Monday 21 January 2019

विपक्ष के नाम पर ममता का शक्ति प्रदर्शन

बीते सप्ताह कोलकाता के विशाल ब्रिगेड मैदान में तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के निमंत्रण पर देश भर के विपक्षी नेता पधारे और 2019 में भाजपा को हराकर  नरेंद्र मोदी को हटाने के लिए कमर कसने का इरादा जताया । फिलहाल ममता बंगाल की एकछत्र नेता हैं ।  10 - 15 वर्ष पहले जिस तरह का जलवा वामपंथियों का हुआ करता था ठीक वैसा ही उनका है ।  बंगाल में उन्होंने वामपंथियों और कांग्रेस को पूरी तरह हांशिये पर धकेल दिया है लेकिन उनकी चिंता का विषय भाजपा के तेजी से उभरने को लेकर है ।  हालांकि तृणमूल के लिए अभी तक तो भाजपा किसी भी तरह से बड़ा खतरा नहीं बन सकी लेकिन जिस साहस के साथ वह न सिर्फ शहरों अपितु कस्बाई और ग्रामीण क्षेत्रों में पांव पसार रही है उसे देखते हुए ममता भी ये मानने लगीं हैं कि देर - सबेर उन्हें मैदानी स्तर पर भाजपा ही चुनौती दे सकेगी ।  रास्वसंघ ने बंगाल के हिंदुओं के बीच ममता की मुस्लिम परस्त नीतियों का प्रचार करते हुए जिस तरह मतों के ध्रुवीकरण की स्थितियाँ बना दी हैं उससे  भी ममता बाहर नाराज हैं ।  राज्य में साम्प्रादायिक तनाव भी रोजमर्रे की बात हो गई है ।  इसके लिए मुख्यमंत्री भी कम जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि वामपंथी शासन की जिन बुराइयों से ऊबकर बंगाल की जनता ने उनको गद्दी पर बिठाया था वे सब दूसरे रूप में सामने आ गईं ।  जो गुंडागर्दी वामपंथी गुर्गे करते थे वही अब तृणमूल के झंडे  तले होने लगी है ।  बाँग्लादेशी घुसपैठियों को वोट बैंक मानकर संरक्षण देने के मामले में ममता सरकार किसी भी प्रकार से पूर्ववर्ती वामपंथी सरकार से कम नहीं है ।  शुरू - शुरु में ममता को लगा था कि साम्यवादियों के साथ ही कांग्रेस के पराभव से वे बंगाल की बेताज बादशाह बन जाएंगी किन्तु भाजपा ने उस खाली स्थान को भरने के लिए जिस तरह से सुनियोजित प्रयास किये उसकी वजह से वे बहुत भन्नाई हुई हैं ।  दरअसल मोदी सरकार के आने के बाद शारदा चिट फंड घोटाले की जांच में जब ममता सरकार के मंत्री और सांसद जेल गए तथा जांच एजेंसी का शिकंजा कसने पर ममता को अपने लिए खतरा महसूस हुआ तबसे वे भाजपा के विरुद्ध कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो उठीं ।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने  बंगाल में पार्टी की जड़ें जमाने के लिए जो प्रयास शुरू किए वे भी ममता की नाराजगी का बड़ा कारण है ।  असम , मणिपुर और त्रिपुरा में भाजपा की सरकार बनने से बंगाल में उसका प्रभावक्षेत्र बढा है 7 उपचुनावों के साथ ही स्थानीय निकाय चुनाव में भी वह तृणमूल की निकटतम प्रतिद्वंदी बनकर उभरी है ।  जाहिर तौर पर ममता जैसी एकाधिकारवादी नेत्री के लिए ये स्थिति असहनीय है और इसीलिए उसने लोकसभा चुनाव के पहले बंगाल की जनता पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए देश भर के भाजपा विरोधी नेताओं को एक मंच पर एकत्र कर अपना प्रभुत्व प्रदर्शित करने का दांव चला । हालांकि उस रैली के मंच और मैदान दोनों में पैर रखने की जगह नहीं थी लेकिन जिस विपक्षी एकता की कसमें वहाँ दोहराई गईं वे कितनी फलदायी होंगी ये कहना कठिन है ।  वामपंथियों की गैर मौजूदगी , कांग्रेस का संदेश भेजकर समर्थन और मायावती द्वारा भीड़ का हिस्सा नहीं बनने की नीति के कारण ममता की वह कोशिश उनके निजी शक्ति प्रदर्शन तक सिमटकर रह गई ।  