Wednesday 30 January 2019

आतंकवादी की फाँसी से ज्यादा महत्वपूर्ण है अयोध्या

24 घण्टे में अयोध्या विवाद  हल करने का दावा करने संबंधी उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के  बयान  के बाद ही केंद्र सरकार द्वारा अयोध्या में अधिग्रहीत की गई गैर विवादित भूमि राम जन्मभूमि न्यास को सौंपने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लगाए जाने से अचानक राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई। प्रयागराज में चल रहे कुम्भ में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी की अगुआई में आयोजित धर्मसंसद के पहले ही केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लागाकर एक तरह से साधु-सन्यासियों की नाराजगी दूर करने का प्रयास किया है। एक धर्मसंसद विश्व हिंदू परिषद द्वारा भी प्रायोजित की जा रही है। कुंभ के शुरू होते ही साधु समुदाय अयोध्या विवाद को लेकर भाजपा को चेतावनी देने लगा था। मोदी सरकार को ये उम्मीद थी कि सर्वोच्च न्यायालय इस विवाद पर निर्णय देकर अनिश्चितता खत्म कर देगा लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि उसने न सिर्फ सरकार अपितु पूरे देश को निराश किया है। योगी आदित्यनाथ ने जो दावा किया वह एक तरह से न्याय की सर्वोच्च आसन्दी पर तीखा कटाक्ष भी था। केंद्र सरकार की इस पहल की एक वजह स्वामी स्वरूपानंद जी द्वारा कुम्भ के बाद अयोध्या जाकर राम मंदिर का निर्माण किये जाने की घोषणा भी है। ये भी सही है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उप्र में भाजपा की संभावनाओं को मजबूती देने के लिए मोदी सरकार के लिये ऐसा कुछ करना जरूरी हो गया था जिससे हिन्दू जनमानस के मन से ये धारणा दूर की जा सके कि सत्ता में आने के बाद भाजपा मंदिर को भूल जाती है। राहुल गांधी भी उसे ये ताना देते रहते हैं कि मंदिर वहीं बनायेंगे लेकिन तारीख नहीं बताएंगे। लेकिन इस सबसे हटकर देखें तो केंद्र सरकार का ताजा कदम मौजूदा परिस्थितियों में एकदम सही कहा जायेगा क्योंकि 1993 में अधिग्रहीत की गई लगभग 68 एकड़ भूमि में विवादित भूखंड मात्र 0.313 एकड़ ही है। हालांकि केंद्र की इस पहल का मुस्लिम समाज के वकीलों ने विरोध किया है लेकिन विवाद से जुड़े कई मुसलमानों ने टीवी पर खुलकर कहा कि इस अर्जी पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं है। ऐसा लगता है साधु-सन्यासियों के साथ ही हिन्दू समाज का धैर्य जिस तरह जवाब देने लगा था उसके बाद केंद्र सरकार के लिए ऐसा करना मजबूरी भी थी और जरूरी भी। सर्वोच्च न्यायालय में हो रही अकारण देरी की वजह से रास्वसंघ सहित भाजपा का समर्थक वर्ग अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त करने का दबाव बना रहा था लेकिन सहयोगियों की नाराजगी के डर से प्रधानमंत्री चाहकर भी वैसा नहीं कर सके। बीच में एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने साफ  कहा भी की उनकी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार करेगी। राजनीतिक दृष्टि से भी भाजपा के लिए कुछ न कुछ ऐसा करना जरूरी होता जा रहा था जिससे ये आभास हो कि वह मंदिर निर्माण के प्रति ईमानदार है। बहरहाल इस समूचे प्रकरण में सबसे ज्यादा निराश किया तो वह न्यायपालिका ने। बीते कुछ दिनों से तो हद ही हो गई जब किसी न किसी कारण से सुनवाई को टाला गया। कभी पीठ का गठन तो कभी किसी न्यायाधीश का खुद को सुनवाई से अलग कर लेना या फिर अवकाश पर चले जाने से बात एक कदम आगे दो कदम पीछे जैसी बनने लगी थी। ये भी सही है कि सहयोगी संगठनों के उलाहनों और दबाव के बावजूद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अब तक बहुत धैर्य का परिचय दिया वरना नरेंद्र मोदी की जो छवि रही है उसे देखते हुए अपेक्षा की जाती थी कि वे हिंदुओं को खुश करने के लिए कोई अप्रत्याशित कदम उठा सकते हैं। उस दृष्टि से गत दिवस केंद्र ने जो कदम उठाया वह सूझबूझ भरा है। आखिऱ जिस भूमि को लेकर कोई विवाद ही नहीं है उसे अदालती विवाद में उलझाकर रखने से लाभ क्या है? यद्यपि साधु समुदाय में से भी एक वर्ग ऐसा है जो इसमें भी मोदी सरकार की चालाकी देख रहा है लेकिन ये बात भी सही है कि पूरी तरह से रुके रहने की बजाय यदि एक कदम आगे बढ़ाया जाए तो उसमें कुछ भी गलत नहीं होगा। इस अर्जी के बाद अब गेंद सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है। उसे भी ये देखना चाहिये कि जनभावनाएं कहीं उग्र न हो जाएं। हालांकि मौजूदा हालात में विवादित स्थान पर मन्दिर निर्माण शुरू करना न तो स्वामी स्वरूपानंद जी के बस की बात है और न ही विश्व हिन्दू परिषद के किन्तु गैर विवादित जमीन यदि राम जन्म भूमि न्यास को सौंप दी जाए तो लोगों में बढ़ते आक्रोश को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 2003 में पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में जो अवशेष मिले वे इस बात को सिद्ध  करने के लिए पर्याप्त हैं कि 6 दिसम्बर 1992 को गिराया गया विवादित ढांचा किसी हिन्दू मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। पता नहीं क्या कारण है कि न्यायपालिका इस दिशा में उदासीन बनी हुई है। एक समय था जब मंदिर आंदोलन से जुड़े नेता और संगठन ये मानते थे कि आस्था का विषय होने से ये प्रकरण कानून के अधिकार क्षेत्र से ऊपर है लेकिन अब तो लगभग सभी पक्ष न्यायपालिका के फैसले को मानने को राजी हो गए हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जा रही देरी औचित्यहीन लगती है। हालांकि हमारे देश में नयाय प्रक्रिया की कछुआ चाल जगजाहिर है लेकिन कतिपय मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह की फुर्ती दिखाई उसके बाद से लोगों को ये लगने लगा था कि अयोध्या विवाद पर भी वैसी ही सक्रियता दिखाई जावेगी किन्तु पेशी दर पेशी बढ़ती गईं लेकिन बात जहां की तहां बनी हुई है। न्यायपालिका के प्रति असंदिग्ध आस्था और सम्मान के बाद भी ये कहने में कोई संकोच नहीं होता कि अयोध्या मसले को सुलझाने के प्रति वह अपेक्षित गम्भीरता नहीं दिखा सकी। इस बारे में मोदी सरकार की तारीफ  करनी होगी कि उसने अध्यादेश जैसा कोई कदम नहीं उठाकर किसी भी प्रकार के तनाव को टाला। गैर विवादित भूमि संबंधी उसकी अर्जी पर सर्वोच्च न्यायालय को प्राथमिकता के तौर पर फैसला देना चाहिए। वरना उस पर ये तोहमत लगती रहेगी कि आतंकवादी की फाँसी रुकवाने की याचिका सुनने के लिए तो उसे आधी रात में भी अदालत खोलने से परहेज नहीं हुआ लेकिन देश के 80 फीसदी हिंदुओं के आराध्य भगवान राम उसके लिए एक सामान्य पक्षकार हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment