Monday 28 January 2019

भारत रत्न : प्रणब दा पर बेवजह विवाद

भारत रत्न देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है। आज़ादी के बाद से दर्जनों विभूतियों को इससे अलंकृत किया जा चुका है।  पहले तो किसी ने कोई सवाल नहीं उठाये लेकिन बीते कुछ सालों से ये अलंकरण भी विवादों के घेरे में आ गया है। हालांकि ज्यादा विवाद पद्म अलंकरणों को लेकर होता रहा। ऊंची पहुंच रखने वाले कतिपय लोग बाकायदा जुगाड़ लगाकर पद्मश्री और उससे ऊपर के सम्मान हासिल कर लिया करते थे। इसकी वजह से इन सम्मानों को समाप्त करने की मांग भी उठने लगी। लेकिन मोदी सरकार ने इन अलंकरणों के लिए चयन प्रक्रिया को अत्यंत पारदर्शी बना दिया जिसकी वजह से समाज में रचनात्मक और उत्कृष्ट कार्य कर रहे ऐसे लोगों की झोली में भी पद्म सम्मान आने लगे जो प्रसिद्धि और प्रचार से दूर रहकर नेकी के कार्य में जुटे रहते हैं। इस साल भी ऐसे कई व्यक्तित्व पद्म सम्मान से अलंकृत हुए जिनके कृतित्व को लेकर अभी तक लोग या तो बहुत कम जानते थे या फिर जानते ही नहीं थे। हालांकि कुछ नाम ऐसे जरूर शामिल हो जाते हैं जो इस चयन प्रक्रिया में भी अपने लिए गुंजाइश निकाल लेते हैं। बावजूद उसके ये कहना पूरी तरह से सही होगा कि 2014 के बाद से पद्म सम्मानों में पारदर्शिता आई है जिससे इनकी सार्थकता और प्रतिष्ठा दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। लेकिन भारत रत्न को लेकर अभी भी नाक सिकोडऩे वाले कम नहीं हैं। जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी और स्व. पं मदन मोहन मालवीय को मोदी सरकार ने भारत रत्न दिया तब बसपा नेत्री मायावती ने उसमें भी ब्राह्मण तत्व निकालकर आलोचना कर डाली। उसके पूर्व भी भारत रत्न को लेकर विवाद उठ चुके थे। क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को जब यह मिला तबये सवाल उठा था कि हॉकी के जादूगर स्व. मेजर ध्यानचंद को उनसे पहले वह सम्मान दिया जाना चाहिए था जो आज तक नहीं मिला। इसी तरह के सवाल तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन और सितार वादक पं रविशंकर को भारत रत्न मिलने पर भी उठे थे। एक प्रश्न ये भी अक्सर उठता रहा कि विभिन्न सरकारें अपनी पसंद की विभूतियों को राजनीतिक नफे के आधार पर उपकृत करती रही हैं। क्षेत्रीयता भी कहीं न कहीं भारत रत्न की चयन प्रक्रिया को प्रभावित करती रही। पं मालवीय को भारत रत्न दिए जाने पर उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी से सांसद होने से जोड़ा गया। यही बात इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या में  भारत रत्न से अलंकृत किये जाने वाली विभूतियों के नामों की घोषणा के बाद सुनाई दी। पूर्वोत्तर राज्यों में अपने गायन से एक विशिष्ट छवि बना चुके स्व. भूपेन हजारिका और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न दिए जाने को आगामी लोकसभा चुनाव में पूर्वोत्तर राज्यों और बंगाल के मतदाताओं की क्षेत्रीय भावनाओं को भुनाने से जोड़ा गया। वहीं राजनीति छोड़कर चित्रकूट में ग्रामीण विकास का आदर्श मॉडल खड़ा करने वाले स्व. नानाजी देशमुख को अलंकृत किये जाने को रास्वसंघ को प्रसन्न करना माना गया। स्व.हजारिका और स्व.