Monday 30 October 2017

जनमत:- भ्रष्टाचार में भी अमेरिका म.प्र. से बहुत फिसड्डी

एक कुशल राजनेेता वही होता है जो तथ्यों की बजाय तर्कों से अपनी हर बात को सही साबित कर दे। इसी तरह आक्रमण को ही सर्वोत्तम सुरक्षा माना जाता है। म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हालिया अमेरिका यात्रा के दौरान वाशिंगटन से म.प्र. की सड़कों को बेहतर बताकर अपना मजाक उड़वाया था। सोशल मीडिया पर उनकी ऐसी फजीहत शायद पहले कभी नहीं हुई थी किन्तु इस सबसे विचलित हुए बिना श्री चौहान ने घर वापसी पर न सिर्फ अपनी बात पर कायम रहने की दृढता दिखाई बल्कि ये भी जोड़ दिया कि सफाई के मामले में इंदौर और भोपाल न्यूयार्क से आगे हैं। इंदौर हवाई अड्डे से सुपर कॉरीडोर तथा भोपाल की वीआईपी रोड को भी उन्होंने वॉशिंगटन की सड़कों से बेहतर बताते हुए कह दिया कि अमेरिका की राजधानी में 90 प्रतिशत से ज्यादा सड़कें अच्छी हालत में नहीं हैं। शिवराज जी यहीं नहीं रुके, उन्होंने ये भी कह दिया कि जिसे जो लिखना है, लिखता रहे वे डंके की चोट पर ऐसा कहते रहेंगे। मुख्यमंत्री की ये दलील अपनी जगह सही है कि वे अमेरिका में म.प्र. की मार्केटिंग करने गए थे, इसलिये वे इस प्रदेश का गुणगाान नहीं करते तब क्या बुराई करते। अमेरिका में रह रहे म.प्र. वासियों से संपर्क कर उन्हें प्रदेश के विकास हेतु प्ररित करने का उनका प्रयास भी सकारात्मक कदम ही कहा जावेगा। अप्रवासी भारतीयों में जो म.प्र. के हैं उनकी योग्यता और समृद्धि यदि प्रदेश के लिये काम आ सके तब इससे बढिय़ा बात और क्या हो सकती है किन्तु मात्र इतने से ही शिवराज जी अपनी सरकार और म.प्र. का गौरवगान करने में सफल हो सकेंगे ये सोचना मूर्खों के स्वर्ग में विचरण करने समान ही होगा। विदेशी धरती पर अपने प्रदेश और देश का सकारात्मक चित्र प्रस्तुत करना न केवल शासक वर्ग वरन हर भारतीय का कर्तव्य बन जाता है। उस लिहाज से शिवराज सिंह ने गलत नहीं किया किन्तु वे स्वयं भी जानते और मन ही मन मानते होंगे कि म.प्र. की सड़कों तथा साफ-सफाई की व्यवस्था को अमेरिका की राष्ट्रीय तथा व्यवसायिक राजधानी से बेहतर बताने का उनका दावा वास्तविकता की कसौटी पर कितना खोटा साबित होगा। मुख्यमंत्री तरकश से निकल चुके तीर की तरह यद्यपि अपने शब्दों को वापिस तो नहीं ले सकते किन्तु उस बात को वहीं खत्म करना उनके लिये अधिक श्रेयस्कर रहता।
अब उन्होंने जिसे जो लिखना है लिखे मैं डंके की चोट पर कहता रहूंगा जैसी बात कह दी, तब उनसे ये पूछना भी समयोचित होगा कि म.प्र. में सचिवालय से लेकर ग्राम पंचायत तक पसरे भ्रष्टाचार में भी क्या अमेरिका म.प्र. से पीछे है। आये दिन प्रदेश के किसी न किसी हिस्से में चपरासी से लेकर बड़े अधिकारी तक लोकायुक्त द्वारा अवैध कमाई करने के आरोप में पकड़ लिये जाते हैं। डंके की चोट पर यदि श्री चौहान म.प्र. के भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश होने का दावा अमेरिका यात्रा के दौरान करते तब वहां रहने वाले प्रदेशवासी अपने गृहप्रदेश के विकास में सहयोग की पहल से बढ़कर यहां वापिस आकर बसने पर विचार करने लग जाते। जिस प्रदेश में प्याज और दाल की खरीदी में चंद दिनों के भीतर करोड़ों का वारा-न्यारा हो जाता है, जहां मंत्री से लेकर संतरी तक की ईमानदारी पर हर पल संदेह के बादल मंडराया करते हों, जहां सूखे के दौर में भी भ्रष्टाचार की बंपर पैदावार हो रही हो, यदि मुख्यमंत्री उस स्थिति को बदल पाने या सुधार देने का दंभ अमेरिका में भरते तब कुछ दिन तो रुक  जाइये गुजरात की तर्ज पर स्थायी रूप से बस जाइये म.