Thursday 10 January 2019

वायदों-विधेयकों से वोट मिलते हैं रोजगार नहीं

सरकार के दांव से भौचक विपक्ष के पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं था। इसीलिए किसी ने नीति तो किसी ने नीयत पर सवाल उठाए और अंत में भारी बहुमत से आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण का संविधान संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित हो गया। चूंकि राष्ट्रपति भी भाजपा के हैं इसलिये वे भी इस पर हस्ताक्षर करने में देर नहीं लगाएंगे और इस तरह लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले आरक्षण का एक नया अध्याय शुरू हो जाएगा। हालांकि जैसा अनेक सांसदों ने शंका व्यक्त की, इस विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती मिलेगी और बड़ी बात नहीं वह संसद के इस निर्णय को निरस्त कर दे। लेकिन इस सबसे हटकर जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा विपक्ष के तकरीबन सभी वक्ताओं ने उठाया वह था नौकरियों का अभाव। उनकी तरफ से विधेयक का समर्थन करते हुए भी ये बात जोरशोर से उठाई गई कि चुनावी लाभ के लिये सरकार विधेयक भले ले आई हो लेकिन ये सवर्णों के हाथ में झुनझुना थमाने जैसा है। कुछ हद तक ये है भी सही क्योंकि ये बात किसी से छिपी नहीं है कि सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में नौकरियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। बहुत सारी सेवाएं निजी क्षेत्रों को दी जा चुकी हैं। वरिष्ठ कांग्रेस सांसद आनंद शर्मा ने यहां तक कहा कि मंत्रियों के ड्राइवर तक निजी क्षेत्र से लिये जा रहे हैं। सपा सांसद डॉ. रामगोपाल यादव ने कम्प्यूटर के कारण नौकरियां घटने का सवाल भी उठाया। कुल मिलाकर अधिकतर सांसदों ने नौकरियों के अभाव में आरक्षण की उपयोगिता और औचित्य पर सवाल उठाते हुए सामान्य वर्ग को दिए जा रहे आरक्षण को निरर्थक बताया। विभिन्न टीवी चैनलों ने सरकार के इस कदम पर युवकों से बात की तो उनमें से अधिकांश ने इसका स्वागत तो किया लेकिन नौकरियां उपलब्ध नहीं होने से किसी भी प्रकार के लाभ से नाउम्मीदी जताई। इस प्रकार विधेयक पर हुई बहस में एक महत्वपूर्ण बात सामने आई कि आरक्षण अब नौकरी की गारंटी नहीं रहा। लेकिन इसके बावजूद भी अनु. जाति/जनजाति सहित ओबीसी वर्ग के अनेक सांसदों ने जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिए जाने की मांग संसद में रखी। रामगोपाल यादव ने इस बात पर भी ध्यान आकर्षित किया कि जब अनु. जाति/जनजाति की जनसंख्या 22 फीसदी होने पर उन्हें उतना आरक्षण दिया गया तब ओबीसी को भी उनकी संख्या के मुताबिक 54 फीसदी हिस्सा मिलना चाहिए। शरद यादव तो जाति आधारित जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने का दबाव इसीलिए बना रहे हैं। प्रश्न ये है कि जब सरकारी नौकरियां हैं हीं नहीं तब आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने से भी क्या हासिल होगा? रामविलास पासवान जैसे नेता इसीलिए निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू करने की मांग उठाते आ रहे हैं। दरअसल हमारे देश में अभी तक नौकरी से अभिप्राय सरकारी नौकरी माना जाता है। उस लिहाज से विपक्ष का आरोप सही है कि नौकरियां घटती जा रही हैं। मोदी सरकार की विफलताओं में दो करोड़ रोजगार हर साल देने का वायदा पूरा नहीं होना भी माना जाता है। प्रश्न ये है कि किसी भी विपक्षी सांसद ने आरक्षण के स्वरूप को बदलकर उसे आर्थिक आधार देने की बात क्यों नहीं कही? ऐसा करना इसलिये सही होगा क्योंकि जिन जातियों को आरक्षण का लाभ प्राप्त है उनमें भी एक सम्पन्न वर्ग विकसित हो चुका है जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर अपने सजातीय लोगों के अधिकारों पर अतिक्रमण कर बैठ गया है। इस वर्ग में नौकरशाह और राजनेता दोनों ही हैं। ईमानदारी से सर्वेक्षण करने पर ये बात सामने आ जायेगी कि आरक्षित वर्ग के युवा आईएएस और आईपीएस में बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनके परिवार का कोई सदस्य पहले से इन सेवाओं में है। राजनीति में तो रामविलास पासवान, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव उन नेताओं में हैं जिन्होंने अपनी जाति के नाम पर नेतागिरी करते हुए पूरे परिवार को नेता बना दिया। समय आ गया है जब आरक्षण में उत्पन्न विसंगतियों को दूर करने हेतु प्रचलित व्यवस्था की समीक्षा की जावे क्योंकि जिस तरह से रोजगार विहीन आर्थिक विकास की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं ठीक उसी तरह नौकरी विहीन आरक्षण भी एक विचारणीय मुदद्दा बन गया है। वरना क्या वजह है कि सात दशक के लंबे कालखण्ड में भी समाज के वंचित और पिछड़े वर्ग को सामाजिक और आर्थिक विकास की दृष्टि से अन्य वर्गों के समकक्ष नहीं लाया जा सका। यद्यपि इस तरह की बात होते ही जातिवादी नेता हत्थे से उखड़कर सामने वाले को आरक्षण विरोधी निरूपित करने लगते हैं लेकिन ये बात भी शत-प्रतिशत सही है कि आरक्षण के जिस प्रारूप को आजादी के बाद लागू किया गया वह अर्थहीन और अनुपयोगी हो चुका है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि उसकी वजह से जाति प्रथा और मजबूत तो हुई ही, ईष्र्या और शत्रुता भी बढ़ी। उदारीकरण के बाद सरकार पूरी तरह से व्यवसायिक बन गई है। स्थापना व्यय घटाने के नाम पर नौकरियों में कमी की जा रही है।  आउटसोर्सिंग का प्रचलन शुरू होते ही निचले स्तर पर कर्मचारियों की भर्ती रुक गई। कर्मचारी और अधिकारी जिस मात्रा में सेवा निवृत्त होते हैं उतनी नई नियुक्तियां नहीं हो पा रहीं।  रक्षा उत्पादन जैसे क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र का प्रवेश हो चुका है। अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले कृषि क्षेत्र में मशीन के बढ़ते दखल से मानव संसाधन का उपयोग कम हो गया।  विश्व व्यापार संगठन से बंध जाने के कारण जो विदेशी चीजें पहले तस्करी से आती थीं वे अब धड़ल्ले से आ रही हैं।  सस्ते चीनी सामान ने भारतीय लघु और मध्यम श्रेणी के उद्योगों की कमर तोड़कर रख दी। इन हालातों में नए रोजगारों का सृजन दिन ब दिन मुश्किल होता जा रहा है।  यही वजह है कि सरकार किसी की भी हो वह बेरोजगारी दूर करने में सफल नहीं हो पाई। अर्थशास्त्र में पारंगत डॉ. मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री तक इस दिशा में नाकामयाब रहे।  ताजा अनुमानों के मुताबिक 2018-19 में भारत की विकास दर 7.2 फीसदी रहने वाली है लेकिन उस अनुपात में रोजगार नहीं बढ़ा। और यही हाल रहा तो आगे भी नहीं बढ़ेगा।  ऐसे में रोजगार रहित विकास पर बहस के साथ ही नौकरी विहीन आरक्षण पर भी गहन चिंतन जरूरी है। भले ही वोटों के नुकसान के भय से राजनेता आज इस बारे में सोचने और बोलने से घबराते हैं लेकिन बीमारी के बेकाबू होने से पहले ही इलाज करना बेहतर होता है वरना फिर डॉक्टर और दवाइयां किंतनी भी अच्छी हों, राहत नहीं दे पातीं। आरक्षण को लेकर किया गया संविधान संशोधन अपनी जगह है किंतु देशहित में जरूरी है कि इस पूरी व्यवस्था में ही संशोधन और सुधार किया जावे क्योंकि वायदों और विधेयकों से वोट तो मिलते हैं किंतु रोजगार नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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