देशमुख तो इस दुनिया में नहीं हैं इसलिए उन्हें लेकर तो ज्यादा बवाल नहीं मचा किन्तु प्रणब मुखर्जी जरूर लपेटे में आ गए। पहली प्रतिक्रिया तो भाजपा द्वारा बंगाल के लोगों को खुश करने की कोशिश के तौर पर सामने आई। जीवन भर कांग्रेसी रहे प्रणब दा को भाजपा सरकार द्वारा देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिए जाने के निर्णय को एक वर्ग विशेष ने राजनीतिक सौजन्यता से जोड़कर भी देखा  लेकिन सोशल मीडिया में श्री मुखर्जी को मिले सम्मान को गत वर्ष उनके रास्वसंघ के आयोजन में नागपुर जाने का पुरस्कार बताया जाने लगा। बात और आगे बढ़ी तो उन्हें अनिल अंबानी का निकटस्थ बताकर इंदिरा जी के दौर को उजागर किया जाने लगा , जब प्रणब दा की सरपरस्ती में स्व. धीरुभाई अम्बानी नामक एक धूमकेतु देश के औद्योगिक जगत में उभरा और टाटा - बिरला जैसे स्थापित दिग्गजों के समकक्ष खड़ा हो गया। चौकाने वाली बात ये देखी गई कि श्री मुखर्जी को भारत रत्न दिए जाने पर उस तबके से भी आपत्तियां और आलोचनाएं व्यक्त की गईं जो उसके पहले तक उन्हें अनुभवी राजनेता, विद्वान और शालीनता की प्रतिमूर्ति कहते नहीं थकता था। इनमें वे लोग भी शामिल रहे जिहोंने प्रणब दा के उस भाषण को साहसिक बताकऱ उसकी शान में कसीदे पढ़े जो उन्होंने नागपुर में रास्वसंघ के मंच से दिया था। उल्लेखनीय है जब श्री मुखर्जी ने हिन्दू संगठन का आमंत्रण स्वीकार कर नागपुर जाने का निर्णय लिया तब उनकी बेटी और दिल्ली में कांग्रेस प्रवक्ता शर्मिष्ठा तक ने उस पर ऐतराज जताया था। कुछ कांग्रेस नेताओं ने भी अपने - अपने तरीके से मुंह चलाया लेकिन श्री मुखर्जी ने जब अपने लिखित भाषण में भारत के इतिहास में वर्णित समन्वयवादी दृष्टिकोण और नेहरूवादी नीतियों की प्रशंसा की तो आलोचना प्रशंसा में बदल गई। टीवी चैनलों में भी उनके भाषण को लेकर रास्वसंघ का खूब मजाक उड़ाया गया। उसके बाद भी श्री मुखर्जी के कई ऐसे बयान आए जो मोदी सरकार और भाजपा को असहज लगने वाले थे। लेकिन ज्योंहीं उन्हें भारत रत्न दिए जाने की जानकारी सार्वजनिक हुई त्योंही उनकी समूची पुण्याई , विद्वता और वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए जाने लगे। मजेदार बात ये रही कि कांग्रेसी और वामपंथी विचारधारा के समर्थक भाजपा को इस बात का उलाहना देने लग गए कि जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को अभी तक भारत रत्न नहीं दिया गया। वाकई ये बड़ी ही विचित्र स्थिति है क्योंकि जिस विचारधारा ने श्री मुखर्जी को राष्ट्रपति पद पर बिठाया उसे उनको भारत रत्न मिलना हजम नहीं हो रहा और जिन लोगों ने उस समय उनका विरोध किया उस विचारधारा की सत्ता  उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान से अलंकृत कर रही है। कुछ दशक पूर्व जब पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने स्व.अटल बिहारी वाजपेयी को पद्म विभूषण दिया तब इस तरह की कोई बात सामने नहीं आई। ऐसे में श्री मुखर्जी के अलंकृत होने को रास्वसंघ के आयोजन में जाने , अम्बानी से निकटता और बंगाल के मतदाताओं को प्रभावित करने के प्रयास जैसी बातों से जोडऩा उस सहिष्णुता के ही विरुद्ध है जिसके लिए बीते समय में आसमान सिर पर उठाया जाता रहा। हमारे देश में राष्ट्रपति पद से निवृत्त व्यक्ति के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने की परिपाटी रही है। केंद्र सरकार ने उस दृष्टि से श्री मुखर्जी का चयन करते हुए जिस सौजन्यता का परिचय दिया उसका स्वागत होना चाहिये। प्रणब दा के अलावा भारत रत्न से अलंकृत स्व.नानाजी देशमुख और स्व.भूपेन हजारिका भी इस सम्मान के सर्वथा योग्य कहे जाएंगे। अच्छा होता आलोचक समुदाय बजाय रायता फैलाने के  इन विभूतियों के कृतित्व की चर्चा करता जिससे किसी को ये सोचने का अवसर भी नहीं मिलता कि वे किस क्षेत्र या विचारधारा से जुड़े थे?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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