प्र. में जैसा नारा पूरी दुनिया में गूंज उठता। खैर, जैसा प्रारंभ में कहा गया शिवराज राजनेता हैं और वह भी सत्ता में बैठे, इसलिये वे अपनी बात को कहने के बाद उसे मनवाने के लिये हर तरह का प्रपंच रच सकते हैं। सरकारी तनख्वाह पर पलने वाले जनसंपर्क विभाग की रोजी-रोटी तो राग दरबारी गाने से ही चूंकि चलती है इसीलिये वह मुख्यमंत्री के हर दावे पर तारीफ का डंका पीटने में पीछे नहीं रहेगा परन्तु मुख्यमंत्री चाहे सड़कों और चाहे सफाई व्यवस्था को लेकर कितनी भी डींगे हॉंकें परन्तु जब तक वे म.प्र. के कण-कण में व्याप्त भ्रष्टाचार को नियङ्क्षत्रत नहीं करते तब तक मन मैला और तन को धोय वाली स्थिति बनी रहेगी।                         
- रवीन्द्र वाजपेयी

चिदम्बरम : कांग्रेस का पल्ला झाडऩा ही काफी नहीं

पूर्व गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने कश्मीर को स्वायत्तता दिये जाने संबंधी अपने बयान पर प्रधानमंत्री की तीखी आलोचना पर सफाई दी है कि उन्होंने उसे ठीक से पढ़ा नहीं। कांग्रेस ने कश्मीर और लद्दाख को भारत का अभिन्न अंग मानते हुए श्री चिदम्बरम के बयान को उनकी निजी राय बताकर अपने हाथ जलने से बचाने का प्रयास किया है। बीते शनिवार को श्री चिदम्बरम ने गुजरात के राजकोट में कश्मीर की धारा 370 का जिक्र करते हुए कहा था कि उसका अर्थ अधिक स्वायत्तता है। उनके बयान की पूरे देश में काफी निन्दा हुई। कांग्रेस के लिये भी उनके बयान को गले उतारना मुश्किल हो गया। वहीं गुजरात चुनाव में विपरीत परिस्थितियों से गुजर रही भाजपा को तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई। नरेन्द्र मोदी तो वे ऐसे अवसरों को भुनाने में सिद्धहस्त हैं ही सो उन्होंने बिना देर लगाए पूर्व गृहमंत्री के बहाने कांग्रेस को भी लपेटे में ले लिया। अब श्री चिदम्बरम कितनी भी सफाई दें परन्तु उन सरीखे सुशिक्षित और अनुभवी नेता द्वारा ऐसे अवसर पर कश्मीर की स्वायत्तता का मुद्दा छेडऩा राष्ट्रहित के विरूद्ध है जब कश्मीर घाटी में अलगाववादियों के हौसले पस्त होने की उम्मीदें बढ़ गई हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 35 ए पर शुरू हो रही बहस के ठीक पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता द्वारा इस तरह का बयान देकर अलगाववादी ताकतों का हौसला बढ़ाना न केवल गैर जिम्मेदाराना अपितु राष्ट्रविरोधी भी कहा जा सकता है। अब भले ही वे अपनी बात को गलत समझे जाने की कितनी भी दलीलें देते फिरें परन्तु उनके बयान से जब उनकी पार्टी ने ही किनारा कर लिया तब ये मान लेना कतई अनुचित नहीं होगा कि वे या तो बिना सोचे-समझे बोल गये या फिर अपने बेटे की आर्थिक अनियमितताओं के विरूद्ध जांच एजेंसियों द्वारा कसे जा रहे शिकंजे से नाराज होकर उन्होंने पलटवार करते समय देशहित की बलि चढ़ाने तक की चिंता नहीं की। उनके बयान से प्रोत्साहित होकर ही हुर्रियत कान्फ्रेंस यहां तक बोल गई कि अनुच्छेद 34 ए पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला यदि विपरीत आया तब कश्मीर में बगावत कर दी जाएगी। पिछले कुछ महीनों में