Saturday 12 January 2019

वोट मिले नेता को चोट पड़े जनता पर

लोकसभा चुनाव की हलचल शुरू होते ही राजनीतिक पार्टियों ने विशुद्ध बाजार संस्कृति का पालन करते हुए डिस्काउंट सेल शुरू कर दी है। भाजपा की केंद्र सरकार ने जीएसटी की दरों में कमी के बाद छोटे और मझोले श्रेणी के व्यापारी को राहत देते हुए 40 लाख तक टर्नओवर वाले व्यापारी को जीएसटी से बाहर कर दिया। कंपोजिट स्कीम वालों की सीमा बढ़ाकर एक से डेढ़ करोड़ भी कर दी।  सुना है आचार संहिता लगने के पहले मोदी सरकार राहतों के पिटारे में से और भी कुछ सौगातें निकालकर मतदाताओं को खुश करना चाह रही है। इसके अंतर्गत गरीबों और किसानों के खाते में विभिन्न प्रकार की सब्सिडी के बदले एक मुश्त 30 हजार रु. जमा कर दिए जाएंगे। केंद्र सरकार इस योजना को लागू करने की प्रति लंबे समय से विचार कर रही  थी लेकिन कतिपय कारणों से नहीं कर पाई। उसे लगता है ये साधारण जनता और छोटे किसानों को भाजपा की तरफ आकर्षित करने में सहायक बनेगी। आयकर के ढांचे में भी कतिपय ऐसे बदलाव किये जा सकते हैं जिनकी  मांग और अपेक्षा न सिर्फ उद्योग जगत बल्कि मध्यमवर्गीय नौकरपेशा वर्ग भी करता आ रहा है। पौने पाँच वर्ष तक कंजूसी दिखाने के बाद चुनाव में उतरने से पहले मोदी सरकार अपनी छवि पर उदारता की छाप लगाना चाह रही है। ये हाल केवल केंद्र सरकार का नहीं है। विभिन्न राज्य सरकारें भी खजाना लुटाने पर आमादा हो रही हैं। कोई बिजली बिल माफ कर रहा है तो कोई किसानों के कर्ज माफ करते हुए चुनाव वैतरणी पार करना चाह रहा है। जो पार्टियां कहीं भी सत्ता में नहीं हैं उनके लिए अवश्य उपहार वितरण कठिन है। लेकिन खैरात बांटकर वोट बटोरने की इस संस्कृति से देश का आर्थिक प्रबंधन गड़बड़ा रहा है। केंद्र सरकार ने भी स्वीकार किया है कि चालू वित्तीय वर्ष का जो राजकोषीय घाटा है वह अनुमानित सीमा को पार कर चुका है जबकि अभी साल के ढाई महीने बाकी हैं। जीएसटी की दरों में कमी से भी राजस्व की वसूली में कमी आई है। गत दिवस आई रिपोर्ट के मुताबिक औद्योगिक उत्पादन में  गिरावट आने से शासन के खजाने में आने वाले कर की आवक कम हो गई है। हालांकि अभी भी विकास दर के सात फीसदी से ऊपर रहने की उम्मीद से केन्द्र सरकार अपनी पीठ ठोंक रही  है लेकिन इसके बावजूद रोजगार सृजन के मामले में हालत बेहद निराशाजनक है। अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा जीते गए तीनों राज्यों में चुनावी वायदे के अनुसार किसानों के कर्जे माफ  करने का आदेश जारी कर दिया गया किन्तु संबंधित राज्यों के खजाने पहले से ही खाली पड़े हुए हैं। यही स्थिति बिजली बिलों की है। किसी राज्य में गरीबों को नाम मात्र के भुगतान पर बिजली मिल रही है तो कहीं किसानों पर बिजली विभाग मेहरबानी कर रहा है। कुल मिलाकर अर्थशास्त्र के प्रचलित और सामान्य नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए सत्ता हासिल करने के लिये जनता के धन की होली खेली जा रही है। अर्थशास्त्र की जगह अनर्थशास्त्र ने ले ली है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर खर्च करने की लिए सरकार के पास धन की कमी रहती है लेकिन ज्योंही खैरात बांटने की जरूरत पैदा होती है त्योंही न जाने कहाँ से पैसे का इंतजाम हो जाता है। वोट बैंक की लालच ने राजनीतिक बिरादरी को पूरी तरह गैर जिम्मेदार बनाकर रख दिया है। जिस वर्ग को मुफ्त में सरकारी मदद मिल जाती है वह तो उपकृत हो जाता है लेकिन जो लोग कर चुकाकर सरकार का खजाना भरते हैं उन पर और बोझ बढ़ा दिया जाता है। यही कारण है कि सामाजिक और आर्थिक समानता के नाम पर चल रही ढकोसलेबाजी से समाज में वर्गभेद और बढ़ता जा रहा है । लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में वंचित समुदाय की मदद करना हर तरह से अपेक्षित है लेकिन उसके लिए सरकार का अर्थ प्रबंधन ऐसा होना चाहिए जिससे एक को खुश करने से दूसरा नाराज न हो जाये । और फिर घर फूंक तमाशा देखने की प्रवृत्ति कहीं से भी सही नहीं होती । केंद्र में मोदी सरकार की वापसी होगी या नहीं ये पूरी तरह अनिश्चित है लेकिन चुनाव जीतने के लिए अव्यवहारिक वायदे करना एक तरह का कदाचरण ही माना जाना चाहिए । कोई पार्टी अथवा नेता यदि अपने संसाधनों से लोगों को खैरात बांटे तो किसी को आपत्ति नहीं होगी  किन्तु सरकारी खजाने को खाली करते हुए अपनी राजनीति चमकाने के चलन के कारण देश बहुत पीछे चला गया । चिंता का विषय ये है कि ये सिलसिला रुकने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है । चूंकि हमारे देश में पूरे पाँच वर्ष कोई न कोई चुनाव चलता रहता है इसलिए मुफ्त के माल पर दानदाता बनने की होड़ लगी हुई है । मौजूदा व्यवस्था के अनुसार तो चुनाव आयोग द्वारा निर्वाचन की घोषणा के बाद आचार संहिता के कारण मुफ्त उपहार का वितरण रुक जाता है लेकिन चुनाव घोषणापत्र के माध्यम से ऐसे वायदे कर दिए जाते हैं जिनको पूरा करने के लिए खजाने में समुचित धन नहीं होता । किसी भी समझदार व्यक्ति से पूछा जाए तो वह गरीबों और किसानों  की सहायता को गलत नहीं कहेगा किन्तु बिना संसाधनों की व्यवस्था किये इस तरह की मुफ्तखोरी से आर्थिक विकास एक कदम आगे दो कदम पीछे की स्थिति में आ गया है । नेताओं की सत्ता की भूख मिटाने के लिए जनता की जेब काटने का ये चलन असहनीय होने लगा है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment