Saturday 15 December 2018

रॉफेल : वरना आरोपों की गंभीरता खत्म हो जाएगी

रॉफेल लडाकू विमानों की खरीदी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में पेश की गई सभी याचिकाएं प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने खारिज कर दीं। खरीद प्रक्रिया और ऑफसेट पार्टनर के चयन को न्यायालय ने नियमानुसार मानकर विमानों की खरीदी को राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अत्यावश्यक बताते हुए कहा कि वह अपने स्तर पर इस बात से संतुष्ट है कि याचिका में लगाए गए आरोप तथ्यहीन हैं।  निर्णय में ये भी कहा गया कि जिस जानकारी को छिपाए जाने की बात कही गई वह सीएजी ( नियंत्रक , लेखा महापरीक्षक ) को दे दी गई है और लोकलेखा समिति ने भी उसे देख लिया है।  फैसला आते ही मोदी सरकार विजेता भाव से झूम उठी।   भाजपा ने फौरन राहुल गांधी से झूठ बोलने के लिए माफी मांगने की मांग कर डाली।  लेकिन दूसरी तरफ  से भी हार नहीं मानी गई।  याचिकाकर्ता अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने न्यायालय के फैसले को सिरे से नकारते हुए उसकी आलोचना कर डाली।  दूसरी तरफ  राहुल गांधी ने पत्रकार वार्ता करते हुए आरोप लगा दिया कि सर्वोच्च न्यायालय ने जिस सीएजी रिपोर्ट का हवाला दिया वह है ही नहीं। ऐसे में लोक लेखा समिति के समक्ष ऐसी किसी रिपोर्ट के प्रस्तुत होने का प्रश्न ही नहीं उठता।  उन्होंने प्रधानमंत्री पर अनिल अम्बानी को उपकृत करने का आरोप लगाते हुए कहा कि वे जेपीसी ( संयुक्त संसदीय समिति ) की जांच के लिए इसलिये तैयार नहीं हैं क्योंकि उनके और अनिल अम्बानी के फंसने के पूरे आसार हैं।  भाजपा भी राहुल पर चौतरफा हमले करते हुए कह रही है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अब कांग्रेस अध्यक्ष के आरोपों की हवा निकल चुकी है।  दोनों तरफ  से चले शब्दबाणों के बीच ये प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि प्रधान न्यायाधीश की तीन सदस्यीय पीठ ने क्या आधे-अधूरे दस्तावेज देखकर ही याचिकाएं खारिज कर दी ? क्योंकि यदि ऐसा है तब तो न्याय की सर्वोच्च पीठ ही अविश्वसनीय हो जाएगी।  और यदि सरकार ने सीएजी रिपोर्ट सम्बन्धी झूठा हलफनामा देकर न्यायालय को गुमराह किया तब तो ये सरासर जालसाजी है जिसके लिए जिम्मेदार लोगों को सख्त सजा मिलनी चाहिए फिर उनमें चाहे प्रधानमन्त्री ही क्यों न हों ? राहुल द्वारा जेपीसी की जो मांग उठाई जा रही है उसका औचित्य सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कितना रह जाता है ये भी विचारणीय है क्योंकि लोकसभा चुनाव को चंद महीने बचे हैं।  ऐसे में जो भी समिति बनेगी वह इतनी जल्दी अपना कार्य पूरा कर सकेगी इसमें सन्देह ही है।  संसदीय समिति के भीतर भी दलगत विरोध के चलते गतिरोध होते हैं जिसका उदाहरण पिछली लोकसभा में लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के तौर पर डॉ. मुरलीमनोहर जोशी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का कांग्रेसी सदस्यों द्वारा किया गया विरोध था।  चूंकि जेपीसी भी बहुदलीय होती है इसलिए उसमें भी वही सब संभावित है जो संसद के भीतर तकरीबन रोजाना दिखाई देता है।  ऐसा नहीं है कि राहुल और उनके सलाहकार ये नहीं जानते लेकिन लोकसभा चुनाव तक रॉफेल सौदे में भ्रष्टचार का मुद्दा जीवित रखना उनकी राजनीतिक मजबूरी है क्योंकि आम जनता को भ्रष्टाचार के मामले समझाना ज्यादा आसान होता है।  लेकिन एक सवाल का जवाब कांग्रेस अध्यक्ष को भी देना चाहिए।  जब सर्वोच्च न्यायालय में रॉफेल सम्बंधी याचिकाएं लगीं तब कांग्रेस उसमें शरीक क्यों नहीं हुई जबकि उसके पास भी एक से एक दिग्गज वकीलों की फौज है।  सीबीआई निदेशक को अवकाश पर भेजे जाने के विरोध में प्रस्तुत याचिकाओं में लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े भी उस मामले में अदालत गए तब क्या कारण था कि राहुल गांधी हर जगह तो रॉफेल घोटाले पर चिल्लाते फिरते हैं और नरेन्द्र मोदी को नाम न लेते हुए चोर कहने से बाज नहीं आते किन्तु इस प्रकरण को न्यायपालिका के सामने ले जाने की बात पर पीछे हट जाते हैं।  जेपीसी की मांग भी संसद ही पूरी कर सकती है जिसमें भाजपा का वर्चस्व है।  इन्हीं सब बातों से लगता है कि श्री गांधी बिना किसी ठोस जानकारी के चोर - चोर चिल्लाते हुए घूम रहे हैं।  लोकसभा चुनाव में वे इसे अपना ब्रह्मास्त्र बनाना चाहते हैं।  विपक्ष के नेता के तौर पर सामान्यत: उनका ऐसा करना गलत भी नहीं लगता किन्तु रॉफेल कोई सड़क या पुलिया जैसा विषय न होकर सुरक्षा से जुड़ा होने की वजह से बेहद संवेदनशील है।  ऐसे सौदों में गोपनीयता का अपना महत्व है किंतु साथ ही पारदर्शिता भी होना चाहिए।  अन्यथा धजी का सांप बनते देर नहीं लगती।  रक्षा सौदे चूंकि सन्देह के घेरे में रहे हैं इसलिए इस मामले में भी सन्देह किये जाने पर एक वर्ग आरोपों पर विश्वास कर रहा है किन्तु अब तक किसी की भी पुष्टि न होने से राजनीति की बू भी आ रही है।  एक ही झूठ को सौ मर्तबा बोलकर सत्य साबित करने जैसी बातें भी उठ रही हैं। लेकिन इस बारे में सत्ता पक्ष भी उन आरोपों का समुचित जवाब नहीं दे पा रहा।  रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने हालांकि संसद और बाहर काफी विस्तार से स्पष्टीकरण दिए।  वरिष्ठ मंत्री रविशंकर प्रसाद भी नियमित सरकार की तरफ  से मुखरित होते हैं लेकिन श्री गांधी इस मुद्दे पर केवल प्रधानमंत्री पर निशाना साध रहे हैं इसलिये ये माना जा रहा है कि जवाब भी उनकी तरफ  से आना चाहिए।  हालांकि श्री मोदी के लिए रोज-रोज कांग्रेस अध्यक्ष के आरोप का स्पष्टीकरण देना सम्भव नहीं हो सकता और ये भी जाहिर है कि राहुल उनके जवाब के बाद भी चुप नहीं बैठने वाले क्योंकि रॉफेल विवाद में ही उन्हें सत्ता की राह नजर आ रही है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने उनके हमले की धार थोड़ी कमजोर तो की है क्योंकि प्रधान न्यायाधीश की निष्पक्षता और न्यायप्रियता पर कोई सन्देह अब तक नहीं किया जा सका है।  राहुल गांधी यदि पर्याप्त सबूतों के साथ अदालत में सरकार को झूठा साबित नहीं करते तब फिर बार-बार एक ही आरोप को दोहराने से उसकी गम्भीरता खत्म होती जायेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को राहुल भले सरकार के लिए क्लीन चिट नहीं मानें लेकिन आम जनमानस तक तो यही संदेश गया है कि रॉफेल सौदा पूरी तरह से सही और जरूरी था।  सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से याचिकाओं को थोक में रद्द किया उससे असहमत होना अलग बात है और विरोध के लिए विरोध करना अलग।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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