केन्द्र सरकार द्वारा सुरक्षा बलों को दी गई छूट के परिणामस्वरूप घाटी में अलगाववादी तथा आतंकवादी गतिविधियां काफी कम हो गई हैं। लगभग रोजाना आतंकवादी मारे जा रहे हैं जबकि अलगाववादी संगठनों की जर्बदस्त घेराबंदी से पत्थरबाजी तथा भारत विरोधी प्रदर्शनों पर भी लगाम कसी जा सकी है। हुर्रियत सहित पाकिस्तान समर्थक अन्य संगठनों के आर्थिक स्रोत उजागर कर उन्हें बंद करने की कार्रवाई का भी अच्छा परिणाम निकला है। सैयद अली शाह गिलानी एवं पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी सरगना सलाउद्दीन के बेटों को सीखचों के भीतर कर देने के बाद से दहशतगर्द अब दहशत में हैं। बेरोजगार नौजवानों को पैसा देकर उपद्रव करवाने का धंधा भी ठप सा होता जा रहा है। केन्द्र सरकार के इन प्रयासों को राज्य की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती का समर्थन मिलने से सुरक्षा बलों का हौसला ऊंचा हुआ है तथा इक्का-दुक्का अपवाद छोड़कर राज्य की पुलिस भी अब सेना के साथ मिलकर आतंकवादियों को मारने में मदद पहुंचा रही है। ये वक्त है जब सभी राजनीतिक दलों को अपने  तात्कालिक लाभ त्यागकर केन्द्र के समर्थन में खड़े होना चाहिए।  यदि उन्हें लगता है वैसा करने से प्रधानमंत्री और भाजपा मजबूत होंगी तो वे शांति धारण कर बैठे रह सकते हैं किन्तु देश का गृहमंत्री रहा नेता कश्मीर की स्वायत्तता जैसी बात उछाले तब ये संशय उठना स्वाभाविक है कि वे अलगाववादी ताकतों के हिमायती तो नहीं हैं ? हाल ही में केन्द्र ने कश्मीर समस्या के रचनात्मक समाधान हेतु वार्ताकार नियुक्त किया था। उन्हें पूरी तरह अधिकार संपन्न भी बनाया गया जिससे वे अपना काम बिना रुके कर सकें। नेशनल कान्फ्रेंस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने उस प्रयास की प्रशंसा करने की बजाय उल्टे मांग कर डाली कि वार्ताकार पाकिस्तान से भी बात करें। यही जिद हुर्रियत कान्फ्रेंस भी करती है। इस प्रकार ये कहा जा सकता है कि हुर्रियत और फारुख की तरह श्री चिदम्बरम भी पाकिस्तान को प्रिय लगने वाली बातें कर रहे हैं। देश के गृह मंत्री रहने के दौरान उन्होंने कश्मीर की समस्या को हल करने के लिये तो कुछ किया नहीं अब जबकि स्थिति सुधरने की उम्मीदें बढ़ रही हैं तब इस तरह के बयान दूध में नींबू निचोडऩे जैसी शरारत ही कही जाएगी। यदि अपने वकालती अनुभव का उपयोग करते हुए चिदम्बरम साहब सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 35 ए को समाप्त करवाने हेतु पैरवी करते तो विरोधी भी उनकी जय-जयकार करते परन्तु पुत्र के बचाव में राष्ट्रहित पर हमला करने का उनका आचरण पूरी तरह निंदाजनक है। काँग्रेस पार्टी को चाहिए था कि वह श्री चिदम्बरम के बेहद आपत्तिजनक बयान से पल्ला झाडऩे की बजाय उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की पेशकश करती। राजनीति करने के लिये नेताओं के पास अनगिनत मुद्दे हैं किन्तु जब बात देश हित की हो तब तो कम से कम निजी स्वार्थों को परे रखकर सोचना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 27 October 2017

फिर वही गलती कर रहे राहुल

