Monday 3 December 2018

चुनाव आयोग अपनी कमियां भी देखे

मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने सेवा निवृत्त होते ही नोटबन्दी को विफल बताते हुए कहा कि चुनावों के दौरान जप्त होने वाला काला धन इसका प्रमाण है। उन्होंने ये भी कहा कि उच्चस्तरीय स्रोतों से इसकी आवक होती है। यद्यपि उन्होंने ये नहीं बताया कि ये उच्चस्तरीय स्रोत क्या हैं? ये भी उल्लेखनीय है कि देश के वरिष्ठ नौकरशाह श्री रावत ने चुनाव आयोग के मुखिया रहते हुए नोटबन्दी और काले धन की चर्चा कभी नहीं की। वैसे भी हमारे देश में पद से हटने के उपरांत ही नेताओं और नौकरशाहों को दिव्यज्ञान प्राप्त होता है। उस दृष्टि से श्री रावत ने कोई अनोखा काम नहीं किया किन्तु अब जब वे पदमुक्त हो चुके हैं तब उन्हें निष्पक्ष और निडर होकर उनके कार्यकाल में चुनाव आयोग द्वारा जप्त किये गए काले धन के बारे में विस्तृत जानकारी देश के साथ बांटना चाहिए। हर चुनाव में काला धन पकड़े जाने की खबरें सुर्खियां बनती हैं। लेकिन आज तक देश को नहीं पता कि उन मामलों में किसको कितनी सजा मिली? नोटबन्दी के बाद ही उप्र में विधानसभा चुनाव हुए थे। उस दौरान वहां बड़ी मात्रा में काला धन पकड़ा गया था लेकिन आज तक चुनाव आयोग, पुलिस अथवा आयकर विभाग ये नहीं बता सका कि उसका मूल स्रोत क्या था? और शायद बता भी नहीं पायेगा। ऐसे में ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि आयोग की तमाम सख्ती के बावजूद काले धन का उपयोग यदि कम नहीं हो पा रहा तब इस समस्या का इलाज क्या है? गत 28 नवम्बर को सम्पन्न हुए मप्र विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा खर्च के जो आंकड़े प्रस्तुत किये गए वे पूर्णत: अवास्तविक हैं। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि तीन-चार  लाख रु. में भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवार ने चुनाव लड़ा होगा? चुनाव आयोग की सख्ती के बाद भले ही मैदानी प्रचार में कमी नजऱ आती हो किन्तु वास्तविकता ये है कि चुनाव में काले धन का उपयोग बेरहमी से होता है। श्री रावत सेवा निवृत्ति के बाद इस बारे में अपने अनुभव यदि सार्वजनिक कर सकें तो ये लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा। यद्यपि आजकल नौकरशाहों के मुंह में भी सियासत का खून लग चुका है। शासकीय सेवा से निवृत्त होने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होकर या तो वे चुनाव लड़ लेते हैं अथवा सत्ता प्रतिष्ठान के नजदीक रहकर कुछ न कुछ हथिया लेते हैं। टीएन शेषन के बाद देश के मुख्य चुनाव आयुक्त बने एमएस गिल तो सेवा निवृत्त होने के  बाद कांग्रेस में सम्मिलित होकर मनमोहन सरकार में राज्यमंत्री बन गए और वह भी अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण विभाग के। उस दृष्टि से श्री रावत भी यदि मन में कोई महत्वाकांक्षा पालकर बैठें हों तब किसी को आश्चर्य नहीं होगा। सेवा निवृत्त होते ही उन्होंने यदि चुनाव में काले धन के बेधड़क उपयोग पर चिंता व्यक्त की होती तब उसे सामान्य प्रतिक्रिया मानकर चला जा सकता था