Friday 11 January 2019

अयोध्या : न्यायपालिका की कछुआ चाल

अयोध्या विवाद की सुनवाई हेतु संविधान पीठ के गठित होने पर लोगों को आशा बंधी कि चलो अब इस बहुप्रतीक्षित प्रकरण के निपटारे की शुरूवात हो सकेगी किन्तु कल ज्योंही अदालत बैठी त्योंही मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने न्यायमूर्ति श्री ललित को लेकर कहा कि वे अतीत में बतौर वकील इस प्रकरण से जुड़े रहे उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के अधिवक्ता रहे हैं। यद्यपि श्री धवन ने ये भी कहा कि उन्हें श्री ललित के पीठ में होने पर कोई ऐतराज नहीं है और यह उन पर निर्भर है कि वे सुनवाई में रहें न रहें। लेकिन श्री ललित ने अपने को सुनवाई से अलग कर लिया और अब अगली सुनवाई के लिए 29 जनवरी की तारीख तय हो गई। अदालती प्राक्रिया का अपना एक तरीका होता है जिसमें कानूनी पहलू महत्वपूर्ण होते हैं। ये भी कहा जा सकता है कि न्यायालय भावनाओं से संचालित नहीं होते। उस दृष्टि से श्री धवन की आपत्ति और उस पर श्री ललित का पीठ से अलग हो जाना सहज और स्वाभाविक ही था लेकिन दूसरी तरफ  ये भी देखने वाली बात है कि अयोध्या विवाद कोई साधारण भूमि स्वामित्व का प्रकरण न होकर ऐसा मामला है जिससे पूरा देश जुड़ा हुआ है। चूंकि इसका संबंध भगवान श्री राम से है इसलिए न सिर्फ  भारत अपितु  समूचे विश्व में फैले हिन्दू धर्मावलंबी इसके जल्द निपटारे की आशा करते आ रहे हैं। अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फैसले के बाद सर्वोच्च न्यायालय को केवल भूमि स्वामित्व संबंधी निर्णय करना है। काफी लंबा समय तो दस्तावेजों के अनुवाद में लग गया। कल जो चर्चा हुई उसके अनुसार उर्दू और फारसी के कुछ दस्तावेजों को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है। ऐसा लगता है श्री धवन ने जानबूझकर श्री ललित को उकसा दिया। यदि उन्हें उनके पीठ में बैठने पर कोई आपत्ति नहीं थी तब उन्होंने कल्याण सिंह वाले मामले का उल्लेख क्यों किया ? जब उक्त न्यायाधीश ने खुद को अलग करने का निर्णय किया तब श्री धवन ने उनसे माफी भी मांगी। कुल मिलाकर सुनवाई फिर 20 दिन टल गई और शायद श्री धवन चाहते भी यही थे। ऐसा लगता है मुस्लिम पक्ष चाहता है कि किसी तरह मामले को लंबा खींचा जाए ताकि लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लग जाए जिससे केन्द्र सरकार राम मंदिर के पक्ष में अध्यादेश लेकर न आ सके। उल्लेखनीय है भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाताओं में इस बात को लेकर  नाराजगी है कि मोदी सरकार मुस्लिम महिलाओं के मत हासिल करने की लालच में  तीन तलाक को खत्म करने के लिए तो अध्यादेश लाने में नहीं हिचकती लेकिन अयोध्या प्रकरण पर अपने पांव पीछे खींच लेती है। संघ परिवार के साथ ही साधु-संत भी लंबे समय से मांग करते आ रहे हैं कि चूंकि अदालती प्राक्रिया बहुत ही मन्थर गति से चल रही है इसलिए केंद्र सरकार अध्यादेश के जरिये भूमि विवाद का निपटारा करे। लोगों का ये मानना है कि लोकसभा चुनाव के कारण विपक्षी दल भी संसद में उसे पारित करने को मजबूर होंगे। सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाले संविधान संशोधन विधेयक को न चाहते हुए भी जिस तरह से कांग्रेस सहित अनेक भाजपा विरोधी दलों ने पारित करवाया उससे ये धारणा और मजबूत हो गई कि यदि केन्द्र सरकार राम मंदिर के पक्ष में अध्यादेश जैसा कोई कदम उठाए तो हिंदुओं की नाराजगी से बचने के लिए विरोधी दल भी उसका समर्थन करने बाध्य होंगे। लेकिन अभी तक केंद्र सरकार  अपने समर्थक वर्ग को खुश करने की बजाए न्यायपालिका के फैसले तक रुकने की बात कहती आई है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पत्रकार को दिए साक्षात्कार में भी राम मंदिर पर अध्यादेश लाने की बजाय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा करने की बात दोहराई। ऐसे में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। ये कहना तो गलत नहीं होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के पास लंबित प्रकरणों का अंबार है लेकिन अयोध्या का भूमि विवाद कोई साधारण विवाद नहीं है। ये भी बात सच है कि इस प्रकरण का संबंध ऐतिहासिक घटनाओं से है और भूमि स्वामित्व को लेकर भी बहुत पेचीदगियां हैं लेकिन जब न्यायालय के पास मामला आया है तब उसे इसके महत्व को समझना चाहिए। अलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद काफी कुछ स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। सर्वोच्च न्यायालय को उसके आगे बढऩा है। लेकिन पिछले अनेक सालों से जिस मंथर गति से वह इस मामले पर विचार कर रहा है उसे देखते हुए तो ये सन्देह भी होने लगता है कि न्यायपालिका में इच्छाशक्ति का अभाव है। वरना छोटे-छोटे कारणों से सुनवाई को टालते जाने का और कोई कारण समझ से परे है। कहाँ तो रोजाना सुनवाई किये जाने का आश्वासन पिछले प्रधान न्यायाधीश ने दिया था और कहां सुनवाई ही शुरू नहीं हो पा रही है। 29 जनवरी को क्या होगा ये पक्के  तौर पर कोई नहीं बता सकता। पीठ में श्री ललित की जगह किसी नए न्यायाधीश की नियुक्ति के बाद फिर कोई पेंच फंसाकर मामले को लटकाने का प्रयास हो सकता है। कभी-कभी तो लगता है कि कतिपय पक्षकार फैसले की स्थिति आने ही नहीं देना चाहते जिससे वे चर्चाओं में बने रहें। भाजपा और संघ परिवार पर भी ये तोहमत लगने लगी है कि वे चुनावी लाभ के लिए मंदिर का मुद्दा छेड़ते हैं और फिर ठंडे होकर बैठ जाते हैं। राहुल गांधी तो अक्सर भाजपा पर ये तंज कसते हैं कि मंदिर वहीं बनाएंगे लेकिन तारीख नहीं बताएंगे। कुल मिलाकर इस प्रकरण को टालते रहने में राजनीतिक अनिर्णय जितना जिम्मेदार है उतनी ही न्यायपालिका की कछुआ चाल भी। मोदी सरकार पर जिस तरह का दबाव है उसे देखते हुए यदि वह न्यायपालिका को दरकिनार करते हुए कोई क़दम उठाती है तब उसे उसकी राजनीतिक मजबूरी ही कहा जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय श्री रंजन गोगोई के प्रधान न्यायाधीश बनते ही यदि दैनिक सुनवाई शुरू कर देता जिसका उनके पूर्ववर्ती श्री दीपक मिश्रा ने आश्वासन दिया था तब सम्भवत: अभी तक बात किसी निष्कर्ष तक पहुंच जाती। लेकिन न जाने क्यों कोई न कोई बहाना बनाकर सुनवाई टाली जाती रही और लग रहा है कि लोकसभा चुनाव के पहले न्यायालय में ये मामला लंबित ही रहेगा  जैसा मुस्लिम पक्षकार के वकील कपिल सिब्बल अदालत से पहले ही अनुरोध कर चुके थे। न्यायपालिका में सभी की आस्था होने के बावजूद उससे भी बड़ी बात ये है कि देश की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी की आस्था भगवान राम में कहीं ज्यादा है। न्याय की आसंदी पर बैठे सांसारिक पंच परमेश्वर जितनी जल्दी ये समझ लें तो वह देशहित में होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment