Saturday 5 January 2019

इसके पहले कि बात हाथ से निकल जाए.....

गत दिवस सोशल मीडिया पर किसी ने एक चुटकुला प्रेषित किया जिसके अनुसार एक न्यायाधीश शहर के सबसे बड़े डॉक्टर के पास किसी बीमारी के इलाज के लिए गए । बीमारी की वजह से न्यायाधीश महोदय काफी तकलीफ में थे। उनके आते ही डॉक्टर को इत्तला दी गई तो उसने उन्हें भीतर बुलवा लिया। न्यायाधीश ने अपनी तकलीफ बताते हुए कहा कि उन्हें फौरन इलाज की जरूरत है लेकिन डॉक्टर ने पैथालॉजी जांच रिपोर्ट देखकर उन्हें एक माह बाद की तारीख देते हुए आने को कहा। इस पर न्यायाधीश महोदय नाराज होकर बोले आप समझ क्यों नहीं रहे मुझे तत्काल इलाज की जरूरत है और आप हैं जो एक माह बाद आने को कह रहे हैं। तकलीफ  के कारण मेरे कई काम रुके हुए हैं। आपसे अनुरोध है कृपया सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर मेरा इलाज शुरू कीजिए किन्तु डॉक्टर  ने उन्हें टके सा जवाब देते हुए कहा कि आपका इलाज मेरी प्राथमिकताओं में नहीं आता क्योंकि वे सर्वथा अलग हैं। पाठक सोच रहे होंगे कि इस प्रसंग का इस स्तंभ में क्या औचित्य है ? लेकिन मजाक में कही गई उक्त बात के निशाने पर भारत का सम्मानीय सर्वोच्च न्यायालय है जो अयोध्या विवाद पर डॉक्टर की तरह टालमटोली कर रहा है। नए मुख्य न्यायाधीश ने गत वर्ष के अंतिम महीनों में इस विवाद की नियमित सुनवाई से इंकार करते हुए कहा था कि उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं तथा जनवरी के प्रथम सप्ताह में नई पीठ बनाकर सुनवाई की जावेगी। वह कब तक निर्णय देगी इस पर भी वे कुछ बता नहीं सके। गत दिवस जब उक्त मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया तब देश को उम्मीद थी कि उसकी दिशा तय होगी किन्तु एक मिनिट से भी कम समय में आगामी 10 जनवरी तक उसे टालते हुए कह दिया गया कि उस दिन तीन सदस्यीय पीठ का गठन किया जाएगा जो आगे का कार्यक्रम तय करेगी। इस प्रकार इस बहुप्रतीक्षित प्रकरण के फैसले की समय सीमा तय नहीं हो पा रही। माननीय न्यायाधीशगण भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि यह कोई साधारण भूमि विवाद न होकर बीते अनेक दशकों से राजनीति के साथ साम्प्रदायिक टकराहट की वजह बना हुआ है। जिसके परिणाम स्वरूप देश के भीतर काफी उथलपुथल और अशांति बनी रहती है। किसी अनिष्ट की आशंका के साथ ही अनिश्चितता का भी  बड़ा कारण ये विवाद है। मूलत: यह मामला जमीन के स्वामित्व का है किंतु हिंदुओं का विश्वास है कि इसी स्थान पर हजारों वर्ष पहले उनके आराध्य प्रभु श्री राम का जन्म हुआ था जहां बाबर के शासनकाल में उनके खासमखास मीर बाकी ने एक मस्जिद बनवा दी जिसे बाबरी नाम दिया गया। उसमें नमाज़ पढ़े जाने को लेकर भी काफी भ्रांतियां हैं किंतु हिन्दू संगठनों की पुरानी मांग के बाद जब राजीव गाँधी के कार्यकाल में बाबरी ढांचे के भीतर रखी भगवान राम की मूर्तियों का ताला खुलवाकर पूजा पाठ शुरू हुआ तबसे अयोध्या विवाद राष्ट्रीय स्तर पर फैल गया और बीते तीन दशक से न केवल उप्र अपितु पूरे देश में इसे लेकर हिन्दू मुस्लिमों के बीच घोषित और अघोषित झगड़ा चला आ रहा है जिसे राजनीति का समर्थन मिलने से वह और भी गम्भीर होता गया। कहने वाले कहते भी हैं कि आज़ादी के बाद भारत ने जिस धर्मनिरपेक्षता को अपना लिया था उसे इस मसले ने छिन्न भिन्न कर दिया। दंगे फसाद तो हुए ही राजनीतिक छुआछूत भी चरम पर जा पहुँची। उम्मीद की जाती थी कि देश के भाग्य विधाता बने बैठे सांसद इस विवाद का समुचित हल निकालकर राहत प्रदान करेंगे किन्तु राजनीति राष्ट्रहित से ऊपर उठकर चूंकि वोट बैंक पर जाकर टिक गई है इसलिये तमाम आश्वासनों के बाद भी संसद इस विवाद का हल निकालने से बचती रही।  