Thursday 6 December 2018

1948 से 2018 : और कितना इतंजार

आज 6 दिसम्बर है। कहने को ये एक तारीख है लेकिन भारत्तीय संदर्भ में इसका जिक्र होते ही 1992 की याद आ जाती है जिस दिन अयोध्या में एकत्रित हुई कारसेवकों की भीड़ ने बाबरी ढांचे को धराशायी कर दिया था। उस घटना ने देश
राजनीति को गहराई तक प्रभावित किया। अनेक सरकारें उसके नाम पर बनी और बिगडीं। बड़ी - बड़ी हस्तियों के विरुद्ध आपराधिक षड्यंत्र के प्रकरण दर्ज हुए जिनका फैसला आज तक नहीं हो सका। उक्त कांड के मूल में राम जन्मभूमि का विवाद था। हिन्दू समुदाय का विश्वास है कि जिस ढांचे को गिराया गया वही वस्तुत: भगवान राम का जन्मस्थल है जिस पर मुगल शासक बाबर के ज़माने में उनके सेनापति मीर बाकी ने एक मस्जिद खड़ी कर दी। देश आजाद होने के पहले से हिन्दू समुदाय उस बात को लेकर भावनात्मक रूप से आहत था लेकिन कुछ कर नहीं सका। आज़ादी के बाद से संपत्ति विवाद के नाम पर ये मुद्दा उठा। लंबे समय तक अदालती कार्रवाई में उलझे रहने के बाद भी कोई समाधान नहीं निकला तब स्व. राजीव गांधी के शासनकाल में ढांचे के एक छोटे से हिस्से में लगे उस ताले को खुलवा दिया गया जिसमें भगवान की मूर्तियां रखी थी। यदि वह ताला नहीं खुलवाया जाता तब शायद यथास्थिति बनी रहती। ज्योंही जन्मभूमि का ताला खुला त्योंही हिन्दुओं की उम्मीदें परवान चढऩे लगीं। यदि राजीव सरकार बजाय ताला खुलवाने के हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच सुलह करवाकर कोई सकारात्मक समाधान निकालने की बुद्धिमत्ता दिखाती तब हो सकता है जो 6 दिसम्बर 1992 को हुआ वह नहीं होता। सही बात ये है कि भारत में किसी समस्या का स्थायी समाधान निकालने की बजाय तदर्थ उपायों पर जोर दिया जाता है। अयोध्या मामले में भी पंडित नेहरू के ज़माने से राजीव गांधी तक इसी फार्मूले पर काम किया गया जिसकी वजह से मामला जिस स्थिति में देश आजाद होने के समय था उसी में अटका रह गया। अदालत में भूमि स्वामित्व को लेकर चल रहे प्रकरण को भी एक साधारण जमीन के झगड़े की तरह सुलझाने  की सोच ने भी यथास्थिति बनाये रखने में मदद की। कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं होगा कि देश और उ. प्र. की सत्ता में बैठे हुक्मरानों ने कभी अयोध्या विवाद को शांतिपूर्वक सुलझाने की पहल नहीं की। राजीव सरकार के दौर में जब जन्मभूमि का ताला खुला और रामलला की पूजा शुरू हुई तब भी यदि 400 सीटों वाली केंद्र सरकार चाह लेती तब ताला खुलवाने के साथ ही वह हिन्दू और मुसलमानों के बीच कोई ऐसा समाधान निकाल सकती थी जिससे कि सौहार्द के साथ विवाद सुलझ जाता। लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि राजीव भी अपनी ही पार्टी के कुछ नेताओं के कहने में आकर काम करते रहे और बजाय सुलझने के झगड़ा और बढ़ गया। 1989 में राजीव चुनाव हार गए और फिर शुरू हुआ मंडल-कमंडल का मुकाबला। वीपी सिंह मंडल आयोग लेकर आये तो लालकृष्ण आडवाणी रथ लेकर निकल पड़े। उनकी गिरफ्तारी ने वीपी सरकार को चलता किया । स्मरणीय है उसके पहले तक हिन्दू संगठन और साधु-महात्माओं की तरफ  से राम जन्मभूमि हिंदुओं को सौंप देने की मांग जोर पकडऩे लगी थी। 30 अक्टूबर 1990 को बड़ा आंदोलन भी हुआ जिसमें राज्य की मुलायम सरकार ने गोली चलवाकर आग में घी डालने की मूर्खता कर दी। उसके बाद जो हुआ वह सर्वविदित है। चंद्रशेखर सरकार बनी लेकिन चली नहीं। 1991 के लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। लेकिन उन्होंने भी इस मसले पर कुछ नहीं किया। परिणामस्वरूप 6 दिसम्बर 1992 की घटना घटी जिसके बाद दोनों समुदायों के बीच कटुता और बढ़ी, ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा। तदुपरांत धार्मिक ध्रुवीकरण और तेज हुआ। राजनीतिक अस्थिरता इस हद तक बढ़ी कि 96, 98 और 99 में लोकसभा चुनाव करवाने पड़े। 1999 से 2004 तक अटलबिहारी वाजपेयी सत्ता में रहे लेकिन सहयोगियों के दबाव की वजह से वे भी कुछ नहीं कर सके। आखिऱकार आस्था के विवाद पर अदालत का फैसला मानने की बात दोनों तरफ  से शुरू हो गई। मनमोहन सरकार के समय अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला देते हुए विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला सुना दिया। जिसके विरुद्ध अपीलें हुईं। जो सर्वोच्च न्यायालय में अटकी हैं। यहां  भी कछुआ गति से काम हो रहा है । लंबी-लंबी पेशियां लगती हैं। दैनिक सुनवाई का आश्वासन भी रद्दी की टोकरी में चला गया। न्यायाधीश बदलते ही मामला टलता जाता है। 2014 में नरेंद्र मोदी की कप्तानी में पहली बार भाजपा को बहुमत मिला तब माना जाने लगा कि ये सरकार अपने समर्थक वर्ग की आकांक्षाओं पर खरी उतरेगी लेकिन हुआ कुछ नहीं। उधर संत समुदाय दबाव बना रहा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जल्द सुनवाई की मांग ठुकराने पर अध्यादेश की मांग भी जोर पकडऩे लगी। लोकसभा चुनाव नजदीक है और ये सही है कि ये विवाद धार्मिक के साथ राजनीतिक दांव-पेंच का भी हिस्सा बन गया है। केन्द्र सरकार खुलकर कुछ बोल नहीं रही। अब यदि वह अध्यादेश लाती भी है तब उसे चुनावी पैंतरा ही माना जावेगा। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई तो कह ही चुके है कि ये विवाद उनकी प्राथमिकताओं में नहीं है इसलिए जल्द निर्णय की उम्मीद न करें। कुल मिलाकर जैसे थे की स्थिति बनी हुई है । विपक्ष भाजपा पर मंदिर मुद्दे का राजनीतिक लाभ लेने का आरोप लगाता है और भाजपा उस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का। हिन्दू -मुस्लिम धर्माचार्य भी मिल बैठ चुके किन्तु कोई समाधान नहीं निकल पाया। 1948 से 1992 और उसके बाद 2018 आ गया किन्तु एक छोटा सा भूमि स्वामित्व का अदालती प्रकरण सरकारें गिराने-बनाने का कारण बनने के बाद भी अनसुलझा ही है। ये स्थिति हमारी निर्णय क्षमता पर प्रश्रचिन्ह खड़े करने के लिए पर्याप्त है। पहले केवल कांग्रेस और अन्य पार्टियां कठघरे में थीं किन्तु 1999 से 2004 और 2014 से 2018 के दौरान भाजपाई प्रधानमंत्री होने के बावजूद राममंदिर मुद्दा जस का तस पड़ा रहने से अब भाजपा भी सवालों के घेरे में है। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर केंद्र सरकार इस दिशा में कोई ठोस पहल यदि करती भी है तो उसे चुनावी पैंतरा मानकर विवादित किया जावेगा । ये सब देखकर लगता नहीं है कि विवाद जल्द सुलझेगा। वैसे इससे बड़ी हास्यास्पद और साथ ही दुखद बात क्या होगी कि इस देश की 80 प्रतिशत बहुसंख्यक जनता के आराध्यदेव की जन्मस्थली का विवाद सुलझने की बजाय उलझता ही जा रहा है। अनिर्णय और अनिश्चितता की ऐसी ही स्थिति 6 दिसम्बर 1992 का कारण बनी थी। दुर्भाग्य से हमने इतिहास से सबक लेने की प्रवृत्ति को गहराई तक दफन कर रखा है । हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने धर्म के आधार पर देश के विभाजन जैसा कठिन फैसला तो कर लिया लेकिन हिंदुओं की भावनाओं और आस्था के इतने बड़े केंद्र का विवाद सुलझाने में वे असफल साबित हुए। बाबरी ढांचा गिरने के ढाई दशक बाद भी इस विवाद की यथास्थिति को देखकर लगता है फिर किसी हादसे का इंतज़ार हो रहा है। सियासत के सौदागरों को याद रखना चाहिए कि मथुरा और काशी भी कालांतर में बड़ा मुद्दा बनने की प्रतीक्षा में हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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