Tuesday 8 January 2019

आर्थिक आरक्षण : बात निकली है तो दूर तलक जाएगी

ये बात सौ फीसदी सही है कि भारतीय  राजनीति में हर काम चुनावी लाभ के लिए किया जाता है। उस दृष्टि से मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर कमजोर सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने के निर्णय को आगामी लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा जाना गलत नहीं है। दूसरी बात ये भी सही है कि केंद्र सरकार ने संसद सत्र की शुरुवात में तत्सम्बन्धी विधेयक रखने की बजाय उसे आज पेश करने का फैसला लिया जिसे फटाफट अंदाज में लोकसभा से पारित करवाकर कल राज्यसभा में पारित करवाने का प्रयास किया जाएगा। इसके लिए राज्यसभा की बैठक एक दिन बढ़ा दी गई है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तक सीमित कर दी है और संविधान में आर्थिक आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है इसलिए सरकार ने संविधान में संशोधन करने का कदम उठाया। क्योंकि मामला वोट बैंक का है इसलिए कांग्रेस सहित अधिकतर पार्टियां उसका समर्थन करने मजबूर हैं। इससे भी बढ़कर तो उन सभी का कहना है कि वे तो पहले से ही ऐसा करने के लिए प्रयासरत थीं। कुछ प्रदेशों ने अतीत में वैसा करने की कोशिश भी की थी जिसे अदालत ने रद्द कर दिया। गत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने अनु. जाति/जनजाति के उत्पीडऩ के मामले में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगाने सम्बन्धी जो फैसला दिया उसे संसद ने सर्वसम्मति से पलट दिया लेकिन उसकी गाज गिरी भाजपा पर और उसका परम्परागत सवर्ण आधार हिल गया। मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे उसी का परिणाम माने जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने पर भाजपा को चौतरफा आलोचनाएं झेलना पड़ीं। हिंदुओं के बीच से ये प्रश्न तेजी से उठा कि ऐसी ही पहल मोदी सरकार राम मंदिर के मुद्दे पर क्यों नहीं कर रही? उससे भी ज्यादा ये हुआ कि जिस आरक्षित समुदाय को लुभाने के लिए केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलट दिया उसने भी हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षित साथ नहीं  दिया। न इधर के  रहे न उधर के रहे वाली स्थिति में पहुंचने के बाद भाजपा नेतृत्व ने आ अब लौट चलें की रणनीति अपनाते हुए अचानक ऐसा निर्णय ले लिया जो मौजूदा परिस्थितियों में अनपेक्षित कहा जा सकता था। इसे मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है इसलिए भले ही उसके भविष्य और क्रियान्वयन को लेकर टीका-टिप्पणी हो रही हों किन्तु मायावती, रामविलास पासवान और रामदास आठवले जैसे अनु. जातियों के नेताओं तक को मोदी सरकार की इस पहल का समर्थन करना पड़ा। ओबीसी वर्ग के अनेक नेता यद्यपि इसकी अप्रत्यक्ष रूप से मुखालफत कर रहे हैं किंतु आरक्षण से वंचित गरीबों को भी लाभ मिले उसका समर्थन उन्हें भी करना पड़ रहा है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के जो मापदंड बताए गए उनके औचित्य पर भी सवाल उठ रहे हैं लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनाने की हिम्मत तो दिखाई। पहले से आरक्षण का फायदा उठा रहे तबके का हिस्सा कम किये बिना 10 फीसदी का जो प्रावधान किया वह भविष्य में आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति को बनाने का माध्यम बन सकता है। इसके साथ ही क्रीमी लेयर का जो सवाल सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर उठाया वह भी अनु. जाति/जनजाति और ओबीसी वर्ग के बीच भी गरमा सकता है। सवर्ण जातियों में भी इस बात पर काफी नाराजगी है कि हर तरह से समृद्ध हो चुके लोगों के बच्चों को भी आरक्षण का फायदा दिया जाता है। हालांकि सबसे ज्यादा एतराज आरक्षण के नाम पर योग्यता की उपेक्षा किये जाने पर है। पदोन्नति में आरक्षण से भी एक वर्ग आक्रोशित है। और जो सबसे ज्यादा चर्चित बात है वह है नौकरियों की संख्या में कमी जिसके फलस्वरूप आरक्षण केवल झुनझुना बनकर रह गया है। इन सबसे मोदी सरकार और भाजपा दोनों भलीभांति परिचित हैं। अपने ऊपर लगे सवर्ण ठप्पे को हटाने के लिए सामाजिक समरसता का जो प्रयास किया गया वह चौबे जी का छब्बे बनने के फेर में दुबे बन जाने जैसा साबित हुआ। अंतत: भाजपा ने उस वास्तविकता को स्वीकारा जो उसका समर्थक वर्ग उससे अपेक्षा करता आ रहा था। जहां तक इस निर्णय के संसद की मंजूरी मिलने के बाद भी न्यायालय में जाकर अटक जाने की आशंका है तो उसके बारे में ये कहा जा सकता है कि संविधान में वर्णित आरक्षण के प्रावधान को संशोधित करने के बाद सम्भवत: न्यायपालिका भी उसे नहीं छेड़ेगी किन्तु वैसा हुआ तब भी सभी राजनीतिक दलों पर ये दबाव बन जायेगा कि वे आर्थिक आधार पर आरक्षण को समर्थन दें। ये ठीक उसी तरह से होगा जैसे राहुल गांधी ने हिंदुओं को आकर्षित करने के लिए जनेऊ पहिनना और मंदिर-मठ में पूजा-पाठ करना शुरू कर दिया। हालांकि सवर्ण मतदाता मोदी सरकार के इस निर्णय का आंख मूंदकर समर्थन कर देंगे ये मान लेना जल्दबाजी होगी क्योंकि असली गुस्सा तो आरक्षण की आड़ में योग्यता को दरकिनार किये जाने से है। एक वर्ग ये भी कह रहा है कि राजनीतिक पार्टियां अपने स्वार्थों की खातिर समाज को जाति में बांटकर खण्ड-खण्ड करने में जुटी हैं। सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर बीते कुछ दशक से देश में जो हुआ उसने नए किस्म के वर्ग संघर्ष को जन्म दे दिया। डॉ. लोहिया जाति तोडऩे के पैरोकार थे किंतु उनके मानसपुत्र तो जाति नामक बैसाखी के सहारे पर ही चलते हैं। इस तथाकथित मास्टर स्ट्रोक से भाजपा को लोकसभा चुनाव में फायदा होगा या नहीं उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण ये बात है कि इससे आरक्षण को संकुचित दायरे से निकालकर वास्तविकता के धरातल पर उतारने की कवायद शुरू होगी। आरक्षण का आधार जाति की बजाय गरीबी हो और चयन के लिए योग्यता से समझौता न किया जाए तो वह एक आदर्श स्थिति होगी लेकिन उसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति उत्पन्न करना पड़ेगी। दुर्भाग्य से लगभग सभी राजनीतिक दल और अधिकतर नेता केवल चुनाव में जीत से आगे नहीं सोच पाते और इसीलिए आरक्षण जिस उद्देश्य से शुरू किया गया वह आज तक पूरा नहीं हो सका। मोदी सरकार के ताजा कदम को बर्र के छत्ते में पत्थर मारना भी कहा जा सकता है किन्तु इससे यदि सामाजिक न्याय अपने असली रूप में लागू हो सके तो ये देशहित में होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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