Wednesday 12 December 2018

सेमी फ़ाइनल से निकला भ्रमादेश

पांच राज्यों के चुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव के पूर्व सेमी फाइनल के रूप में देखा जा रहा था और उस दृष्टि से ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को सत्ता से बेदखल करते हुए कांग्रेस ने न केवल खुद को अगले बड़े मुकाबले में एक प्रबल प्रतिद्वंदी के तौर पर पेश कर दिया अपितु बतौर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी  ने भी फिलहाल तो अपने चयन को सही साबित कर दिया है। हालांकि उक्त तीनों राज्यों में भाजपा की विफलता के पीछे उसकी अपनी कमजोरी भी बड़ा कारण है किंतु चूंकि जीत कांग्रेस के खाते गई इसलिये वह और उसके नेता के तौर पर राहुल शाबासी के पूरे हकदार हैं। लेकिन कांग्रेस की इस सफलता के बावजूद भी उसे ये ध्यान रखना चाहिए कि तेलंगाना में वह औंधे मुंह गिरी जबकि तेलुगु देशम के साथ उसने गठबंधन किया था। इसी के साथ भले छोटा हो किन्तु  मिज़ोरम की सत्ता उसके हाथ से खिसक गई और तो और वहां के मुख्यमंत्री तक दो सीटों से लड़कर भी हार गए। मिज़ोरम को मुख्यधारा का राज्य न माना जाए लेकिन तेलंगाना में चन्द्रबाबू के साथ मिलकर भी कांग्रेस यदि घुटनों के बल चलने की स्थिति में ही रही तब दक्षिण के अन्य चारों राज्यों में उसके लिए  भविष्य की संभावनाएं बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। कर्नाटक में वह पहले से ही  देवेगौड़ा परिवार की पार्टी जेडीएस के आसरे है और तमिलनाडु में दोनों क्षेत्रीय दलों में से जो भी से उससे गठबंधन करेगा वह कांग्रेस को अपने पीछे रखेगा वहीं केरल में वामपंथी अपने गढ़ में कांग्रेस को ज्यादा छूट नहीं देंगे। अब बात करें मप्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान की तो यहां कांग्रेस के लिए खुशी मनाने का समुचित कारण है । सबसे बड़ी जीत उसे छत्तीसगढ़ में हासिल हुई। यद्यपि ये 90 सीट वाला छोटा सा राज्य है लेकिन बीते 15 साल से भाजपा यहां काबिज थी। 2013 में चुनाव पूर्व हुए नक्सली हमले में अधिकतर बड़े नेताओं की मौत के बाद लगभग नेतृत्वविहीन हो चुकी कांग्रेस ने इस चुनाव में जो शानदार  प्रदर्शन किया वह न केवल भाजपा अपितु खुद कांग्रेस के लिए भी चौंकाने वाली बात है । एकाध को छोड़ अधिकतर सर्वेक्षण इस राज्य में बराबरी की टक्कर मान रहे थे किंतु नतीजों ने कांग्रेस को जबरदस्त बहुमत दे दिया। मुख्यमंत्री रमन सिंह की छवि उतनी खराब नहीं थी किन्तु भाजपा के मंत्री और विधायकों की बदनामी ने उसका कबाड़ा कर दिया। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और बसपा के  गठबंधन को भाजपा के लिए प्राणवायु माना जा रहा था किन्तु वह कांग्रेस के लिए सहायक बन गया। ये परिणाम श्री जोगी के राजनीतिक पराभव की शुरुवात भी हो सकते हैं क्योंकि अब उनके लिए करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है। भाजपा के सामने भी नया नेतृत्व खड़ा करने की चुनौती है क्योंकि नया राज्य बनने के बाद से अब तक वह पुराने चेहरों से ही काम चला रही थी किन्तु यही चुनौती कांग्रेस के समक्ष भी होगी। उसे भी कुछ परिवारों से बाहर निकलना होगा। राज्य में नक्सल समस्या से निपटना भी कठिन काम ह। राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथियों से गठबंधन के कारण कांग्रेस नक्सलियों के विरुद्ध कितनी सख्त होगी ये महत्वपूर्ण है। वैसे रमनसिंह ने छत्तीसगढ़ को विकसित राज्य बनाया है। नई सरकार को चाहिए वह इस यात्रा को जारी रख। जहां तक बात मप्र की है तो यहां भाजपा ने अपने पैरों में खुद होकर कुल्हाड़ी मारी । इस सूबे में पार्टी और संघ का संगठन बेहद मजबूत है । बड़े इलाके में परंपरागत समर्थक भी हैं लेकिन गत एक वर्ष और वह भी बीते छह महीने में छोटी-छोटी गलतियों के कारण पार्टी सत्ता से बाहर हो गई  मंदसौर में हुए