Monday 31 December 2018

क्योंकि वोट मंत्रियों को दिया है अधिकारियों को नहीं

मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ गत दिवस अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र छिंदवाड़ा गए। प्रदेश की सत्ता में आने के बाद ये उनका पहला दौरा था इसलिए समूचे क्षेत्र में जबर्दस्त उत्साह दिखाई दिया। बतौर सांसद श्री नाथ ने छिंदवाड़ा के विकास हेतु बहुत काम किये। यही वजह है कि अब मप्र में विकास के छिंदवाड़ा मॉडल की चर्चा सर्वत्र चल पड़ी है। लेकिन मुख्यमंत्री ने उसकी तारीफ  करने की बजाय ये घोषणा कर डाली कि अब नई योजनाओं का एलान मंत्रीगण नहीं अपितु अधिकारी किया करेंगे जिससे कि जनता उनसे उसके बारे में पूछ सके। लगे हाथ उन्होंने वहां के कलेक्टर से कुछ घोषणाएं भी करवा दीं जिन्हें पूरा करने की समय सीमा भी जनता को बताई गईं। मुख्यमंत्री इस नई कार्यशैली के जरिये प्रशासन का विकेंद्रीकरण करना चाह रहे हैं या जिम्मेदारी से अपने और अपने मंत्रियों को बचाना चाह रहे हैं ये तो भविष्य में स्पष्ट होगा लेकिन ऐसा करने से सरकार में बैठे लोग अपनी जिम्मेदारियों से बच जाएंगे ये सोचना सही नहीं होगा। नौकरशाही को सीधे जनता के प्रति जवाबदेह बनाकर उन पर दबाव डालना सैद्धांतिक तौर पर तो सही लग सकता है किंतु इसका दुष्परिणाम ये होगा कि अधिकारी स्वेच्छाचारी बन जाएंगे। किसी घोषणा को समय पर पूरा  करने का दायित्व अधिकारी पर डालने की बात तो समझ में आती है लेकिन किसी क्षेत्र की योजना के बारे में निर्णय करने की छूट नौकरशाही को दिए जाने का अर्थ ये भी निकाला जा सकता है कि मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रियों का कद शुरुवात में ही घटा  दिया है। मसलन जिन कलेक्टर ने गत दिवस मुख्यमंत्री के जिले के लिए  कुछ घोषणाएं करते हुए उन पर अमल होने की समय सीमा भी बताई अगर आने वाले दिनों में उनका तबादला या पदोन्नति के चलते वे अन्य स्थान पर चले जाएं और तब तक उस योजना का काम पूरा न हो सका तब जिम्मेदारी का निर्धारण किस प्रकार होगा इसका उत्तर किसी के पास नहीं है क्योंकि जो भी नया अधिकारी आएगा वह पिछले द्वारा छोड़े गए अधूरे काम का बोझ अपने सिर पर लेने से बचेगा। इससे भी बढ़कर तो ये है कि अधिकारी किसी स्थान पर कुछ बरस के लिए नियुक्त होते हैं। उनको क्षेत्रीय जरूरतों और समस्याओं की जमीनी सच्चाई ज्ञात हो ये आसान नहीं होता। ऐसे में जनप्रतिनिधि को दरकिनार करते हुए नौकरशाहों के हाथ में निर्णय प्रक्रिया छोड़ देना टकराव का कारण बन सकता है। भाजपा खेमे में एक आम चर्चा है कि प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाकर निर्देश दिया कि वे मंत्रियों के गलत आदेशों का पालन न करें। वैसा कहते समय उनके मन में शायद ये भाव रहा होगा कि इससे अधिकारी दबावमुक्त रहकर सही कार्य करने के प्रति प्रेरित होँगे किन्तु उसकी वजह से मंत्रियों की वजनदारी नौकरशाहों की नजर में घट गई जिसका असर ये हुआ कि केन्द्र सरकार  के कई अच्छे निर्णयों पर अमल करवाने में मंत्री अपने आधिकारियों पर अपेक्षित दबाव नहीं डाल सके। कमलनाथ बहुत ही व्यवहारिक और परिणाममूलक राजनेता माने जाते हैं। ये भी सही है कि चाहे प्रदेश में उनके अनुकूल सत्ता रही या प्रतिकूल, उनके कोई भी काम इसलिए नहीं रुकते थे क्योंकि वे प्रशासनिक अधिकारियों से निजी तौर पर अच्छे रिश्ते बनाये रखते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद यदि उन्हें लग रहा