबसे संसदीय लोकतंत्र के साथ जो गंदा मजाक हो रहा है वह निम्नस्तर से भी नीचे जा चुका है। हमाम में सभी के निर्वस्त्र होने वाली कहावत भी इन राजनेताओं के बारे में अब सही नहीं बैठती क्योंकि ये तो हमाम के बाहर भी शर्मो-हया नामक वस्त्र उतारकर देखने वालों को आंखें बंद कर लेने को मजबूर कर रहे हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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