आनन-फानन में दूरगामी सोच के अभाव में लिये गये निर्णयों से नुकसान उठाने के बाद भी यदि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी संभल नहीं रहे तो इसे उनकी अपरिपक्वता ही कहा जाएगा। बिहार में लालू और उ.प्र. में अखिलेश के साथ गलबहियां डालने की वजह से देश के सबसे बड़े दो प्रदेशों में राजनीतिक दृष्टि से हॉशिये पर आने के बाद भी कांग्रेस का गुजरात में हार्दिक पटैल और अल्पेश ठाकोर की चकरघिन्नी में फंसना उसकी संभावनाओं को खतरे में डाल सकता है। अल्पेश भले कांग्रेस में आ गये हों किन्तु हार्दिक काफी चालाक हैं जो अपनी शर्तों को मनवाने के मामले में काफी कठोर हैं। राहुल गांधी की परेशानी ये है कि वे पाटीदार समाज की मांगों को समर्थन देते हैं तो अल्पेश के साथ जुड़ी ओबीसी लॉबी तथा जिग्नेश मेवानी के दलित समर्थन भड़क उठेंगे और यदि वे हार्दिक को वादों का झूला झुलाते रहे तब महत्वाकांक्षाओं के ऊंचे आसमान पर उड़ रहा ये युवा भी हाथ से रेत की तरह खिसक सकता है। बेहतर होता कांग्रेस गुजरात में भाजपा की सरकार के विरुद्ध बने माहौल के बीच अपना रास्ता निकालती। नोटबंदी और जीएसटी से नाराज व्यापारी समुदाय की भावनाओं को भुनाने पर ध्यान देने से भी उसे लाभ होता परन्तु जल्दबाजी में राहुल उ.प्र. सरीखी भूल दोहराने जा रहे हंै। यदि उन्होंने हार्दिक-अल्पेश और जिग्नेशके दबाव में उनकी मर्जी की सीटे उन्हें बांट दी तब कांग्रेस का अपना कैडर निराश होकर बैठ जाएगा। बेहतर होगा यदि राहुल इन तीन युवा नेताओं को जरूरत से ज्यादा अहमियत नहीं दे वरना न खुदा ही मिला न विसाले सनम न इधर के रहे न उधर के रहे वाली हालत बने बिना नहीं रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

वरना किसान भाजपा के भाव उतार देंगे

इसमें दो मत नहीं है कि सरकार द्वारा प्रारंभ विभिन्न योजनाएं एवं कार्यक्रमों के पीछे जनहित की भावना रहती है। लेकिन उनके जमीन पर उतरते ही वे नौकरशाही की लापरवाही और भ्रष्टाचार के शिकंजे में कसकर दम तोड़  बैठती हैं। कृषि के क्षेत्र में लगातार अग्रणी बन रहे म.प्र. में किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य दिलवाने हेतु हाल ही में शिवराज सिंह चौहान की सरकार द्वारा प्रारंभ भावांतर योजना के साथ भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है। सरकार द्वारा तय किए न्यूनतम खरीदी मूल्य को कम मानते हुए किसान अक्सर उन्हें बढ़ाने के लिये आवाज उठाते रहे हैं। शिवराज सरकार ने इसका तोड़ निकालने हेतु किसान को छूट दे दी कि वह अच्छी कीमत मिलने पर अपनी उपज व्यापारी को सीधे बेचने स्वतंत्र है। इस वर्ष म.प्र. में मानसून कमजोर रहने की वजह से किसानों ने मंूग और उड़द की फसल की तरफ रूख किया और उनकी रिकॉर्ड पैदावार हो गई परन्तु जब वे मंडी में पहुंचे तो उन्हें अपेक्षित से कम कीमत मिलने पर उनका गुस्सा भड़क उठा। प्याज की बंपर पैदावार से उत्पन्न परिस्थितियों में हाथ जला बैठी राज्य सरकार ने किसानों की नाराजगी से बचने के लिये भावांतर योजना के तौर पर एक अच्छा विकल्प दिया था परन्तु या तो उसे लागू करने के पहले समुचित होम वर्क नहीं किया गया या फिर पहले की तरह सारा मामला निकम्मी नौकरशाही एवं कृषि उपज मंडी के अति भ्रष्ट ढांचे पर छोड़कर लंबी चादर तान ली गई। आलम ये है कि व्यापारी अच्छी-भली फसल को घटिया बताकर वाजिब दाम नहीं दे रहे वहीं मंडी प्रशासन भी किसानों की मदद करने की बजाय उन्हें धक्के खाने मजबूर कर रहा है। सही बात ये है कि शिवराज सरकार की अच्छी-अच्छी योजनाएं भी सरकारी तंत्र की नालायकी