जब उर्जित पटैल को रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया गया तब विपक्ष ने प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया था कि उन्होंने अम्बानी परिवार के रिश्तेदार को देश के सबसे बड़े मौद्रिक संस्थान की कमान सौंप दी। हालांकि श्री पटैल रिजर्व बैंक के वरिष्ठतम अधिकारी होने के नाते रघुराम राजन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे। गत दिवस उर्जित ने स्तीफा दे दिया। अभी उनका 9 महीने का कार्यकाल शेष था। इसके पीछे जो वजह बताई जा रही है वह काफी हद तक सही भी है। केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के बीच अधिकारों और नीतियों के क्रियान्वयन को लेकर उत्पन्न मतभेद इसकी जड़ में हैं। उल्लेखनीय है डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने हाल ही में एक सार्वजनिक समारोह में केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर खतरे का बखान करते हुए सनसनी मचा दी थी। पिछले गवर्नर रघुराम राजन को मनमोहन सरकार अमेरिका से बुलाकर लाई थी जिनकी मोदी सरकार से पटरी नहीं बैठने की वजह से उन्हें त्यागपत्र देने मज़बूर कर दिया गया लेकिन उर्जित तो इसी सरकार द्वारा नियुक्त किये गए थे इसलिए दोनों के बीच मतभेद की खबर से लोगों को आश्चर्य भी हुआ। बहरहाल अब तो वे जा ही चुके हैं इसलिए जो बातें दबी रहीं वे भी खुलकर सामने आएंगीं। हालांकि प्रधानमन्त्री और वित्तमंत्री ने श्री पटैल के स्तीफे पर जो प्रतिक्रिया दी उसमें उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई वहीं त्यागपत्र में निजी कारणों का हवाला देते हुए श्री पटैल ने भी सौजन्यता बरती। बावजूद इसके विपक्ष को फिर एक बहाना मिल गया सरकार को घेरने का। आर्थिक सलाहकार श्री सुब्रमण्यम के स्तीफे के कुछ दिन बाद रिजर्व बैंक के गवर्नर का स्तीफा निश्चित रूप से चर्चा का विषय होना चाहिए और इससे ये संकेत मिलता है कि केंद्र सरकार का उच्च स्तर पर बैठे आर्थिक नौकरशाहों से तालमेल नहीं बैठ रहा था। जहाँ तक सवाल रिजर्व बैंक के गवर्नर का है तो बीते कुछ समय से नीतिगत मुद्दों पर केंद्र और उनके बीच टकराव चल रहा था। विशेष रूप से ऋण ब्याज दर कम करने, बैंकों के पास नगदी बढ़ाने और एनपीए को लेकर बेहद सख्त प्रावधान किए जाने को लेकर मतभेद गहराते जा रहे थे। केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक को इस बारे में कई बार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर आगाह भी किया कि उसकी नीतियों के क्रियान्वयन में बैंक के निर्णय बाधा बन रहे हैं किंतु समय-समय पर होने वाली मौद्रिक समीक्षा में केंद्रीय बैंक ने सरकार के अनुरोध पर जरा भी ध्यान न देते हुए रेपो रेट में वांछित परिवर्तन नहीं किये जिससे उद्योग व्यापार जगत बहुत नाराज था। नोटबन्दी और जीएसटी से व्यापार जगत को जो परेशानी हुई उसे दूर करने के लिए केंद्र चाहता था कि रिजर्व बैंक अपना रुख लचीला करे किन्तु वैसा नहीं हुआ और इसी कारण खींचातानी बढ़ती गई। हाल ही में केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक से अधिक लाभांश की मांग की जिससे विकास परियोजनाओं के काम में तेजी लाई जा सके किन्तु उस पर भी श्री पटैल राजी नहीं हुए। रिजर्व बैंक में सरकारी हस्तक्षेप के लिए किए गए विशेष प्रावधानों के प्रयोग की बात भी इस दौरान उठी। विवाद सुलझाने के लिए केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के बीच लगातार 9 घंटे तक बैठक भी हुई जिसके उपरांत ये माना जा रहा था कि मतभेद दूर हो गए किन्तु गवर्नर द्वारा स्तीफा दिए जाने के बाद लगता है बात बनी नहीं। रिजर्व बैंक सहित तमाम आर्थिक विशेषज्ञ इसे लेकर परस्पर विरोधी विचार व्यक्त करते रहे हैं। रिजर्व बैंक की स्वायत्तता निश्चित तौर पर आवाश्यक है किंतु दूसरी तरफ ये भी सही है कि भारत में राजनीति का जो मॉडल चल पड़ा है उसमें लोक-लुभावन नीतियों को लागू करने के लिए सरकारें बैंकिंग प्रणाली का खुलकर दोहन करती हैं जिसकी शुरुवात इंदिरा जी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के उपरांत हुई। पहले तो केवल शासकीय योजनाओं के अन्तर्गत कर्ज बाँटने तक ही मामला सीमित था लेकिन बढ़ते-बढ़ते बात कर्ज माफी तक जा पहुंची। हाल ही में राज्य विधान सभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने किसानों के कर्ज माफ करने का जो वायदा किया उसके परिणामस्वरूप किसानों ने कर्ज की अदायगी रोक दी। उप्र में यही दांव भाजपा ने आजमाकर सत्ता हासिल की थी। ऐसा ही खेल बिजली को लेकर हुआ। गरीब बस्तियों और किसानों को सस्ती बिजली और बकाया बिल माफ कर देने के कारण बिजली बोर्ड कंगाली की स्थिति में जा पहुँचे हैं। कुल मिलाकर हो ये रहा है कि चुनाव जीतने के लिए अपनाई जा रही नीतियों और वित्तीय अनुशासन के बीच जंग चल रही है। आज भले विपक्ष केंद्र की वर्तमान सरकार को दोष दे किन्तु वित्तीय संस्थानों में राजनीतिक हस्तक्षेप नया नहीं हैं। उस लिहाज से मोदी सरकार ने कोई नया काम नहीं किया। पिछली सरकार ने जिस तरह आंखें बंद कर बड़े उद्योगपातियों को कर्ज बांटे उसकी वजह से सरकारी बैंकों की कमर टूट गई। वसूली का प्रयास हुआ तो कई बड़े कर्जदार देश छोड़कर फुर्र हो गए। ऐसे में जरूरत थी अर्थव्यव्यस्था में मौद्रिक तरलता बनाये रखने के लिए मुद्रा का प्रवाह बढ़ाया जावे और यही शायद केंद्र सरकार उर्जित पटैल से अपेक्षा कर रही थी किन्तु महंगाई बढऩे के खतरे के नाम पर उसकी मंशा रिजर्व बैंक ने पूरी नहीं होने दी। दूसरी तरफ एनपीए घटाने के नाम पर वसूली का दबाव जहां तेज किया वहीं नये ऋण बांटने पर अघोषित पाबंदी लगाकर उद्योग व्यापार जगत को निराश कर दिया। और भी कई कारण हैं जिनकी वजह से केंद्र और रिजर्व बैंक के बीच मतभेदों की खाई चौड़ी होती जा रही थी। उर्जित पटैल की सोच उनके स्तर पर ठीक होगी लेकिन चंद महीनों बाद चुनाव का सामना करने के पहले मोदी सरकार यदि अपने अनुकूल परिस्थितियां चाह रही है तब उसे भी सिरे से नकारा नहीं जा सकता। उस दृष्टि से उर्जित पटैल द्वारा स्तीफा दिया जाना ही ठीक था क्योंकि यदि वे पद से नहीं हटते तब उनका भी हश्र रघुराम राजन जैसा होता। केंद्र सरकार को भी इस मामले में पूरी तरह गलत नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि स्वायत्तता के बावजूद भी रिजर्व बैंक द्वारा चुनी हुई सरकार को पूरी तरह से नजरअंदाज करना भी किसी भी तरह से अच्छा नहीं होता। नियंत्रण और संतुलन की जो व्यवस्था है उसका पालन दोनों तरफ से हो यही आदर्श स्थिति होती है। मर्यादा का तकाजा है कि राजनेता और आर्थिक प्रबंधन के दायित्ववान अधिकारी अडिय़ल रुख छोड़कर देश के दूरगामी हितों का ध्यान रखें।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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