है कि उसी तरीके का इस्तेमाल करते हुए वे प्रदेश का शासन चला ले जाएंगे तो वे कहीं न कहीं खुशफहमी के शिकार लगते हैं। लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधि चाहे वह पंच, पार्षद, विधायक, सांसद या मंत्री हो, जनता के प्रति असली जवाबदेही उसी की बनती है क्योंकि चुनाव के समय मतदाताओं से वायदे वही करता है कलेक्टर या और कोई अधिकारी नहीं। मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद कोई जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के लिए किसी योजना को लागू करवाने के लिए नौकरशाह से कहे और जवाब में उसे सुनने मिले कि उसने तो पहले ही हुई दूसरी योजना बना  रखी है तब चुने हुए नेताजी क्या करेंगे इस सवाल का उत्तर खोजना भी जरूरी होगा। प्रदेश के बजट में घोषित होने वाली योजनाओं के क्रियान्वयन का दायित्व भी प्राथमिक रूप से तो सरकार का ही होता है। ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा जिस नई कार्य संस्कृति का एलान किया गया वह प्रशासनिक अराजकता और अव्यवस्था का कारण बन जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने एक मर्तबा कहा था कि नौकरशाही वह घोड़ा है जो अपने सवार की मर्जी से चलता है बशर्ते उसमें लगाम खींचने की क्षमता हो। मप्र की पिछली सरकार को लेकर भाजपाइयों को भी ये शिकायत बनी रही कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चंद वरिष्ठ नौकरशाहों की चौकड़ी में घिरे रहते थे। जिसके कारण अच्छी योजनाएं और कार्यक्रम भी सही ढंग से लागू नहीं हो सके। किसानों के लिए किए गये अनेक एलान जमीन पर इसलिए नहीं उतर सके क्योंकि भ्रष्ट सरकारी अमले ने बीच में ही भांजी मार दी। कांग्रेस विपक्ष में रहते हुए प्रशासनिक भ्रष्टाचार को लेकर शिवराज सरकार को घेरती रही किन्तु कमलनाथ ने जिस अंदाज में योजनाओं की घोषणा और अमल का दारोमदार अधिकारियों पर छोड़ दिया उससे लगता है कि सत्ता बदलने के बाद भी व्यवस्था बदलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी मप्र में नौकरशाही का शासन-प्रशासन पर वर्चस्व काफी पुराना है। अर्जुन सिंह के समय से ही कुछ अधिकारियों को सर्वशक्तिमान बनाकर सरकार चलाने का सिलसिला चल पड़ा जो आगे के दौर में भी यथावत रहा। मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र कुछ अधिकारी पूरी सरकार के पर्यायवाची बने रहे। यही वजह है कि सरकार बदलते ही प्रशासनिक सर्जरी जैसा काम किया जाता है। जबकि शासकीय अधिकारी किसी राजनीतिक दल के नहीं होते। कमलनाथ ने अपना मंत्रीमंडल गठित करते समय सभी 28 मंत्रियो को कैबिनेट दर्जा देकर ये संकेत दिया था कि वे मंत्रियों को ज्यादा ताकतवर बनाएंगे लेकिन छिंदवाड़ा में की गई घोषणा के बाद मंत्रियों का महत्व एक झटके में कम कर दिया गया। इसके बाद यदि पहले से मदमस्त नौकरशाही और भी निरंकुश हो जाये तो वह नितांत स्वाभाविक होगा। और यदि सरकारी योजनाओं की घोषणा और उस पर अमल करने का काम अधिकारी वर्ग को ही करना हो तब इतने सारे मंत्रियों की भी क्या जरूरत है जिनके अनुभव और शैक्षणिक योग्यता पर हर समय सवाल उठा करते हैं। कमलनाथ की जो भी सोच हो किन्तु उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि जनता अधिकारियों से नहीं बल्कि उनसे और मंत्रियों से सवाल पूछेगी क्योंकि उसने वोट भी तो उन्हीं को दिया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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