Friday 25 January 2019

गणतंत्र को गुणतंत्र में बदलना जरूरी

बीते कुछ वर्षों से देश में एक चर्चा जोरों से चल रही है कि संविधान खतरे में है। उसकी आत्मा को ठेस पहुंचाने के आरोपों के साथ ही ये भी कहा जाता है कि संविधान का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से ध्वस्त किया जा रहा है। कहने वाले तो यहां तक कहने से भी बाज नहीं आ रहे कि देश में अघोषित आपात्काल लगा हुआ है तथा वर्तमान सत्ता बनी रही तो संसदीय प्रजातंत्र को तिलांजलि दे दी जाएगी तथा तानाशाही का साम्राज्य हो जाएगा। ऐसा कहने के पीछे चूंकि राजनीतिक स्वार्थ जुड़े हुए हैं इसलिये संविधान और लोकतंत्र पर खतरा मंडराने की बात सहसा गले नहीं उतरती। विशेष रूप से उन लोगों के मुंह से तो विशेष रूप से नहीं जिनके पूर्वज लोकतंत्र की हत्या के आरोप में जनता की अदालत द्वारा दंडित किये जा चुके हों। दरअसल देश के सामने असली संकट है तो विश्वास का। लोकतंत्र  शासक और शासित के बीच जिस भरोसे की बुनियाद पर टिका है वस्तुत: उसे कमजोर करने का षडय़ंत्र रच रहे तत्व भय का भूत खड़ा करने पर आमादा हैं। चूंकि बीते सात दशक में अधिकांशत: जनता के साथ वायदा खिलाफी हुई है इसलिये वह भी भ्रम में फंसकर रह जाती है। संविधान की वर्षगांठ के अवसर पर गणतंत्र को लेकर खूब भाषणबाजी और बुद्धिविलास होता आया है। राष्ट्रपति से लेकर गांव का सरपंच तक अच्छी बातें करते हैं। सिर से पाँव तक कर्ज में डूबी सरकारें सत्ता प्रतिष्ठान की प्रतिनिधि इमारतों को जगमगाने के लिये करोड़ों फूंक देती हैं। लेकिन गणतंत्र के मायने एवं उससे आम जनता को मिलने वाले फायदे की चिंता और चर्चा कोई नहीं करवाता । जबकि संविधान की ये वर्षगांठ सही मायनों में देश की जनता के लिये समर्पित होनी चाहिए क्योंकि संविधान बना ही भारत के लोगों के लिये था। दुर्भाग्य का विषय ये है कि ऐसे अवसरों पर बातें तो बड़ी होती हैं किंतु आम जनता की छोटी-छोटी समस्याओं को हल करने का कोई प्रयास नहीं होता और यही सबसे बड़ी विडंबना है। मंगल और चंद्रमा पर पहुंच रहे भारतीय यानों को उपलब्धि मानकर गौरव की अनुभूति होना गलत नहीं है। विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था का प्रमाण पत्र भी पीठ ठोंकने वाली बात है। विश्व मंच पर भारत की दमदार उपस्थिति एवं प्रभावशाली भूमिका के कारण भी देश गर्व का अनुभव करता है किन्तु इस सबसे अलग हटकर भी एक भारत है जिसमें आम जनता को खून के आँसू रोने के लिये बाध्य कर दिया जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी, आवास जैसी मूलभूत जरूरतें आज भी करोड़ों देशवासियों के लिये स्वप्न सरीखी हैं। गरीबी और बेरोजगारी के अधिकृत आँकड़ें यदि पता कर लिये जाएं तो फिर आर्थिक प्रगति के सारे दावे असत्य लगने लगेंगे। सही बात ये है कि गणतंत्र में जो गण है वह तंत्र के आगे लाचार होकर रह गया है। उसके पास ले-देकर केवल मताधिकार ही बचा है जिसका उपयोग पाँच वर्ष में करने के लिये उसे उत्प्रेरित किया जाता है। उल्लेखनीय बात ये है कि जिस अधिकार को समूचा शासन तंत्र कत्र्तव्य  बताकर प्रचारित करता है वह भी एक दिन का कर्मकांड बनकर रह गया है। भले ही उसके जरिये सत्ता बदलती रही है परन्तु जहां तक बात व्यवस्था परिवर्तन की है तो ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि गणतंत्र का लाभ चंद उन्हीं लोगों तक सिमटकर रह गया जो तंत्र की चाटुकारिता में लिप्त रहते हैं। जिन योजनाओं और कार्यक्रमों के जरिये आम जनता की दशा सुधारने के प्रयास और दावे होते हैं वे तंत्र के मकडज़ाल में फंसकर हाँफने लग जाते हैं। इसकी वजह सत्ता प्रतिष्ठान में गुणवत्ता का अभाव है। सत्ता परिवर्तन से सुधार या बदलाव की जो उम्मीद की जाती है वह यदि पूरी नहीं होती तो उसका कारण गुणवत्ता की कमी है वरना जितना धन अब तक खर्च किया गया उतने में भारत, चीन, जापान, सिंगापुर की तरह विकास का प्रतीक बन चुका होता। गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर आज विचारणीय मुद्दा यही होना चाहिए कि इसे गुण तंत्र में कैसे बदला जाए। कहना अच्छा नहीं लगता किन्तु जिस संसद से संविधान के पालन तथा उसकी रक्षा की उम्मीद की जाती है वह भी गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतरती। दुख और चिंता की बात तो ये है कि अब न्यायपालिका भी अपनी ख्याति और प्रतिष्ठा खोने लगी है। न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया पर उठती उंगलियां इसका प्रमाण है। सात दशक पुराने लोकतंत्र को दुनिया की सबसे बड़ी जनतांत्रिक व्यवस्था कहने में निश्चित रूप से अच्छा लगता है किन्तु क्या हम अपने श्रेष्ठ संविधान के स्तर के अनुरूप श्रेष्ठ व्यवस्था बना सके और क्या जिस भारत के लोगों के उल्लेख के साथ संविधान की शुरूआत हो सकी उनका जीवन समस्या विहीन हो सका? प्रश्न और भी हैं किन्तु इस वर्ष का गणतंत्र दिवस इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कुछ महीनों बाद ही हम भारत के लोगों को अपने ऊपर राज करने वाली सरकार का चुनाव करने का अवसर मिलने वाला है। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि हम चाहे जिस भूमिका में हों , देश के बारे में फैसला करते समय जात-पाँत, धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा जैसी विभाजनकारी सोच से ऊपर उठकर राष्ट्र की बेहतरी के लिये अपना फैसला करें। गणतंत्र को गुणतंत्र में बदलने के लिये देश के हर नागरिक को आगे आना होगा। यदि हम चाहते हैं कि बीते सात दशक से चले आ रहे अधकचरेपन की जगह देश में 21वीं सदी की सोच रखने वाली सत्ता बने तो चयन करते समय हमें गुणवत्ता को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए वरना अयोग्यता को प्रोत्साहन देने की परिपाटी यूं ही चलती रहेगी और हम आँकड़ों की लहलहाती फसल देख-देखकर खुश होते रहेंगे।
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
रवीन्द्र वाजपेयी
संपादकस : संपादकीय
-रवीन्द्र वाजपेयी

