Friday 18 January 2019

इलाज : नेता और जनता में फर्क क्यों

राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और कटाक्ष अपनी जगह होते हैं किंतु किसी की बीमारी को इस सबसे परे रखकर शालीनता बनाये रखना चाहिए। विगत दिवस भाजपा अध्यक्ष अमित शाह स्वाइन फ्लू के चलते दिल्ली के एम्स में  दाखिल हो गए और उसी के साथ खबर आई  वित्त मंत्री अरुण जेटली के इलाज हेतु अमेरिका जाने की। कुछ माह पूर्व हुए किडनी प्रत्यारोपण के बाद उन्हें कैंसर होने की आशंका व्यक्त किये जाते ही वे जांच हेतु अमेरिका रवाना हो गए। सामान्य स्थितियों में शायद बात दबी भी रहती लेकिन उनके द्वारा अंतरिम बजट प्रस्तुत नहीं किये जाने की खबर से उनकी बीमारी की गम्भीरता महसूस की गई और उसके बाद शुरू हो गया टीका-टिप्पणियों का दौर। एक कांग्रेस नेता ने भाजपा अध्यक्ष की बीमारी को सुअरों से जुड़ा बताया तो जवाब में भाजपा समर्थक कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष की बीमारी की गोपनीयता को लेकर तरह-तरह की बातें करने लगे। अक्ल के अजीर्ण से ग्रसित कुछ लोगों ने हाल ही में भाजपा के शीर्ष नेताओं की बीमारी के साथ-साथ एक केंद्रीय मंत्री की कैंसर से मृत्यु पर भी अपने-अपने ढंग से कटाक्ष किये। वित्त मंत्री की बीमारी को उनकी कथित जनविरोधी नीतियों का दंड बताने वाले भी कई सामने आ गए। जवाब में इंदिरा जी और राजीव जी की हत्या पर भी वैसी ही स्तरहीन टिप्पणियां की गईं। बताने की जरूरत नहीं कि इस पूरे युद्ध का अधिकाँश भाग सोशल मीडिया रूपी रणभूमि पर लड़ा जा रहा है। किसी भी सभ्य समाज में इस तरह की सोच को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में वैचारिक मतभेदों के बावजूद शत्रुता के भाव को कोई स्थान नहीं दिया जा सकता। कांग्रेस के जिस नेता ने अमित शाह की बीमारी को सुअर से जोड़ा वे अच्छी मानसिकता के नहीं कहे जा सकते। ऐसा ही उन भाजपाइयों के बारे में कहना गलत नहीं होगा जिन्होंने श्रीमती गांधी की बीमारी पर अनर्गल बातें कहीं। लेकिन इस पूरी बहस में एक मह्त्वपूर्ण बात जो उभरकर सामने आई वह है राजनेताओं के विदेश जाकर इलाज करवाने की। यदि ये सरकारी खर्च पर नहीं हो तब तो शायद कोई इसका संज्ञान नहीं लेगा। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न अनेक लोग चिकित्सा हेतु विदेश जाते हैं लेकिन सत्ता ही नहीं वरन विपक्ष के भी अनेक नेताओं का इलाज जब सरकारी खर्च पर विदेशों के अस्पतालों में होता है तब आम जनता में इसे लेकर ये चर्चा चल पड़ती है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी भारत में यदि स्वास्थ्य सेवाएं इस लायक नहीं बन सकीं तो इसके लिए दोषी राजनीतिक बिरादरी को  विदेश जाकर जनता के धन से करोड़ों रुपये खर्च करने की सुविधा देने का क्या औचित्य है? कहने का आशय मात्र इतना ही है कि यदि सत्ता और सियासत के उच्च पदों पर विराजमान महानुभावों को भी अपना इलाज देश में ही करवाने की बाध्यता हो तो बड़ी बात नहीं यहां के सरकारी अस्पतालों में भी विश्वस्तरीय चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हो सकेंगी। वैसे दिल्ली स्थित एम्स के अलावा निजी क्षेत्र में अनेक ऐसे नामी-गिरामी अस्पताल हैं जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के समकक्ष कहे जा सकते हैं किन्तु बात यहीं खत्म नहीं होती। एम्स सरकारी अस्पताल है लेकिन वहां आम आदमी के लिए इलाज करवाना कठिन है। क्योंकि एक तो वहां विशिष्ट हस्तियों के कारण अधिकतर बड़े चिकित्सक उनकी तीमारदारी में लिप्त रहते हैं दूसरी समस्या हर सरकारी अस्पताल की तरह मरीजों की भारी भीड़ और उस पर  चिकित्सकों का टोटा जो दूबरे में दो आसाढ़ वाली संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न करती है। एम्स से भी अनेक अच्छे