Saturday 19 January 2019

वांग्चुक ने सही कहा लेकिन मानेगा कौन

लद्दाख सरीखे दुर्गम क्षेत्र में जहां हर तरह की विषम परिस्थितियां जीवन को कष्टमय बनाती हों वहाँ शिक्षा, जल संग्रहण, पर्यावरण और सौर ऊर्जा जैसे अति महत्वपूर्ण विषयों पर उल्लेखनीय कार्य करने वाले डॉ. सोनम वांग्चुक को साधारणतया कम लोग जानते हैं लेकिन लद्दाख जैसे परंपरावादी बौद्ध संस्कृति प्रभावित इलाके में अपने सुधारवादी कार्यक्रमों से उन्होंने दुनिया का ध्यान खींचने में सफलता हासिल की और धीरे-धीरे वे एक रोल मॉडल बन गए। गत दिवस वे मप्र के प्रशासनिक अधिकारियों को सम्बोधित करने भोपाल आए जहां उन्होंने अफसरशाहों के समक्ष विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे। उनका पूरा का पूरा व्याख्यान अत्यंत प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय था लेकिन अन्य बातों को छोड़ केवल एक बिंदु जो उन्होंने छुआ, यदि उसी पर हमारा प्रदेश चल सके तो आने वाले पाँच साल में मप्र की तकदीर और तस्वीर दोनों सँवर सकती है। सोनम ने नेताओं और अफसरों के बच्चों के सरकारी विद्यालय में पढऩे की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि इसका क्रांतिकारी असर होगा क्योंकि तब इन विद्यालयों में शिक्षा सहित अन्य आवश्यक मानदंडों का पालन करवाने के प्रति नेता और अधिकारीगण चिंतित रहेंगे। सोनम की अन्य बातों को तो उपस्थित प्रशासनिक अधिकारियों ने कागज और मन में उतार लिया होगा और वे नई सरकार को खुश करने की होड़ में शीघ्र ही लद्दाख मॉडल की नकल करने वाली योजनाएं लेकर खड़े भी हो जाएंगे। उसका प्रत्यक्ष अवलोकन करने अफसरों के दल सरकारी खर्च पर सपरिवार लद्दाख  में सैर-सपाटे पर निकल जाएंगे लेकिन श्री वांग्चुक के भाषण में सरकारी विद्यालयों में नेताओं और अधिकारियों के बच्चों के एक साथ पढऩे सम्बंधी जो सुझावनुमा अपेक्षा व्यक्त की गई उस पर शायद ही अमल होगा  क्योंकि ऐसा होने पर लोकतंत्र के इन सामन्तों की शान में बट्टा लग जायेगा। ऐसा नहीं है कि सोनम भारत में ऐसा कहने वाले पहले व्यक्ति हों। उनके पूर्व भी इस आशय का सुझाव अनेक लोग दे चुके हैं। अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो बाकायदा एक आदेश में उन सरकारी अधिकारियों की सुविधाओं में कटौती करने कहा था जो अपने बच्चे महँगे निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं। गत दिवस एक केंद्रीय मंत्री के बीमारी की जांच हेतु विदेश जाने पर काफी टीका-टिप्पणी हुईं। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा का चि_ा भी सामने आया लेकिन भोपाल में प्रदेश के साहेब बहादुरों के प्रबोधन कार्यक्रम में लद्दाख के इस सुधारवादी ने शिक्षा के स्तर को सुधारने का जो सरलतम तरीका बताया यदि उस पर मुख्यमंत्री ध्यान देकर प्रभावी कदम उठाएं तो मप्र पूरे देश के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकेगा और तब कृष्ण और सुदामा के एक साथ शिक्षा प्राप्त करने जैसी आदर्श व्यवस्था पुनर्जीवित हो सकेगी। लेकिन प्रश्न ये है कि असली समाजवाद को लागू करने का बीड़ा उठाएगा कौन? नेताओं और अफसरों की रुचि तो श्री वांग्चुक द्वारा सुझाये उन प्रकल्पों में ज्यादा रहेगी जिनको लागू करने में करोड़ों का खर्च हो जिससे उन्हें भी खुरचन मिल सके। अब यदि टाट पट्टी वाले पिछड़ी बस्तियों में स्थित सरकारी विद्यालयों में नेताजी और साहबों के बाबा-बेबी पढऩे जाने लगे तो फिर न नेता जी, नेता जैसा रौब दिखा सकेंगे और न ही साहेब बहादुरों की साहबी बरकरार रहेगी। सरकारी अस्पताल और विद्यालय केवल गरीब और मध्यम वर्ग के लिए रह गए हैं। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि जो भी वहां जाता है वह उसकी मजबूरी ही होती है। शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी प्रगति के प्रति किसी भी सरकार को ईमानदारी से  व्यवस्था करनी चाहिए। दुर्भाग्य से बीते सत्तर वर्ष में इस बारे में पूरी तरह दुर्लक्ष्य किया गया। सोनम वांग्चुक आधुनिक युग के सुधारवादी हैं लेकिन यही तो गांधी, लोहिया, दीनदयाल, विनोबा, जयप्रकाश जैसे लोगों ने कहा था। कांशीराम, मुलायम, शरद यादव, लालू, पासवान, मायावती जैसे राजनीति के धुरंधरों की वैचारिक पृष्ठभूमि भी तो जिस सामाजिक न्याय की परिकल्पना से जुड़ी हुई है वह केवल जातिगत नहीं अपितु अवसर की समानता की पैरोकार भी है। आम्बेडकर जयंती के दिन किसी गऱीब और अष्पृश्य माने जाने वाले की झोपड़ी में बैठकर भोजन करने के चित्र प्रसारित करने से यदि जातिवाद और सामाजिक भेदभाव मिटता होता तो रामराज कब का आ जाता लेकिन  हुआ उल्टा। भले ही संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द शामिल कर लिया गया हो किंतु संविधान की रक्षा के आधुनिक चिंतक क्या समाजवाद का भावार्थ और निहितार्थ समझते हैं? यदि मप्र की क़मलनाथ सरकार श्री वांग्चुक की अपेक्षानुसार नेताओं और नौकरशाहों से ये अनुरोध करे कि वे अपने बच्चों या नाती -पोतों को सरकारी पाठशाला में पढ़ाएं तो देखने वाली बात ये होगी कि उसे कितने लोग स्वीकार करेंगे। मप्र के ही किसी जिले के जिलाधिकारी ने अपने बच्चे को शासकीय पाठशाला में दाखिल करवाया तो समाचार बन गया था। दरअसल श्री वांग्चुक का सुझाव बहुत ही व्यवहारिक है। यदि सरकारी शिक्षण संस्थानों में नेताओं और अधिकारियों के नौनिहाल पढ़ाई करेंगें तब निश्चित रूप से उनका कायाकल्प होते देर नहीं लगेगी। उसकी वजह से विद्यालय में नहीं आने वाले गरीबों के बच्चे भी आकर्षित होंगे। मध्यान्ह भोजन का स्तर भी सुधर जाएगा तथा शेष दुरावस्था भी पलक झपकते दूर हो जाएगी। ऐसा ही सरकारी अस्पतालों को लेकर भी हो सकता है। लेकिन कम बुद्धि वाला भी बता देगा कि ऐसा होना मुंगेरीलाल के सपनों जैसा है। हमारे देश ने आज़ादी के समय जिस समाज की कल्पना की थी वह कल्पनालोक से बाहर नहीं आ सका। नेता-नौकरशाह गठजोड़ के रूप में एक नया श्रेष्ठि वर्ग पैदा हो गया। राजा-महाराजाओं को मिलने वाली सुख-सुविधाएं इन नव सामन्तों ने अपने नाम कर लीं। रेल में भले ही थर्ड क्लास खत्म हो गई हो लेकिन समाज में उसे जिंदा रखा गया है। सब्सिडी के नाम पर उद्यमशीलता की भू्रणहत्या को समाजवाद का शॉर्टकट मानकर वोटों की फसल लहलहाने को ही सफलता और विकास का पैमाना मान लिया गया है। ये देखते हुए डॉ. सोनम वांग्चुक के प्रेरणादायक वक्तव्य से यदि दस-बीस नेता और अधिकारी भी प्रभावित हो जाएं तो वह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। लेकिन ये बात भी गौरतलब है कि भाषण सुनकर देश सुधरता होता तो ये दिन क्यों देखने पड़ते?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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