Monday 10 December 2018

कल दोपहर तक देश की राजनीतिक दिशा तय हो जाएगी

कल 11 दिसम्बर का दिन देश के  राजनीतिक भविष्य के लिए बड़ा ही महत्वपूर्ण होगा। दोपहर तक पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम घोषित हो जाएंगे। इनमें मिज़ोरम, तेलंगाना, मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान शामिल हैं। मिज़ोरम उत्तर पूर्व का छोटा सा राज्य है जिसके चुनाव को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी अपेक्षित थी क्योंकि यहां की राजनीति देश की मुख्यधारा से सर्वथा पृथक और उलझी हुई होने से लोग उसके बारे में अधिक नहीं जानते। यद्यपि ये बहुत बड़ी विडंबना है किंतु कड़वी हकीकत भी। शेष चार राज्यों पर नजर डालें तो पांच साल पूर्व अस्तित्व में आये तेलंगाना में अभी तक टीआरएस नामक क्षेत्रीय दल का एकाधिकार सरीखा बना हुआ था। इसके मुखिया के. चन्द्रशेखर राव ने चूंकि आंध्र से अलग तेलंगाना राज्य बनाये जाने को लेकर अनवरत संघर्ष किया था इसलिये नया राज्य बनने पर स्वाभाविक रूप से सत्ता उनके पास आ गई। 2014 में लोकसभा के साथ ही तेलंगाना के भी चुनाव हुए थे लेकिन श्री राव ने विधानसभा पहले ही भंग करवाकर चुनाव का दांव खेल दिया। पहले उम्मीद थी कि वे भाजपा से गठजोड़ करेंगे जो नहीं हुआ लेकिन आंध्र में सत्तारूढ़ तेलुगु देशम पार्टी के सर्वेसर्वा चंद्रबाबू नायडू ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर दक्षिण की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू कर दिया। केंद्र की मोदी सरकार से अलग होने के बाद उन्होंने एनडीए से भी नाता तोड़कर कांग्रेस से हाथ मिला लिया जिसके पीछे कोई सिद्धांत न होकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह से खुन्नस निकालना मात्र ही प्रमुख है क्योंकि आंध्र की प्रस्तावित  नई राजधानी अमरावती के लिए धनराशि देने के अलावा आंध्र को विशेष पैकेज देने में केंद्र द्वारा अनाकानी करने किये जाने से चंद्रबाबू भन्नाये हुए थे। उधर भाजपा को भी लग रहा था कि तेलुगु देशम का चरित्र चूंकि कांग्रेस विरोधी रहा है इसलिए वह एनडीए  नहीं छोड़ेगी लेकिन श्री नायडू ने भाजपा को झटका देते हुए पहले तो अन्य विपक्षी दलों से बात आगे बढ़ाई और फिर तेलंगाना में कांग्रेस से गठबंधन बनाकर दक्षिण के प्रवेश द्वार पर भाजपा के लिए अवरोध खड़े करने का फैसला कर दिया। तेलंगाना को लेकर जो अनुमान लगाए जा रहे हैं उनके अनुसार तो टीआरएस सत्ता में वापिस आ रही है और उसके बाद लोकसभा में वह एनडीए से हाथ मिला सकती है क्योंकि अब उसका कांग्रेस के साथ जाना असम्भव हो जाएगा। ये भी संभव है कि वह लोकसभा में भी अकेली उतरे और चुनाव बाद की परस्थितियों के अनुसार निर्णय करे किन्तु इतना अवश्य है कि चंद्रबाबू के चले जाने से भाजपा ने एक मजबूत साथी खो दिया जो बेहद अनुभवी और लोकप्रिय भी है। यदि चंद्रशेखर राव ने एनडीए का दामन पकड़ा जैसा वे अतीत में कर चुके हैं तब भी वे दक्षिण में राजनीतिक समीकरण के लिहाज से भाजपा के लिए कितने फायदेमंद रहेंगे यह कल दोपहर तक स्पष्ट हो जाएगा। उनकी सरकार यदि अच्छे बहुमत से लौटी तब तो श्री राव भी एक क्षेत्रीय छत्रप बनेंगे वरना वे केवल अपने राज्य तक सीमित रहेंगे। इसीलिए तेलंगाना का चुनाव परिणाम राष्ट्रीय राजनीति को अपने ढंग से प्रभावित करेगा। लेकिन भाजपा और कांग्रेस के लिए जीवन मरण का प्रश्न मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान हैं जहां इनके बीच लगभग सीधा मुकाबला है। हालांकि बसपा और सपा ने अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई है किंतु वह आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करने के लिए चली गई चाल से ज्यादा कुछ भी नहीं। भाजपा इसमें अपने लिए अनुकूलता देख रही है। दलित मतों के बंटवारे से कांग्रेस को होने वाले संभावित नुकसान से भाजपा को शुरुवात में जो खुशी थी वह यद्यपि एग्जिट पोल के बाद कम हुई है लेकिन इतना तो तय था कि अगर बसपा और सपा कांग्रेस से गठबंधन कर लेते तब भाजपा का सफाया हो जाता। ऐसा न होने के पीछे भी आगामी  लोकसभा चुनाव ही हैं। चूंकि बसपा और सपा दोनों का प्रभावक्षेत्र मुख्यरूप से उप्र ही है और भाजपा तथा कांग्रेस दोनों का भविष्य उसी राज्य पर टिका है इसलिए उक्त पार्टियों ने अपने पत्ते फिलहाल छिपाकर रखने का निर्णय कर तीनों राज्यों में अकेले लडऩे का साहस जुटाया। हालांकि इसके लिए मायावती और अखिलेश यादव दोनों ने सीधे-सीधे कांग्रेस और राहुल गाँधी को जिम्मेदार ठहराकर ये संकेत भी दे दिया कि उसे राष्ट्रीय पार्टी होने का अतिरिक्त लाभ देने को राजी नहीं हैं और जो भी समझौता होगा वह उप्र में कांग्रेस की जमीनी हैसियत के मुताबिक होगा। माया और अखिलेश दोनों जानते हैं कि यदि उन्होंने उम्मीदवार उतारे तब रायबरेली और अमेठी की पुश्तैनी सीटें भी कांग्रेस बचा नहीं सकेगी। ऐसी स्थिति में इन तीन राज्यों में उसके प्रदर्शन पर उत्तर भारत का विपक्षी गठबंधन निर्भर करेगा। अगर कांग्रेस ने तीनों जीत लिए तब राहुल गांधी पक्के तौर पर अपनी शर्तों पर  सौदेबाजी करने में सक्षम होंगे अन्यथा माया और अखिलेश उन्हें घास न डालने जैसी हिमाकत भी कर सकते हैं। कांग्रेस केवल राजस्थान जीती तब भी कांग्रेस की वजनदारी उतनी नहीं बढ़ेगी। इसी तरह भाजपा के लिए तो ये तीनों राज्य उसके भविष्य के साथ ही नरेंद्र मोदी के सियासी अस्तित्व से जुड़ गए हैं। तीनों में हार से लोकसभा चुनाव के पहले ही मोदी और अमित शाह की जिताऊ क्षमता और कार्यप्रणाली पर घर के भीतर से ही सवाल उठेंगे और जिन लोगों को किनारे बिठा रखा गया है वे मुखरित हो उठेंगे। इसके प्रारंभिक संकेत मप्र में बाबूलाल गौर और रघुनंदन शर्मा जैसे वरिष्ठ नेताओं के ताजा बयान हैं। लेकिन जैसा शुरू से लग रहा है यदि भाजपा राजस्थान में पराजित होने के बावजूद मप्र और छत्तीसगढ़ में सरकार बचा ले गई तब राजस्थान की हार को वसुंधरा राजे के मत्थे मढ़कर मोदी मैजिक जारी रहने का ढोल पीटना शुरू हो जाएगा। वैसे इन चुनावों ने भाजपा की कई खुशफहमियां तोड़ी हैं। मतदाता को बंधुआ समझ बैठने की जो मूर्खता कांग्रेस को ले डूबी उसे दोहराने की कोशिश में भाजपा ने अपने परंपरागत समर्थकों की सहानुभूति और समर्थन दोनों खोए। यदि ऐसा नहीं होता तब कम से कम मप्र और छत्तीसगढ़ में उसका आत्मविश्वास डगमगाया नहीं होता। कल दोपहर तक स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। मिज़ोरम और तेलंगाना को अलग रखकर केवल मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव परिणामों से आगामी लोकसभा में भाजपा और कांग्रेस दोनों का भाग्य तो तय होगा ही साथ में देश की राजनीतिक दिशा भी स्पष्ट हो जाएगी। किसान लॉबी के बढ़ते दबाव और राममंदिर को लेकर संघ और संत समाज के उग्र तेवर भावी केन्द्र सरकार की छाती पर मूंग दलने का कारण बनेंगे। और उसके लिए क्रमश: कांग्रेस और भाजपा ही जिम्मेदार होंगे जिन्होंने आसमानी वायदे करते हुए उम्मीदों के पहाड़ खड़े कर दिए हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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