चिकित्सक चाहे जब अध्ययन एवं शोध हेतु विदेश चल देते हैं या बेहतर वेतन और सुविधाओं की वजह से देश-विदेश के किसी अन्य अस्पताल में सेवाएं देने लगते हैं। फिर भी इस संस्थान पर तो गर्व किया जा सकता है लेकिन राष्ट्रीय राजधानी के भीतर स्थित अन्य सरकारी अस्पतालों की हालत भी बेहद दयनीय है। कुल मिलाकर ये कहना न तो गलत होगा और न ही अतिशयोक्तिपूर्ण कि चंद अपवादों को छोड़कर देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं जहां स्वयं बीमार हैं वहीं निजी चिकित्सालय कमाई के अड्डे बन गए हैं। हालांकि वित्त मंत्री पहले राजनेता नहीं हैं जिनकी बीमारी की जांच अथवा इलाज विदेश में हो रहा हो। सूची बनाने बैठें तो लंबी हो जाएगी लेकिन जब भी किसी राजनेता को इलाज हेतु विदेश भेजा जाता है तब ये प्रश्न उठता है। कई तो ऐसे रहे जो इलाज के सिलसिले में महीनों विदेश में पड़े रहे। आज भी अनेक राजनीतिक हस्तियां हैं जिनका इलाज बरसों से सरकारी खर्च पर हो रहा है। वर्तमान केंद्र सरकार ने हाल ही में जो आयुष्मान योजना लागू की वह स्वास्थ्य गारंटी के लिहाज से बहुत ही क्रांतिकारी है। साधारण व्यक्ति को 5 लाख तक का इलाज सरकार की तरफ  से मिलना देश की आर्थिक प्रगति के साथ संवेदनशील शासन व्यवस्था का प्रमाण है लेकिन विडम्बना ये है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं न केवल अपर्याप्त अपितु स्तरहीन हैं। वहीं निजी अस्पताल ऐसी योजनाओं में माल ए मुफ्त दिल ए बेरहम वाली प्रवृत्ति से ग्रसित हैं। इन आधारों पर यह कहना गलत नहीं होगा कि शिक्षा के साथ ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी व्यवस्थाएं या तो हैं नहीं या फिर दम तोड़ रही हैं। इसके लिए बहुत हद तक सरकार की नीतियाँ भी जिम्मेदार हैं जिनकी वजह से सरकारी अस्पतालों में जहां डॉक्टरों की कमी है वहीं सरकार द्वारा संचालित मेडीकल कालेजों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की भी जबरदस्त कमी। वैसे चिकित्सक समुदाय भी अपनी शपथ और पेशे की पवित्रता के प्रति लापरवाह होते हुए लोभ-लालच में फंसकर रह गया है। हालांकि अभी भी अनेक मानवतावादी चिकित्सक हैं किन्तु उनकी संख्या नगण्य है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि चिकित्सा के क्षेत्र में हुए उल्लेखनीय बदलावों और सुधारों के बावजूद आज भी भारत विश्व तो क्या एशिया के छोटे से देश सिंगापुर तक से पीछे है। बीते कुछ वर्षों से चिकित्सा पर्यटन को अर्थव्यव्यस्था में मजबूती लाने के साधन के तौर पर देखा जाने लगा है। यूरोप और अमेरिका में महंगे इलाज से बचने अरब सहित अनेक अफ्रीकी देशों से मरीज भारत आते हैं। शत्रु राष्ट्र पाकिस्तान भी उनमें से एक है लेकिन राजनेताओं के विदेश जाकर इलाज करवाने से हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ कठघरे में खड़ी हो जाती हैं। जैसा प्रारम्भ में कहा गया किसी की बीमारी को लेकर उस व्यक्ति की निजता का सम्मान रखा जाना चाहिए लेकिन दूसरी तरफ  ये प्रश्न गाहे-बगाहे और चाहे-अनचाहे उठता ही है कि वह दिन कब आएगा जब हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाएं इतनी अच्छी हो जाएंगी कि किसी नेता  को जांच या इलाज हेतु परदेस न जाना पड़े क्योंकि जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन भारत स्वस्थ लोगों का देश बन जायेगा। मौजूदा हालात तो ये हैं कि इलाज तो दूर करोड़ों लोगों के पास जांच तक के पैसे नहीं हैं। राजनेताओं का विदेश में इलाज जिस जनता के पैसे से होता हो वह कुत्ते के काटने पर लगने वाले रैबीज के इंजेक्शन तक से वंचित रहे, तब सबका साथ, सबका विकास जैसे नारे अर्थहीन होकर रह जाते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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