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष :-

गणतंत्र को गुणतंत्र में बदलना जरूरी

बीते कुछ वर्षों से देश में एक चर्चा जोरों से चल रही है कि संविधान खतरे में है। उसकी आत्मा को ठेस पहुंचाने के आरोपों के साथ ही ये भी कहा जाता है कि संविधान का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से ध्वस्त किया जा रहा है। कहने वाले तो यहां तक कहने से भी बाज नहीं आ रहे कि देश में अघोषित आपात्काल लगा हुआ है तथा वर्तमान सत्ता बनी रही तो संसदीय प्रजातंत्र को तिलांजलि दे दी जाएगी तथा तानाशाही का साम्राज्य हो जाएगा। ऐसा कहने के पीछे चूंकि राजनीतिक स्वार्थ जुड़े हुए हैं इसलिये संविधान और लोकतंत्र पर खतरा मंडराने की बात सहसा गले नहीं उतरती। विशेष रूप से उन लोगों के मुंह से तो विशेष रूप से नहीं जिनके पूर्वज लोकतंत्र की हत्या के आरोप में जनता की अदालत द्वारा दंडित किये जा चुके हों। दरअसल देश के सामने असली संकट है तो विश्वास का। लोकतंत्र  शासक और शासित के बीच जिस भरोसे की बुनियाद पर टिका है वस्तुत: उसे कमजोर करने का षडय़ंत्र रच रहे तत्व भय का भूत खड़ा करने पर आमादा हैं। चूंकि बीते सात दशक में अधिकांशत: जनता के साथ वायदा खिलाफी हुई है इसलिये वह भी भ्रम में फंसकर रह जाती है। संविधान की वर्षगांठ के अवसर पर गणतंत्र को लेकर खूब भाषणबाजी और बुद्धिविलास होता आया है। राष्ट्रपति से लेकर गांव का सरपंच तक अच्छी बातें करते हैं। सिर से पाँव तक कर्ज में डूबी सरकारें सत्ता प्रतिष्ठान की प्रतिनिधि इमारतों को जगमगाने के लिये करोड़ों फूंक देती हैं। लेकिन गणतंत्र के मायने एवं उससे आम जनता को मिलने वाले फायदे की चिंता और चर्चा कोई नहीं करवाता । जबकि संविधान की ये वर्षगांठ सही मायनों में देश की जनता के लिये समर्पित होनी चाहिए क्योंकि संविधान बना ही भारत के लोगों के लिये था। दुर्भाग्य का विषय ये है कि ऐसे अवसरों पर बातें तो बड़ी होती हैं किंतु आम जनता की छोटी-छोटी समस्याओं को हल करने का कोई प्रयास नहीं होता और यही सबसे बड़ी विडंबना है। मंगल और चंद्रमा पर पहुंच रहे भारतीय यानों को उपलब्धि मानकर गौरव की अनुभूति होना गलत नहीं है। विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था का प्रमाण पत्र भी पीठ ठोंकने वाली बात है। विश्व मंच पर भारत की दमदार उपस्थिति एवं प्रभावशाली भूमिका के कारण भी देश गर्व का अनुभव करता है किन्तु इस सबसे अलग हटकर भी एक भारत है जिसमें आम जनता को खून के आँसू रोने के लिये बाध्य कर दिया जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी, आवास जैसी मूलभूत जरूरतें आज भी करोड़ों देशवासियों के लिये स्वप्न सरीखी हैं। गरीबी और बेरोजगारी के अधिकृत आँकड़ें यदि पता कर लिये जाएं तो फिर आर्थिक प्रगति के सारे दावे असत्य लगने लगेंगे। सही बात ये है कि गणतंत्र में जो गण है वह तंत्र के आगे लाचार होकर रह गया है। उसके पास ले-देकर केवल