इसी तरह दोनों पक्षों के धर्मगुरु एवं अन्य आध्यात्मिक हस्तियों ने भी समय - समय पर प्रयास किये किन्तु उनमें या तो ईमानदारी नहीं थी या फिर हठधर्मिता आड़े आ गई। जब सभी तरफ से निराशा हाथ लगी तब हर कोई न्यायपालिका की तरफ उम्मीद से देखने लगा। अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवादित भूमि के तीन हिस्से करने वाला फैसला भी दिया लेकिन अपीलों की वजह से बात सर्वोच्च न्यायालय में जाकर अटक गई। लेकिन ये कहने में दुख होता है कि वह भी इस ज्वलंत मुद्दे को गम्भीरता से लेने की बजाय एक साधारण भू स्वामित्व विवाद की तरह ले रहा है जिससे बात वहीं की वहीं अटकी हुई है। गत दिवस पूरे देश को आशा थी कि सर्वोच्च न्यायालय ऐसा कुछ करेगा जिससे राहत की अनुभूति हो सके लेकिन उसने क्षण भर में बात हफ्ते भर के लिए टाल दी किन्तु उससे भी कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। बीते कुछ महीनों से हिन्दू संगठन मोदी सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि वह अध्यादेश लाकर विवाद का फैसला कर दे किन्तु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में एक साक्षात्कार में स्पष्ट कर दिया कि न्यायपालिका के फैसले के बाद ही सरकार कोई  कदम उठायेगी।  चूंकि लोकसभा चुनाव करीब हैं और शिवसेना भी राम मंदिर को मुद्दा बनाकर भाजपा के मुकाबले खुद को हिंदुओं का हित चिंतक साबित करने के लिए प्रयासरत हैं इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि चुनाव के पूर्व सर्वोच्च न्यायालय फैसला दे जिससे देश एक बड़ी अनिश्चितता से उबर सके। संयोगवश हिन्दू और मुसलमानों के साथ ही अयोध्या विवाद में रुचि रखने वाले अन्य लोग भी अदालत के फैसले को स्वीकार करने के लिए राजी हैं इसलिए न्यायपालिका को भी हिचक नहीं होनी चाहिए। ये बात भी सच है कि अगर चुनाव तक यथास्थिति बनी रही तब कुछ अप्रिय घटने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अयोध्या विवाद केवल भूमि के मालिकाना हक तक सीमित न रहकर सरकार बनाने और गिराने तक जा पहुँचा है।  सर्वोच्च न्यायालय की स्वायत्तता सर्वोच्च है जिसे छेडऩा लोकतंत्र के लिए घातक होगा लेकिन दूसरी तरफ  न्याय की सबसे ऊंची आसंदी पर विराजमान माननीय न्यायाधीशों का भी ये कर्तव्य है कि वे जनभावनाओं को समझकर इस अति सम्वेदनशील विषय को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता में रखते हुए एक समय सीमा तय करें वरना चिंगारी को आग बनाने वाले मौके की तलाश में रहेंगे। इसके पहले कि बात हाथ से निकल जाए उसे संभालना ही बुद्धिमत्ता होती है। न्यायपालिका से पूरा देश यही अपेक्षा कर रहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

2 comments:

  1. कुंठित मानसिकता के लोग जब शीर्ष पदों पर आसीन हो जाते हैं तो उन्हें अधिकारों का सदुपयोग अपनी विकृत मानसिकता को संतुष्ट करने मे दिखाई देता है.

    दुर्भाग्य देश का या हमारा चिन्तन का विषय है.

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  2. कुंठित मानसिकता के लोग जब शीर्ष पदों पर आसीन हो जाते हैं तो उन्हें अधिकारों का सदुपयोग अपनी विकृत मानसिकता को संतुष्ट करने मे दिखाई देता है.

    दुर्भाग्य देश का या हमारा चिन्तन का विषय है.

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