गोली कांड के बावजूद वहां उसे जबरदस्त सफलता मिली किन्तु साल की शुरुवात में मुरैना , ग्वालियर और भिंड में हुए जातीय बलवे ने पूरे समीकरण उलट दिए और इसी इलाके ने भाजपा का सफाया कर दिया। बची खुची कसर मुख्यमंत्री के माई का लाल वाले बयान ने पूरी कर दी। इसके बावजूद भी भाजपा की वापिसी असम्भव नहीं थी लेकिन पार्टी उन मंत्रियों के टिकिट काटने का साहस नहीं कर सकी जिनके विरुद्ध जनता ही नहीं कार्यकर्ताओं में ही जबरदस्त गुस्सा था। यदि उनकी जगह नए उम्मीदवार उतारे होते तो हाथ आते - आते सत्ता खिसक न जाती । बड़े नेताओं का परिवार प्रेम भी भारी पड़ा वहीं आंचलिक नेतृत्व को कमजोर करने का दुष्परिणाम ये हुआ कि ले देकर पूरा बोझ शिवराज सिंह के कंधों पर आकर टिक गया। भाजपा की विफलता का बड़ा कारण नौकरशाही के भ्रष्टाचार को न रोक पाना भी रहा जिसने बदलाव की हवा को गति दे दी। वरना कांग्रेस के जीतने का कोई पुख्ता कारण था ही नहीं। राजस्थान में भाजपा की पराजय तो दीवार पर लिखी इबारत थी लेकिन वहां की जनता ने लगभग सभी अनुमानों को ध्वस्त करते हुए कांग्रेस को नाम के लिए एक सीट का बहुमत देकर सत्ता तक तो पहुंचा दिया किन्तु खुलकर खेलने की छूट नहीं दी । भाजपा को 73 सीटें मिलना साबित करता है कि मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे ने जमकर मुकाबला किया वरना कांग्रेस को तो 150 सीटें मिलने की सम्भावना थी । वहां 26 अन्य की जीत कांग्रेस के लिए भी विचारणीय है । इन परिणामों का राष्ट्रीय सन्दर्भ में सीधा सरल विश्लेषण तो यही है कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस वापिस आ रही है और नरेंद्र मोदी शिखर पर चढऩे के बाद उतरने की ओर हैं । अमित शाह की रणनीति और जिताऊ क्षमता भी प्रश्नों के घेरे में आ गई है । लेकिन लोकसभा चुनाव तक राजनीति के नए - नए रंग अभी देखने मिलेंगे । 2003 में इन्हीं तीन राज्यों में जीत से उत्साहित अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार ने लोकसभा भंग कर जल्दी चुनाव का जो दांव चला वह उल्टा पड़ा था । इसलिए 2019 के फायनल को इन नतीजों से पूरी तरह नहीं जोड़ा जा सकता । फिर भी ये मानना पड़ेगा कि राहुल का ग्राफ उठा और प्रधानमंत्री का नीचे आया है । इसकी एक वजह भाजपा द्वारा बेवजह राहुल पर हमले करने भी है । पता नहीं पार्टी और प्रधानमंत्री इसे समझेंगे या नहीं लेकिन समय आ गया है जब भाजपा को 2014 के विजयोन्माद से निकलकर जमीनी सच्चाई का सामना करना पड़ेगा । राहुल के सौम्य हिंदुत्व का मखौल उड़ाने की बजाय उसे ये सोचना चाहिए कि उसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में लिपटे अपने हिंदुत्व को क्यों पीछे कर दिया ? नरेंद्र मोदी यदि आज भी अपनी मूल छवि में लौट आएं तो फायनल में भाजपा जीत सकती है । उसके जनाधार में कमी आने का कारण नाराजगी कम निराशा ज्यादा है । इसे दूर करने के लिए उसे क्या करना चाहिए ये वह जानती है । रही बात कांग्रेस की तो उसे तो भाजपा की गलतियों का फायदा बैठे बिठाए तीनों राज्यों में मिल गया । इससे उसकी ताकत कितनी बढ़ेगी ये कह पाना कठिन है क्योंकि दो दिन पहले विपक्षी एकता के लिए हुई बैठक से मायावती और अखिलेश यादव ने दूरी बनाकर काफी कुछ कह दिया । हां , एक बात अवश्य है कि राहुल पूर्वापेक्षा काफ़ी परिपक्व हुए हैं जिससे उनकी छवि भी सुधरी है जबकि दूसरी तरफ भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेताओं तक के बारे में ये धारणा बन गई है कि वे अहंकार से भरे हुए हैं। पांच राज्यों के जनादेश को परिभाषित करें तो ये भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत के बाद भी कोई स्पष्ट सन्देश नहीं देता और इसलिए इसे भ्रमादेश कहना ज्यादा सही रहेगा ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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