मताधिकार ही बचा है जिसका उपयोग पाँच वर्ष में करने के लिये उसे उत्प्रेरित किया जाता है। उल्लेखनीय बात ये है कि जिस अधिकार को समूचा शासन तंत्र कत्र्तव्य  बताकर प्रचारित करता है वह भी एक दिन का कर्मकांड बनकर रह गया है। भले ही उसके जरिये सत्ता बदलती रही है परन्तु जहां तक बात व्यवस्था परिवर्तन की है तो ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि गणतंत्र का लाभ चंद उन्हीं लोगों तक सिमटकर रह गया जो तंत्र की चाटुकारिता में लिप्त रहते हैं। जिन योजनाओं और कार्यक्रमों के जरिये आम जनता की दशा सुधारने के प्रयास और दावे होते हैं वे तंत्र के मकडज़ाल में फंसकर हाँफने लग जाते हैं। इसकी वजह सत्ता प्रतिष्ठान में गुणवत्ता का अभाव है। सत्ता परिवर्तन से सुधार या बदलाव की जो उम्मीद की जाती है वह यदि पूरी नहीं होती तो उसका कारण गुणवत्ता की कमी है वरना जितना धन अब तक खर्च किया गया उतने में भारत, चीन, जापान, सिंगापुर की तरह विकास का प्रतीक बन चुका होता। गणतंत्र दिवस के इस पावन अवसर पर आज विचारणीय मुद्दा यही होना चाहिए कि इसे गुण तंत्र में कैसे बदला जाए। कहना अच्छा नहीं लगता किन्तु जिस संसद से संविधान के पालन तथा उसकी रक्षा की उम्मीद की जाती है वह भी गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतरती। दुख और चिंता की बात तो ये है कि अब न्यायपालिका भी अपनी ख्याति और प्रतिष्ठा खोने लगी है। न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया पर उठती उंगलियां इसका प्रमाण है। सात दशक पुराने लोकतंत्र को दुनिया की सबसे बड़ी जनतांत्रिक व्यवस्था कहने में निश्चित रूप से अच्छा लगता है किन्तु क्या हम अपने श्रेष्ठ संविधान के स्तर के अनुरूप श्रेष्ठ व्यवस्था बना सके और क्या जिस भारत के लोगों के उल्लेख के साथ संविधान की शुरूआत हो सकी उनका जीवन समस्या विहीन हो सका? प्रश्न और भी हैं किन्तु इस वर्ष का गणतंत्र दिवस इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कुछ महीनों बाद ही हम भारत के लोगों को अपने ऊपर राज करने वाली सरकार का चुनाव करने का अवसर मिलने वाला है। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि हम चाहे जिस भूमिका में हों , देश के बारे में फैसला करते समय जात-पाँत, धर्म, क्षेत्रीयता, भाषा जैसी विभाजनकारी सोच से ऊपर उठकर राष्ट्र की बेहतरी के लिये अपना फैसला करें। गणतंत्र को गुणतंत्र में बदलने के लिये देश के हर नागरिक को आगे आना होगा। यदि हम चाहते हैं कि बीते सात दशक से चले आ रहे अधकचरेपन की जगह देश में 21वीं सदी की सोच रखने वाली सत्ता बने तो चयन करते समय हमें गुणवत्ता को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए वरना अयोग्यता को प्रोत्साहन देने की परिपाटी यूं ही चलती रहेगी और हम आँकड़ों की लहलहाती फसल देख-देखकर खुश होते रहेंगे।

रवीन्द्र वाजपेयी
संपादक

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