Tuesday 25 December 2018

जीएसटी : मजबूरी में मेहरबानी

दो दिन पहले जीएसटी दरों में राहत देने के बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संकेत दिया है कि 5 , 12 , 18 और 28 फीसदी के विभिन्न स्तरों को समाप्त करते हुए केवल एक दर रखने पर विचार हो रहा है। सम्भवत: ये दर 12 से 18 फीसदी के बीच की हो सकती है।  अनेक देशों में जहां जीएसटी प्रचलित है वहां भी एक ही दर लागू है जिससे उत्पादक , व्यापारी और उपभोक्ता सभी को सुविधा रहती है। कर विवरणी भरने में भी आसानी होती है वहीं सरकार के संबंधित विभाग भी व्यर्थ की झंझटों से बच जाते हैं। हालांकि इस निर्णय तक पहुंचते-पहुंचते केंद्र सरकार ने बहुत देर लगा दी जिसकी वजह से श्री जेटली देश के सबसे बदनाम राजनेता बन गए। जीएसटी काउंसिल में चूंकि सभी राज्य सरकारों की भागीदारी है और सभी फैसले सर्वसम्मति से होते आए हैं इसलिए निर्णय प्रक्रिया में विलम्ब स्वाभाविक है। 23 दिसम्बर की बैठक में दरें कम करने को लेकर गैर भाजपा शासित राज्यों ने विरोध जताते हुए अपनी राजस्व हानि की क्षतिपूर्ति का सवाल भी उठा दिया। पेट्रोलियम वस्तुओं को जीएसटी के दायरे में नहीं लाने की वजह भी राज्यों का विरोध है। मोदी सरकार को आर्थिक मोर्चे पर नोटबन्दी के बाद जिस एक निर्णय के कारण जनता और व्यापार जगत दोनों का विरोध झेलना पड़ा उसमें जीएसटी सबसे ऊपर कहा जा सकता है क्योंकि इसकी वजह से भले ही टेक्स चोरी रुकी हो और सरकार के खजाने में एक व्यवस्थित आय का स्रोत बन गया हो किन्तु जीएसटी की विभिन्न दरों के साथ ही विवरणियों के भरने की जटिल प्रक्रिया ने व्यापार जगत को हलाकान कर डाला।  सबसे ज्यादा परेशानी अनिश्चितता को लेकर हुई। इसकी वजह से ये एहसास प्रबल हुआ कि देश की कर प्रणाली में किये गए सबसे बड़े बदलाव को पर्याप्त तैयारी के बिना ही लागू कर दिया गया। गुजरात विधानसाभा चुनाव में इसकी वजह से ही भाजपा को घुटनों के बल चलकर जीत मिली। चूंकि मामला राज्यों को होने वाले राजस्व घाटे का फंस गया इसलिये ये माना जा सकता है कि कुछ मामलों में श्री जेटली और केन्द्र सरकार चाहकर भी वह नहीं कर सके जो वे करना चाह रहे थे।  सबसे बड़ा पेच था पेट्रोलियम वस्तुओं को जीएसटी के अन्तर्गत लाने का जिसे लेकर आश्वासन तो कई मर्तबा सुनाई दिए लेकिन वित्त मंत्री के ताजे संकेतों में भी उस बारे में कुछ न कहा जाना ये प्रमाणित करता है कि भले ही जीएसटी की एक ही दर लागू हो जाये लेकिन पेट्रोल और डीजल पर मनमाना करारोपण करने का अधिकार राज्यों के पास बना रहेगा।  फिर भी यदि जीएसटी काउंसिल की अगली बैठक में एक ही दर सम्बन्धी फैसला लागू हो जाता है तो उससे भी बड़ी राहत सभी पक्षों को प्राप्त होगी। हालांकि 5 फीसदी के अंतर्गत आने वाली वस्तुओं  पर कर बढ़ जाएगा लेकिन कुल मिलाकर एक ही दर का फार्मूला जीएसटी की उपयोगिता और उद्देश्य दोनों की सार्थकता को साबित कर देगा।  वैसे ये कहना भी गलत नहीं है कि अपनी खडूस छवि से बाहर निकलने का ये प्रयास श्री जेटली सम्भवत: अभी भी नहीं करते यदि मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा के हाथ से सत्ता नहीं गई होती। ये बात सोलह आने सच है कि भाजपा को शून्य से शिखर तक पहुंचाने में जिस व्यापारी और मध्यमवर्ग का सर्वाधिक योगदान रहा वही उससे सबसे ज्यादा नाराज होता गया। विशेष रूप से वित्त मंत्री के प्रति तो नाराजगी घृणा का रूप ले बैठी। विपक्षी तो छोड़ दें किन्तु भाजपा के भीतर भी बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जो ये मानते हैं कि मोदी सरकार के प्रति लोगों का मोहभंग होने के पीछे श्री जेटली का रवैया सर्वाधिक जिम्मेदार है। चूंकि लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और केंद्र सरकार के पास दोबारा जनादेश मांगने के बहुत ठोस कारण नजर नहीं आ रहे हैं इसलिए भी शायद जीएसटी से मिले घावों पर मरहम लगाने का ये अंतिम प्रयास किया जा रहा है। वैसे सरकार किसी की भी हो वह वित्तीय मामलों में पूरी तरह से शोषक की तरह से ही व्यवहार करती है । बड़े उद्योगपति, किसान और कर्मचारी चूंकि दबाव बनाने में सक्षम हैं इसलिए उनकी बात सुनकर मान भी ली जाती है लेकिन छोटे व्यापारी और मध्यम वर्ग की स्थिति अनाथ सरीखी बना दी गई है । ये धारणा काफी मजबूती से स्थापित हो चुकी है कि सरकार की सभी योजनाएं प्रत्यक्ष रूप से गरीबों  और अप्रत्यक्ष रूप से अमीरों के लिए ही होती हैं। इसीलिए जीएसटी लागू होने से बड़े उद्योगपति और व्यापारी तो प्रसन्न दिखे किन्तु छोटा और मध्यमवर्गीय कारोबारी अकल्पनीय मुसीबतों में फंसकर सरकार को कोसने लगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जो आसक्ति एक बड़े वर्ग में जागी थी वह पहले नोटबन्दी और फिर जीएसटी से पैदा हुई व्यवहारिक परेशानियों की वजह से विरक्ति में बदलने लगी जिसकी बानगी बीते एक डेढ़ वर्ष में हुए चुनावों में देखने आई। हालांकि आलोचक भी ये मानते हैं कि श्री मोदी की नीयत ठीक है किंतु उक्त दोनों निर्णयों को लागू करने में सरकारी मशीनरी की अक्षमता ने इनके सकारात्मक पहलू पर नकारात्मकता का आवरण चढ़ा दिया। यद्यपि श्री जेटली लगातार ये आश्वासन देते रहे कि राजस्व वसूली लक्ष्यानुसार होते ही सरकार रियायतें देगी। विभिन्न वस्तुओं पर जीएसटी घटाकर इस दिशा में पहल भी हुई लेकिन अधिक दरें सदैव खटकती रहीं। धीरे-धीरे गाड़ी पटरी पर आने लगी। व्यापार जगत भी नई व्यवस्था के साथ समायोजन करना सीख गया। रिटर्न भरने वालों की संख्या में भी अच्छी खासी वृद्धि हो गई। ऐसा ही कुछ नोटबन्दी के बाद आयकर को लेकर भी देखने मिला। यद्यपि ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोकसभा चुनाव सामने आ जाने से श्री जेटली की भाषा और व्यवहार दोनों बदल गए। गुजरात की फीकी जीत, कर्नाटक में बहुमत के करीब पहुंचकर भी सत्ता से वंचित रह जाना और हाल ही में तीन राज्य गंवा देने के बाद भाजपा के उच्च नेतृत्व को ये समझ आ गया है कि दीर्घकालीन नीतियों का अपना महत्व है किंतु भारत जैसे विविधता भरे देश में तात्कालिक फायदों के बिना चुनाव जीतना कठिन होता है। शायद इसीलिए दरें घटाने के दो दिन बाद ही वित्तमंत्री ने कारोबारी जगत के साथ ही उपभोक्ताओं को संतुष्ट करने के संकेत दे दिए। ये कार्य सरकार जितनी जल्दी कर ले जाये उतना ही अच्छा है क्योंकि ज्यों ज्यों चुनाव का समय करीब आता जाएगा त्यों त्यों इस तरह की राहतों का अपेक्षित असर मतदाताओं पर नहीं होगा। व्यापार जगत में ये बात गहराई तक बैठ गई है कि भाजपा ने उनके धंधे पानी का कबाड़ा कर दिया।  हो सकता है वित्तमंत्री को उसका एहसास अब जाकर हुआ हो। खैर, देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर ही सही लेकिन जीएसटी की एक सी दर लागू करने से इसके प्रति व्यापारी और जनता दोनों के बीच व्याप्त असंतोष दूर होगा। लगे हाथ पेट्रोल और डीजल को भी अगर जीएसटी के दायरे में मोदी सरकार लाने का साहस दिखाए तो फिर लोकसभा चुनाव में अच्छे दिन आने का दावा भाजपा कर सकेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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