लेकिन उन्होंने नोटबन्दी को विफल बताकऱ ये संकेत दे दिया कि वे किसी न किसी राजनीतिक उद्देश्य के प्रति आकर्षित हैं। सच बात तो ये है कि चुनाव में काले धन  का उपयोग रोकने में अब तक किये गये तमाम प्रयास सतही तौर पर भले ही असरकारक दिखे हों लेकिन वास्तविकता इसके ठीक उलट है। ऊपरी तौर पर चुनावी तामझाम पर आयोग की सख्ती का असर दिखता हो पर वास्तविकता इससे बहुत हटकर है। पैसा, शराब और अन्य उपहार पहले से ज्यादा बंटते हैं। झंडे-बैनर का खर्च बेशक कम हुआ तथा दीवारें रंगने पर भी रोक लग गई लेकिन दूसरे खर्च बेतहाशा बढ़ गए। श्री रावत का ये कथन अपनी जगह सत्य है कि चुनाव के दौरान बड़ी मात्रा में काला धन जप्त होता है किंतु इसे नोटबन्दी की विफलता बताकऱ चुनाव आयोग अपना पल्ला नहीं झाड़ सकता। ज्यादा बेहतर होता यदि निवृत्ति के अवसर पर श्री रावत स्वीकार करते कि हर तरह की सख्ती के बावजूद चुनाव आयोग काले धन के उपयोग को नहीं रोक सका। और इसकी वजह उसके द्वारा की गई अनावश्यक कड़ाई भी है जिसने चुनाव को काफी हद तक नीरस बना दिया। खर्च संबंधी बंदिशों का असर मात्र इतना हुआ कि जो पैसा खुलकर लुटाया जाता था वह पर्दे के पीछे खर्च होने लगा है। अखबारी विज्ञापनों पर आयोग ने नियंत्रण किया तो पेड न्यूज नामक बुराई ने जन्म ले लिया। पहले बड़े बड़े नेताओं का आगमन रेल और सड़क मार्ग से होता था लेकिन आजकल तो छुटभैये नेता तक हेलीकॉप्टर से आते-जाते हैं। आम सभाओं के आयोजन पर जितना खर्च होता था उससे कहीं ज्यादा होटलों में आयोजित गोष्ठियों में होता है। आचार संहिता के चलते नेताओं को सरकारी विश्रामगृहों की जगह होटलों में ठहराया जाने लगा है। कुल मिलाकर चुनाव में होने वाला खर्च नाम के लिए कम हो गया हो किन्तु हर चुनाव पहले से महंगा होता जा रहा है। मप्र में जबलपुर संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आठ विधानसभा  सीटों पर लड़े सभी प्रत्याशियों ने खर्च के जो आंकड़े पेश किये उनसे अधिक तो प्रशासन ने मतदान बढ़ाने के लिए कराए प्रचार में व्यय कर दिए। सच्चाई ये है कि चुनाव को कम खर्चीला बनाने के सारे प्रयास विफल हुए हैं। चुनाव आयोग को खुले मन से  स्वीकार करना चाहिए कि वह सख्ती के नाम पर कई ऐसे अव्यवहारिक फैसले लेता है जिन पर अमल कर पाना तकरीबन असम्भव है। बेहतर होगा यदि श्री रावत मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ-साथ बतौर प्रशासनिक अधिकारी प्राप्त अनुभवों के आधार पर ये बताते कि चुनाव आयोग चुनाव प्रक्रिया में वांछित सुधार के साथ ही चुनावी खर्च को लेकर बजाय इकतरफा अव्यवहारिक फैसलों के ऐसा कुछ करे जिसका असर हो सके। चुनाव और काला धन दोनों समानार्थी हो चले हैं लेकिन खर्च जिस मात्रा में बढ़ रहा है उसमें कमी करने की बजाय आयोग इधर-उधर की बातों को उठाकर बेवजह की बहस को जन्म दे उसकी बजाय उसे इस हकीकत को समझना चाहिए कि काले धन के उपयोग को रोकने में  यदि वह विफल रहा है तो उसके लिए उसके अपने निर्णय भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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