Monday 14 January 2019

भाजपा-कांग्रेस : समझौते के नाम पर समर्पण गलत

पहले सपा-बसपा गठबंधन और उसके बाद कांग्रेस द्वारा उप्र की सभी 80 सीटों पर अकेले चुनाव लडऩे के ऐलान से केवल इस राज्य ही नहीं बल्कि समूचे देश की सियासत में हड़कम्प मच गया। कांग्रेस को ये उम्मीद रही कि मायावती और अखिलेश यादव ज्यादा न सही तो भी कम से कम 15 सीटें उसके लिए छोड़ेंगे। वैसे दावा तो 20 से 25 का किया जा रहा था लेकिन जब केवल रायबरेली और अमेठी छोड़कर दोनों ने कांग्रेस को पूरी तरह किनारे कर दिया तब ये स्पष्ट हो गया कि बुआ-भतीजे की जोड़ी कहे जा रहे इस गठबंधन का मकसद उप्र में कांग्रेस को घुटनों के बल चलने के लिए मजबूर करते हुए राहुल गांधी को ताकतवर होने से रोकना है। राष्ट्रीय राजनीति की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला इतना समझता है कि बिना उप्र कब्जाए दिल्ली की सत्ता का ख्वाब देखना किसी भी पार्टी और नेता के लिए बेमानी है। चूँकि इस सूबे में कांग्रेस का जनाधार शर्मनाक स्थिति तक कमजोर हो चुका है इसलिए मायावती और अखिलेश ने रणनीतिक दृष्टि से गलत नहीं किया। 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के साथ गठबंधन का कड़वा अनुभव अखिलेश भूले नहीं थे। हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में सपा और बसपा दोनों को कांग्रेस ने जिस प्रकार उपेक्षित किया उससे भी दोनों बहुत नाराज थे। तीन राज्य भाजपा से छीनने के बाद कांग्रेस विशेष तौर पर राहुल गांधी की वजनदारी बढ़ गई और वे सपा-बसपा से गठबंधन में बड़ा हिस्सा मांगने लगे। इधर मायावती और अखिलेश यादव भी इस बात को भांप गए कि जिस तरह भाजपा के मजबूत होने के बाद से उप्र में कांग्रेस की जड़ें कमजोर होती गईं वही स्थिति कांग्रेस के दोबारा सुदृढ़ होने पर सपा-बसपा की हो जाएगी। इसीलिए लंबे समय से चली आ रहे बैरभाव को रद्दी की टोकरी में फेंककर वे साथ आ गए। कांग्रेस को पूरी उम्मीद रही कि कोई बड़ा फैसला लेने के पूर्व उसके साथ अनौपचारिक तौर पर ही सही किन्तु सम्पर्क होगा क्योंकि तीनों का शत्रु एक ही है लेकिन मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस की परवाह न करते हुए 80 सीटों का मनमर्जी से बंटवारा कर लिया। इससे कांग्रेस को निश्चित रूप से बुरा लगा। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि राहुल को इसमें अपना अपमान भी लगा है। जिस राज्य से वे और उनकी माँ सांसद हों उसमें  क्षेत्रीय कही जाने वाली पार्टियों द्वारा फेंके गए टुकड़ों पर पलने वाली स्थिति एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार के लिए खून का घूंट पीने से कम नहीं होगा। अगर मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की सत्ता हाथ नहीं आती तब शायद कांग्रेस सपा-बसपा के सामने समर्पण कर देती लेकिन बीते एक माह में राजनीतिक हालात जिस तरह से बदले हैं उनमें कांग्रेस यदि उप्र में बराबरी से बैठना चाह रही थी तो वह पूरी तरह स्वाभाविक था। अब चूंकि सपा-बसपा के गठबंधन से नाता तोड़कर कांग्रेस ने अपनी दम पर चुनाव मैदान में उतरने का साहस दिखाया तो वह एक राष्ट्रीय दल के रूप में आवश्यक भी था और अपेक्षित भी। एक बात और उसने अच्छी कह दी कि उप्र में उसका मुकाबला भाजपा से होगा न कि सपा-बसपा गठबंधन से। सुना है कुछ छोटे दल भी कांग्रेस से जुडऩा चाह रहे