Saturday 1 December 2018

किसान आंदोलन : नेताओं की नजर वोटों की फसल पर

गत दिवस दिल्ली में कर्ज माफी को लेकर हजारों किसान एकत्र हुए। किसान मुक्ति मार्च नामक इस आयोजन में 24 राज्यों के 35 हजार किसानों के जमा होने का दावा किया गया। इसके पीछे वैसे तो अनेक किसान संगठन थे किन्तु असली ताकत दिखाई वामपंथी संगठनों ने। इस तरह के आंदोलन अन्य राज्यों में पहले भी होते रहे हैं। महाराष्ट्र में भी हजारों किसानों ने मुंबई कूच करते हुए राज्य सरकार के समक्ष अपनी मांगें रखीं जिनमें से कुछ तो तत्काल स्वीकार हो गईं तो कुछ के लिए सरकार ने समय ले लिया। अनेक राज्यों में किसान आंदोलन हिंसक भी हुआ। मप्र का मंदसौर इसका उदाहरण है। हालाँकि सभी राजनीतिक दल और केंद्र तथा राज्यों की सरकारें किसानों के हित में नीतियां बनाने का दावा करती हैं और खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने की कसमें खाते नहीं थकतीं लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि कृषिप्रधान भारत में किसान आत्महत्या करने को यदि मजबूर हो रहा है तो ये गंभीर चिंता का विषय है। गत दिवस जो शक्तिप्रदर्शन दिल्ली में हुआ वह संख्या के लिहाज से उतना महत्वूपर्ण नहीं था जितना इस बात से कि किसानों के नाम पर मंच लूटने के लिए राहुल गांधी, योगेंद्र यादव, अरविंद केजरीवाल और सीताराम येचुरी के अलावा बड़ी संख्या में विपक्षी नेता पहुंच गए। सभी ने किसानों के प्रति हमदर्दी और समर्थन व्यक्त करते हुए उनके कर्ज माफ  करने और फसलों का सही मूल्य दिलवाने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया। राहुल ने किसानों की भीड़ को अम्बानी और अडानी के साथ रफैल सौदे से जुड़ी बातें सुनाकर उनका ज्ञानवर्धन करने की कोशिश की तो वहीं श्री केजरीवाल और श्री येचुरी ने अपने ढंग से सरकार को सुझाव भी दिए और घेरा भी। किसानों के लिए काम करने वाले योगेंद्र यादव और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने भी किसानों की समस्याओं का बखान करते हुए सरकार पर हमले किये। इस पूरी कवायद में किसानों का अपना नेतृत्व और मुद्दा तो गौण होकर रह गया और 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी मोर्चेबंदी की कोशिश उभरकर सामने आ गई। ये पहला मौका नहीं है जब किसानों के लिए शुरू की गई लड़ाई सियासत के मकडज़ाल में उलझकर रह गई हो। 1952 से लेकर अब तक हुए हर चुनाव में किसान और गांव की बेहतरी के आश्वासन दिए जाते रहे। चौ. चरण सिंह और देवगौड़ा तो स्वयं को किसान ही कहते थे। संसद के दोनों सदनों में हमेशा ग्रामीण पृष्ठभूमि के सदस्यों की पर्याप्त उपस्थिति रही है। किसानों और ग्रामीण समस्याओं को लेकर लम्बे लम्बे भाषण होते रहे हैं। हर बजट में किसान और गांव पर ध्यान देने के दावे भी हुए न ग्रामीण विकास का लक्ष्य पूरा हुआ और न ही किसान के चेहरे पर मुस्कुराहट आ सकी। यद्यपि कभी-कभी विरोधाभासी चित्र भी उभरता है किंतु ये कहने में कुछ भी अनुचित नहीं होगा कि किसान परेशान है। फसल न हो तो फंाकेमस्ती और ज्यादा हो जाये तो कीमतों में गिरावट से उसकी कमर टूट जाती है। हालांकि शहरों जैसी जीवनशैली और सुख-सुविधाएं हासिल करने की कोशिश भी इसका एक कारण है किंतु इस सच्चाई से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि व्यवसाय से उद्योग की शक्ल लेते-लेते कृषि घाटे का धंधा बन गई। उन्नत खेती के फेर में किसान कर्ज में डूबने लगा। परंपरागत खेती का अर्थशास्त्र भूलकर वह कृषि वैज्ञानिकों के साथ -साथ खाद , बीज और उपकरणों के व्यापारियों के जाल में उलझता गया। साहूकार के पठानी ब्याज से मुक्ति मिली तो बैंकों का कर्ज चढ़ गया। शासकीय योजनाओं से खेती और किसानों के लिए आने वाली मदद नौकरशाही के मकडज़ाल में फंसकर औने-पौने हो जाती है। ये सब हर कोई जानता समझता है। नेता, बुद्धिजीवी, कवि, शायर, चिंतक, विचारक, राजनेता, सभी किसानों के लिए सम्वेदनशील हैं किन्तु किसान के पास उसका कोई प्रामाणिक और ईमानदार नेतृत्व नहीं होने से उसकी समस्याओं का समाधान तो होता नहीं उल्टा वह राजनीतिक रस्साकशी में फंसकर रह जाता है। कभी महेंद्र सिंह टिकैत तो कभी चौ. देवीलाल उसे मूर्ख बनाकर अपना महिमामंडन करने में सफल हो जाते हैं। कल जो प्रदर्शन राजधानी में हुआ उसके साथ न तो कोई नई मांग जुड़ी और न कोई ऐसा नया चेहरा उभरकर सामने आया जो चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर किसानों के हित के लिए लड़े। यदि लोकसभा चुनाव सिर पर न होते तब न राहुल  आते और न श्री येचुरी और श्री केजरीवाल। पता नहीं किसान कब इस खेल को समझेंगे? राजनेता यदि उनके शुभचिंतक होते तो वे इस तरह खून के आंसू रोने मजबूर ही क्यों होते? कल श्री येचुरी ने सरकार बदलने की धमकी भी दे डाली। आजकल राहुल गांधी चुनाव वाले राज्य में किसानों के कर्ज माफ  करने का आश्वासन देते फिर रहे हैं वहीं कोई और पार्टी बिना ब्याज के उन्हें कर्ज देने का वायदा बांट रही है किन्तु इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर किसान कर्ज लेने को बाध्य होता ही क्यों है और उसे चुकाने में असमर्थ क्यों रहता है? कड़वा सच तो यही है कि किसी भी दल के हों राजनेताओं की नजर केवल और केवल वोट पर रहती है। किसानों के लिए घडिय़ाली आंसू बहाने के पीछे भी उनका उद्देश्य किसान वोट बैंक रूपी फसल काटना मात्र है। जब तक किसानों का अपना गैर राजनीतिक नेतृत्व विकसित नहीं होगा तब तक वे इसी तरह भटकते रहेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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