Wednesday 9 January 2019

काश, ऐसी ही समझदारी आगे भी दिखाई जाए

जैसी कि उम्मीद थी कल रात लोकसभा ने सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण सम्बन्धी संविधान संशोधन विधेयक भारी बहुमत से पारित कर दिया। गर्मागर्म बहस के उपरांत हुए मतदान में सदन में उपस्थित 326 में से 323 ने विधेयक के पक्ष में मत देते हुए उसे स्वीकृति दे दी। उल्लेखनीय है कि परसों ही केंद्रीय मंत्रीपरिषद ने उक्त विधेयक को मंजूरी दी और बिना देर लगाए उसे लोकसभा में पेश भी कर दिया।  सरकार जानती थी कि इस निर्णय की आलोचना करने वाले दल भी मजबूर होकर समर्थन करेंगे। इसीलिए राज्यसभा को एक दिन के लिए बढ़ा दिया गया जो आज इस पर विचार करेगी और यदि कोई बहुत बड़ा कारण नहीं हुआ तब शाम तक उसकी सहमति भी प्राप्त हो जाएगी। यदि ऐसा हुआ तब ये आजाद भारत के इतिहास में एक बड़ा कदम माना जाएगा क्योंकि इसके जरिये पहली बार आरक्षण का विस्तार जाति के दायरे से निकलकर आर्थिक स्थिति तक हो जाएगा। सबसे रोचक बात ये थी कि चंद अपवाद छोड़कर जाति की राजनीति करने वाली पार्टियां और नेता भी उक्त विधेयक का समर्थन करते दिखे। लेकिन उससे भी बड़ी बात ये  रही कि सभी ने विधेयक पेश करने के समय के साथ ही सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाए और भाजपा पर अपने घटते जनाधार को बचाने की कोशिश करने का आरोप भी लगाया। लेकिन न तो विधेयक को विचारार्थ किसी समिति को भेजने का दबाव बनाया गया और न ही सदन में किसी भी प्रकार की बाधा ही उत्पन्न हुई। असदुद्दीन ओवैसी, लालू यादव की पार्टी और अन्ना द्रमुक जैसे कुछ दलों को विधेयक रास नहीं आया। लेकिन बाकी विरोधी दलों के सांसदों ने सरकार पर तीखे हमले करते हुए उस पर राजनीति करने का आरोप तो लगाया लेकिन आलोचनाओं के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ खड़े करने के बाद विधेयक का समर्थन भी किया। निश्चित रूप से ये एक अभूतपूर्व स्थिति थी जब किसी विधेयक के जबरदस्त विरोध के बावजूद वह दो तिहाई बहुमत से पारित हो गया। इसकी वजह वैचारिक मतभेदों में कमी या सैद्धांतिक सहमति न होकर केवल वोट बैंक की राजनीति ही थी। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव में सवर्ण मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में बनाये रखने के लिए आनन-फानन में उक्त विधेयक गुपचुप तरीके से पेश कर दिया। जैसा विरोधी दल कह रहे थे अगर इसे सत्र की शुरूवात में लाया जाता तब हो सकता था इसे ठंडे बस्ते में डालने की रणनीति वह अपनाता किन्तु सरकार ने उसे सोचने और कुछ करने का समय ही नहीं दिया। ये भी कह सकते हैं कि विपक्षी दल भी अपने ही बनाये मकडज़ाल में फंस गए। ऐसी ही एकता गत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को पलटने के लिए प्रदर्शित हुई थी जिसके मुताबिक अनु. जाति और जनजाति के किसी व्यक्ति के उत्पीडऩ पर बिना जांच किये गिरफ्तारी किये जाने पर रोक लगा दी गई थी। बात-बात में सर्वोच्च न्यायालय की स्वायत्तता का बखान करने वाले तमाम दलों ने उस फैसले को सिरे से नकारने में तनिक देर नहीं लगाई क्योंकि उससे बड़े वर्ग की नाराजगी जुड़ी हुई थी। कल वही एकता फिर दोहराई गई क्योंकि इस बार सवर्ण मतदाताओं को खुश करने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। यदि चुनाव सिर पर न होते तब शायद केन्द्र सरकार भी इस तरह जल्दबाजी नहीं करती। हाल ही में सम्पन्न हुए  विधानसभा चुनावों में तीन राज्य हाथ से निकल जाने से भाजपा के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया था। जहां तक बात उक्त विधेयक के औचित्य की है तो उसे स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है किंतु जिस तरह से विपक्षी दलों के सांसदों ने लोकसभा में उसके अनेक प्रावधानों पर सवाल उठाते हुए उसकी वैधानिकता पर भी सन्देह जताया उसके बाद ये उम्मीद थी कि किसी न किसी बहाने से वे उसे अधर में टांगकर सरकार का खेल खराब करेंगे किन्तु ना, ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए भारी बहुमत से विधेयक को पारित करना ये दर्शाता है कि सदन को बाधित करने के पीछे निहित राजनीतिक स्वार्थ होते हैं। संसदीय प्रजातंत्र नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत पर चलता है। बहुमत नि:सन्देह महत्वपूर्ण होता है किंतु राष्ट्रीय और जनहित के विषयों पर आम सहमति की अपेक्षा भी की जाती है। चुनाव में सत्ता और विपक्ष दोनों एक दूसरे के सामने खड़े होकर अपनी बात कहते हैं किंतु संसद में विचार और निर्णय होने चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे देश में चुनावी कटुता संसद के भीतर भी बनी रहती है जिसकी वजह से सत्ता और विपक्ष दोनों ही अपनी भूमिका का निर्वहन सही तरीके से नहीं करते। कुछ दिन बाद ही देश गणतंत्र दिवस मनाएगा। संविधान की वर्षगांठ पर पूरे देश में बड़ा जलसा होता है। लेकिन इस बात पर कोई विचार नहीं करता कि संसद के भीतर संविधान का किस तरह मजाक बनता है। आज़ादी के सात दशक बाद भी हमारे सांसद दलगत राजनीति से जुड़े स्वार्थों में ही उलझे रहते हैं। गम्भीर विषयों पर अव्वल दर्जे की लापरवाही दिखाई जाती है। पूरा का पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ जाता है किंतु न सत्ता पक्ष को खेद होता है और न विपक्ष को। लेकिन जब बात निहित स्वार्थ की हो तो सभी मतभेद दरकिनार रखते हुए एकता का प्रदर्शन किया जाता है। सांसदों के वेतन और भत्तों में वृद्धि का प्रस्ताव जिस तरह सर्वसम्मति से पारित होता है वह लोकशाही के सामंती स्वरूप का जीता जागता उदाहरण है। गत दिवस लोकसभा में विपक्ष ने सत्ता पक्ष की बखिया उधेडऩे में कोई कसर नहीं छोड़ी। गुस्सा भी दिखाया गया और तीखे व्यंग्यबाण भी छोड़े किन्तु अंत में सहमति हेतु हाथ भी उठा दिए। निश्चित तौर पर ये सुखद एहसास देने वाला रहा किन्तु इस तरह की समझदारी और परिपक्वता तो संसद से हर महत्वपूर्ण मामले में अपेक्षित है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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