हैं। प्रत्यक्ष तौर पर देखें तो मायावती-अखिलेश के गठबंधन में कांग्रेस का न होना भाजपा के लिए नए साल का तोहफा है जो गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के लोकसभा उपचुनाव हारने के बाद से बेहद तनाव में थी। कांग्रेस के अलग ताल ठोंकने से भाजपा को जबर्दस्त राहत मिली है लेकिन उससे भी बड़ा शुभ संकेत ये है कि राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों के अनुचित दबाव से मुक्त हो सकें। हाल ही में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने शिवसेना को कह दिया कि समझौता नहीं हुआ तब वह उसे हराने में संकोच नहीं करेंगे। हालांकि देश के वर्तमान परिदृश्य में क्षेत्रीय पार्टियों को पूरी तरह से नकारना सम्भव नहीं है लेकिन ये भी उतना ही सही है कि भाजपा-कांग्रेस को उनके शिकंजे से निकलना ही होगा वरना अवसरवादी और सौदेबाज किस्म के नेताओं की निजी संपत्ति रूपी पार्टियां अपने स्वार्थों की खातिर राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाती रहेंगी। इसमें कोई दो मत नहीं कि कांग्रेस बेहद कमजोर हो चुकी है लेकिन इसके लिए बहुत हद तक उसमें आत्मविश्वास की कमी भी जिम्मेदार रही। राहुल गांधी एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष होने के बावजूद जब तेजस्वी यादव और अखिलेश के साथ बैठते हैं तब वे अपने महत्व का खुद भी अवमूल्यन कर लेते हैं। ये बात भाजपा पर भी उतनी ही लागू होती है। अब यदि कांग्रेस उप्र का चुनाव इस हौसले के साथ लड़े कि नरेंद्र मोदी को रोकने का काम वह अपने बलबूते करेगी तो उसके कार्यकर्ताओं और परंपरागत समर्थकों में भी उत्साह का संचार होगा। लेकिन राहुल गांधी के लिए ये आवश्यक होगा कि वे डटे रहें। बड़ी बात नहीं नुकसान के अंदेशे में मायावती और अखिलेश यादव कांग्रेस के सामने कुछ ज्यादा सीटों का दाना फेंके और वे उनके जाल में फंस जाएं। अभी तक एक भी सर्वेक्षण में कांग्रेस को 70 -80 लोकसभा सीटों से ज्यादा मिलने का अनुमान नहीं लगाया जा रहा। भाजपा के भी 2014 से पीछे खिसकने की बात कही जा रही है। ऐसे में इन दोनों को नादां की दोस्ती जी का जंजाल वाली स्थिति से बचना चाहिए। 1990 में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किए जाने पर जब भाजपा ने केंद्र की वीपी सिंह  सरकार के साथ ही उप्र की मुलायम सिंह और बिहार की लालू यादव सरकार से समर्थन वापिस लेने का फैसला किया तब  तात्कालिक लाभ के फेर में स्व. राजीव गांधी ने उन दोनों सरकारों को कांग्रेस के समर्थन से बचा लिया लेकिन उसके बाद कांग्रेस उक्त दोनों ही राज्यों में हांशिये पर खिसक गई। इसी तरह मुलायम सिंह यादव और मायावती के झगड़े में भाजपा ने मायावती को रक्षा कवच दिया। एक बार वही प्रयोग दोहराया भी गया लेकिन वह भाजपा को कितना महंगा पड़ा ये बताने की जरूरत नहीं है। समय आ गया है जब क्षेत्रीय दलों को उनकी सीमा का एहसास कराने दोनों राष्ट्रीय पार्टियां साहस और दूरगामी सोच के साथ आगे बढ़ें। संघीय ढांचे में क्षेत्रीय हितों के संरक्षण के लिए स्थानीय दलों का औचित्य है किंतु वे राष्ट्रीय हितों के लिए नुकसानदेह हों तो उनको कमजोर किया जाना ही हितकर होगा। सत्ता के लिए समझौते अपनी जगह हैं और समर्पण अपनी ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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