Tuesday 1 January 2019

2019 एक अवसर : बेहतर उपयोग हम पर निर्भर

कालगणना के लिहाज से आज से ईस्वी  कैलेण्डर का नया साल शुरू हो गया। हालांकि हर देश का  नववर्ष अलग होता है किन्तु अधिकृत तौर पर पूरी दुनिया ने ईस्वी वर्ष को ही मानक के तौर पर स्वीकार कर लिया है। भारत के विभिन्न अंचलों में भी  नव वर्ष अलग-अलग महीनों में शुरू होता है किंतु सरकारी तौर पर 1 जनवरी से ही नए कैलेंडर वर्ष की शुरुवात मानी जाती है। उस दृष्टि से आज 21 वीं सदी का 19 वाँ वर्ष प्रारंभ हो रहा है।  भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह वर्ष देश के लिए एक महत्वपूर्ण निर्णय का है। मई माह में नई केंद्र सरकार बनेगी जिसके लिए चुनाव की प्रक्रिया सम्भवत: अप्रैल से शुरू हो जाएगी। यूँ तो हमारे देश में चुनाव कभी खत्म ही नहीं होते।  2018 के अंतिम महीने में ही पांच राज्यों में  विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए। लोकसभा के साथ भी कुछ राज्यों के चुनाव करवाए जाएंगे किन्तु केंद्र सरकार के लिए होने वाला चुनाव चूंकि पूरे देश के भाग्य और भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है इसलिए इसे लेकर अधिक उत्सुकता देखी जाती है। संचार क्रांति और शिक्षा के विस्तार ने निर्वाचन प्रक्रिया में लोगों की रुचि बढ़ाई है। चुनाव आयोग द्वारा मतदान के लिए लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने हेतु किये जा रहे प्रयासों को अपेक्षित सफलता मिलना लोकतंत्र में बढ़ते विश्वास का प्रमाण है।  विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की तुलना महाकुम्भ जैसी ही है। संयोगवश इस वर्ष प्रयागराज में महाकुंभ भी है जिसके बाद लोकसभा चुनाव की हलचल शुरू हो जाएगी। यूँ तो चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक सामान्य प्रक्रिया है किन्तु 2019 का चुनाव कई मायनों में विशिष्ट होगा क्योंकि एक तरफ  तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर 2014 में मिली ऐतिहासिक विजय को दोहराने का दबाव रहेगा वहीं दूसरी तरफ  कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भी जबर्दस्त परीक्षा होगी। दोनों के भविष्य के लिए आने वाली गर्मियां निर्णायक होंगी। यदि श्री मोदी एनडीए की सरकार बना ले गए तो वे न सिर्फ राष्ट्रीय वरन अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर एक कद्दावर शख्सियत के तौर पर स्थापित हो जाएंगे और ये मान लिया जावेगा कि 2014 की जीत धुप्पल में मिली सफलता नहीं थी। दूसरी तरफ  कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ चुके हैं। बीते माह हिंदी अंचल के तीन राज्य भाजपा से छीनकर कांग्रेस ने जो कारनामा कर दिखाया उसने राहुल के कद को बढा दिया। लेकिन श्री मोदी और श्री गांधी दोनों के सामने एक समान समस्या ये है कि बिना अन्य दलों से गठबंधन किये वे बहुमत के जादुई आंकड़े को नहीं छू सकेंगे। हालांकि 2014 में श्री मोदी ने भाजपा को 282 सीटें दिलवाकर इतिहास रच दिया था किंतु वह इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि पार्टी ने एनडीए नामक गठबंधन तो बनाया ही बड़ी संख्या में दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकिट भी दीं। 2019 में भी भले ही राजनीतिक विश्लेषक मोदी और राहुल के बीच मुकाबला बता रहे हों किन्तु सच्चाई ये है कि दोनों गठबंधन नामक बैसाखी का सहारा लेने के लिए बाध्य हैं। भाजपा और कांग्रेस यद्यपि राष्ट्रीय दल की हैसियत रखते हैं किंतु उन्हें इस बात का एहसास हो चुका है कि बिना छोटे और क्षेत्रीय दलों के सत्ता तक पहुंचना सम्भव नहीं रहा। इस आधार पर अब किसी नेता का आकलन उसकी योग्यता से ज्यादा गठबंधन बनाने और चलाने की उसकी क्षमता से किया जाता है। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उक्त दोनों ही दल वर्तमान में अपने गठबंधन को मजबूत बनाने में जुटे हुए हैं। लेकिन इसका दुष्परिणाम अनुचित दबावों के समक्ष घुटने टेकने की शर्मिंदगी के तौर पर सामने आता है। यह एक विचारणीय स्थिति है क्योंकि राष्ट्रीय दलों द्वारा किये जाने गठबंधन के पीछे कोई नीति या सिद्धांत न होकर येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने की वासना ही प्रमुख है। जो विपक्षी दल भाजपा सरकार को हटाने के लिए एकजुट होने की कवायद कर रहे हैं उनका पूरा ध्यान केवल सौदेबाजी के जरिये अधिकतम स्वार्थसिद्धि है। भाजपा के साथ भी जो छोटे दल हैं वे भी सत्ता की मलाई मिलने के बाद और ज्यादा पाने की लालसा नहीं छोड़ पा रहे। इसका दुष्परिणाम देशहित में नीतियों के साहस के साथ क्रियान्वयन में आने वाले व्यवधानों के रूप में देखने मिलता है। क्षेत्रीय दलों के दबाववश अनेक ऐसे निर्णय रुक जाते हैं जो राष्ट्रीय महत्व के हैं। उस लिहाज से 2019 के लोकसभा चुनाव में चाहे एनडीए को बहुमत मिले या यूपीए को लेकिन ये निश्चित है कि भाजपा और कांग्रेस को अपने बलबूते सरकार बनाने का जनादेश नहीं मिलेगा। इन दोनों गठबंधनों से अलग तीसरे मोर्चे की खिचड़ी भी यदि पक गई तब त्रिशंकु की आशंका राष्ट्रीय राजनीति में अनिश्चितता का कारण बनी रहेगी। दुर्भाग्य का विषय ये है कि समूची राजनीति चाहे वह सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की नीतियों और सिद्धांतों से पूरी तरह भटककर चुनाव जीतने पर केंद्रित हो चुकी है जिसकी वजह से सर्वत्र अशांति , अव्यवस्था और अराजकता का बोलबाला हो गया है। हर क्षेत्र में दबाव समूह बन गए हैं जो पूरी व्यवस्था को अपनी उंगलियों पर नचाने पर आमादा हैं।  किसान , कर्मचारी , व्यापारी , उद्योगपति और इनसे हटकर साधारण मजदूर तक की सुनवाई तभी हो पाती है जब वे दबाव बनाने में सक्षम हों। चुनाव के मौसम में ये दबाव वोट बैंक का रूप ले लेते हैं। इस आधार पर ये कहना गलत नहीं होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव भी सतही और तात्कालिक महत्व के मुद्दों पर लड़ा जाएगा। अव्यवहारिक वायदे कर मतदाता को आकर्षित करने का बाजारवादी तरीका जीत का नुस्खा बन गया है। 21 वीं सदी के 18 बरस बीत जाने की बाद भी भारतीय राजनीति में जिस परिपक्वता की अपेक्षा की जाती थी वह दूरदराज तक नहीं दिखाई दे रही। और तो और जनतांत्रिक देश के सार्वजनिक जीवन में जो शुचिता, सौजन्यता और सामंजस्य मूलभूत गुण के रूप में होने चाहिए, उनका पूरी तरह से अभाव हो जाना बहुत ही दुखद और चिंताजनक है। रही बात जनता की तो वह भी नेताओं को आदर्श मानकर स्वार्थों के समझौते में उलझकर रह गई है। यदि देश और प्रदेश में आदर्श कहे जाने वाले नेतृत्व का अभाव हो गया है तो उसके लिए जनता भी कम कसूरवार नहीं है।  नए साल में नया सोचने और तदनुसार नया करने की अपेक्षा की जाती है। बेहतर हो  देश के आम नागरिक जो चुनाव के माध्यम से निर्णय प्रक्रिया के महत्वपूर्ण हिस्से हैं अपने दायित्व को समझकर आने वाले चुनाव में बुद्धि के साथ विवेक का भी समुचित उपयोग करते हुए ऐसे जनप्रतिनिधि का चयन करें जो छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठकर देश और जनता के व्यापक हितों का संवर्धन और संरक्षण करे। यदि मतदान करते समय हम क्षणिक स्वार्थ में फंसकर गलत चयन कर बैठे तो अगले पांच वर्ष तक उसका दंड हमें ही भोगना होगा। उस दृष्टि से 2019 देश के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर लेकर आया है। ये हमारे ऊपर है कि हम उसका उपयोग किस तरह करते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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