शरद यादव जैसे विस्थापित नेता और यशवंत सिन्हा के साथ शत्रुघ्न सिन्हा की मौजूदगी देश में विपक्षी एकता के लिए कितनी कारगर हो सकेगी ये सामान्य बुद्धि रखने वाला भी बता देगा । मंच से बोलते हुए हर नेता ने मोदी हटाओ का नारा तो लगाया लेकिन उनके विकल्प को लेकर हवा हवाई होता रहा ।  विरोधाभास भी कम नहीं थे । अरविंद केजरीवाल ने मोदी - शाह को किसी भी कीमत पर हटाने की हुंकार तो भर दी लेकिन वे दिल्ली , पंजाब और हरियाणा में किसी पार्टी से गठबंधन के लिए तैयार नहीं हैं ।  इसी तरह बसपा ने अभी तक ये स्पष्ट नहीं किया कि वह उप्र के बाहर भाजपा विरोधी अन्य दलों के साथ गठजोड़ करेगी या अपना वोट बैंक सहेजकर रखने के  लिए अकेले चुनाव लड़ेगी ।  बाकी देश की तो छोड़ दें किन्तु बंगाल सहित पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा विरोधी कोई मोर्चा बनाने जैसी बात तक ममता ने नहीं कही ।   इससे पता चलता है कि उनकी वह कवायद समाचार और टीवी बहस का हिस्सा भले हुई बन गई किन्तु उसका राजनीतिक लाभ पूरे विपक्ष को नहीं मिल सकेगा क्योंकि सभी मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाली मानसिकता से ग्रसित थे ।  अगर उस जमावड़े से नरेन्द्र मोदी के मुकाबले किसी नेता का नाम उभरकर आता तब निश्चित रूप से पूरे देश का ध्यान उस तरफ जाता लेकिन केवल भाजपा और मोदी हटाओ का नारा कारगर नहीं हो सकता ।  उल्टा उस रैली के बाद से विपक्ष से ये सवाल पूछा जाने लगा है कि उनके पास कौन सा चेहरा है जिसे विकल्प के तौर पर पेश किया जा सके ।  वैसे ये अनुमान गलत नहीं है कि 2014 वाली मोदी लहर दोबारा उत्पन्न करना भाजपा के लिए संभव नहीं होगा लेकिन ये भी उतना ही सच है कि विपक्ष में राष्ट्रीय स्तर पर जब तक गठबंधन नहीं होता तब तक भाजपा को पूरी तरह घुटनाटेक करवाना आसान नहीं होगा ।  ये भी कहा जा सकता है कि तमाम विरोधाभासों के बावजूद नरेंद्र मोदी अभी भी राजनीतिक क्षितिज पर सबसे ज्यादा चमकते सितारे हैं ।  जिस तरह से वे देश के विभिन्न हिस्सों में घूम - घूमकर रैलियां कर रहे हैं वह उनके आत्मविश्वास और जुझारूपन का परिचायक  है ।  कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहने को तो खुद को प्रधानमंत्री के मुकाबले खड़ा करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं किन्तु देश के सबसे बड़े राज्य उप्र और बिहार  मिलाकर भी उनकी पार्टी 15 लोकसभा सीटें जीतने की हालत में नहीं है । अखिलेश और मायावती  ने जिस तरह उनकी उपेक्षा की उससे कांग्रेस की वजनदारी कमज़ोर हुई है । और तो और शरद पवार तक राहुल को प्रधानमंत्री उम्मीदवार मानने राजी नहीं हैं । ममता की रैली में अगर राहुल के नाम पर सभी विपक्षी नेता एकमत हो जाते तब उसका जबर्दस्त असर देश भर में होता और वह निश्चित रूप से मोदी हटाओ नारे को मजबूती प्रदान करती किन्तु पूरा आयोजन केवल ममता बैनर्जी के शक्ति प्रदर्शन तक सीमित होकर रह गया । खबर है सपा - बसपा भी ऐसा ही आयोजन उप्र में करने वाली हैं । उसमें  भी विपक्षी नेता आएँगे लेकिन अखिलेश और मायावती क्या कांग्रेस और राहुल को उसमें आमंत्रित करेंगे ये बड़ा सवाल है । केवल  भाजपा और मोदी को गरियाने मात्र से विपक्ष को तब तक कुछ हासिल नहीं होगा जब तक वह चुनाव पूर्व पुख्ता गठबंधन के साथ कोई सर्वमान्य नाम सामने नहीं लाए ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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