और बदनीयती के कारण विफलता और बदनामी में डूब रही हैं। भावांतर योजना निश्चित रूप से किसान को उसके श्रम और लागत का उचित मूल्य दिलवाने शुरू की गई थी। ऐसा नहीं है कि ये पूरी तरह फुस्स हो गई हो किन्तु प्रारंभिक दौर में प्रदेश के विभिन्न अंचलों से किसानों के आक्रोशित होने के समाचार मिलने से किसी हिंसक आंदोलन की आशंका उत्पन्न हो चली है। जाहिर है हमारे देश में राजनीति नामक वायरस बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तर्ज पर हर जगह घुस जाता है। इसलिये किसानों से जुड़ी समस्याओं का भी राजनीतिकरण हो जाता है। कृषि प्रधान देश होने की वजह से किसान अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं किन्तु राजनेताओं की समूची सोच घुमा-फिराकर चूंकि वोटों की फसल पर केन्द्रित हो उठती है इसलिये विभिन्न राजनीतिक दलों के लिये किसान अन्नदाता कम मतदाता ज्यादा हो गया है। खेती-किसानी को लेकर सरकारों के समूचे दृष्टिकोण पर वोट बैंक की राजनीति पूरी तरह हावी है। संसद और विधानसभाओं में ग्रामीण पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधियों की भरमार है। उनमें कुछ छोटे, मझोले किसान तो कुछ फार्म हाऊसों के स्वामी भी हंै। अनेक संसद-विधायक ऐसे हैं जिनकी आजीविका खेती से ही चलती है परन्तु इतना सब होते हुए भी यदि किसान की दशा धीरे-धीरे दुर्दशा का रूप तो बैठी तो इसके लिये सरकार की अच्छी नीतियों का सही ढंग से लागू नहीं हो पाना ही प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। यही वजह है कि कम फसल होने पर भी किसान खून के आंसू रोता है वहीं ज्यादा पैदावार भी उसके चेहरे से खुशी छीन लेती है। भावांतर योजना को शिवराज सरकार ने जिस उद्देश्य से लागू किया वह निश्चित रूप से अच्छा और कृषक हित में था परन्तु उसको अमल में लाने के लिये जिम्मेदार अमला चूंकि संवदेनहीन है इस कारण किसान मंडी प्रशासन और व्यापारी रूपी दो पाटों के बीच फंसकर कराहने की स्थिति में आ गया है बीते कई दिनों से म.प्र. के विभिन्न अंचलों में भावांतर योजना के बावजूद अच्छी कीमत नहीं मिलने से किसानों के भड़कने की खबरें जिस तरह आ रही हैं वे अच्छा संकेत नहीं हैं। यद्यपि कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने सभी जिलाधीशों को आगाह किया है कि वे किसानों को व्यापारियों की मुनाफाखोरी से बचाने मैदान में उतरें परन्तु मंत्री जी के फरमान का कितना असर होगा ये कह पाना मुश्किल है क्योंकि मंत्रालय से जारी आदेशों का निचले स्तर पर गंभीरता से संज्ञान लिया जाने लगे तब ऐसी अप्रिय स्थितियां बने ही क्यों? अमेरिका में म.प्र. की सड़कों का गौरवगान करने वाले शिवराज सिंह चौहान को भावांतर योजना को सही तरीके से लागू करने के लिये कमर कसनी होगी वरना अगले साल जब भाजपा वोटों की मंडी में उतरेगी तब अन्नदाता कहलाने वाले मतदाता भी भाजपा का बाजार भाव जमीन पर उतारने से बाज नहीं आयेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 26 October 2017

व्यर्थ में जगहंसाई करवा बैठे शिवराज

तमाम विवादों एवं आरोपों के बावजूद भी ये माना जाता है कि म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शालीता एवं सौजन्यता के मामले में काफी बेहतर हैं। निजी और सार्वजनिक दोनों ही तौर पर उनकी बातों में विनम्रता एवं सरलता देखी जाती है। अपनी सरकार की उपलब्धियों का बखान करते समय कभी-कभार अतिशयोक्ति का सहारा भले ही वे ले लेते हों परन्तु फिर भी उन्हें बड़बोला नहीं कहा सकता। लेकिन गत दिवस अपनी अमेरिका यात्रा में वॉशिंगटन की सड़कों से म.प्र. की सड़कों को बेहतर बताकर श्री चौहान ने अपनी जैसी किरकिरी करवाई वह अभूतपूर्व है। सोशल मीडिया के साथ ही टीवी चैनलों ने भी मुख्यमंत्री की टिप्पणी का जमकर मजाक बनाया। प्रदेश की टूटी-फूटी और अत्यंत जर्जर सड़कों के चित्र देखते ही देखते पूरी दुनिया में छा गये। जिन लोगों के सामने उन्होंने म.प्र. की सड़कों को वॉशिंगटन से बेहतर बताने की डींग हाँकी उन्होंने भी थोड़ी देर में ही म.प्र. की उन सड़कों का दर्शन कर लिया होगा जो बदहाली के मामले में विश्वस्तरीय कही जा सकती हैं। 2003 के विधानसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह की सरकार के विरुद्ध बिसपा नामक जो मुद्दा उठाया गया था उसका अर्थ बिजली, सड़क, पानी था। इन तीनों को आधार बनाकर भाजपा ने दिग्विजय को अलीबाबा नामक उपाधि देकर कठघरे में खड़ा कर दिया। बीते 14 वर्षों में म.प्र. में बिजली और सड़कों की दशा में काफी सुधार हुआ, ये स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है। पानी की स्थिति में मौसम एवं भौगोलिक परिस्थितियों का योगदान भी रहता है अत: वह अपेक्षाकृत उतनी नहीं सुधरी किन्तु। ग्रामीण इलाकों में बिजली की उपलब्धता इतनी अच्छी पहले कभी नहीं थी। बात तो यहां तक होने लगी है कि म.प्र. विद्युत के मामले में आवश्यकता से ज्यादा (सरप्लस) उत्पादन करने वाला राज्य बन गया है। जहां तक बात सड़कों की है तो हालात पहले से काफी बेहतर हुए हैं। प्रदेश स्तर के कई राजमार्ग पूरी तरह विकसित किये जा चुके हैं वहीं ग्रामीण एवं कस्बाई सड़कों का भी उन्नयन होने से आवागामन सुलभ हो गया है। प्रदेश से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों में कुछ तो बहुत अच्छे बन गये हैं जिनकी वजह से उन पर चलने वालों को भारी-भरकम टोल टैक्स के बाद भी सुखद एहसास होने लगा है किन्तु अभी भी अधिकतर राजमार्ग या तो खस्ता हालत में हैं या फिर निर्माणाधीन होने से मुसीबत का सबब बने हुए हैं। जबलपुर से भोपाल जाने वाले राजमार्ग पर काम शुरू होने का मुहूर्त ही नहीं बन पा रहा। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात है प्रदेश के सभी बड़े शहरों में सड़कों की बुरी हालत। वॉशिंगटन से म.प्र. की सड़कों को बेहतर बताने वाले शिवराज सिंह अपनी नाक के नीचे राजधानी भोपाल एवं अपने गृह नगर विदिशा की सड़कों की ही यदि याद कर लेते तो ऐसा बयान विदेश में न देते जिसने उनकी जगहंसाई करवा दी। मुख्यमंत्री चूंकि लालू ब्राण्ड नेता नहीं माने जाते इसलिये उनके प्रशंसक वर्ग ने भी उक्त बयान को लेकर शर्मिन्दगी का अनुभव किया। शिवराज जी म.प्र. को बीमारू राज्य से बाहर लाने का ढोल पीटते तब शायद बात जम जाती। वे कृषि आधारित उद्योगों के विस्तार की संभावनाएं बढ़ा चढ़ाकर पेश करते वहां तक भी उचित था। गाँवों में बिजली के फीडर सेपरेशन की जानकारी देकर भी अपनी पीठ ठोंक सकते थे किन्तु उन्होंने बात कही भी तो ऐसी  जिसे उनके हनुमान कहे जाने वाले प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान उर्फ नंदू भैया को छोड़कर अन्य कोई भाजपाई भी ईमानदारी से स्वीकार शायद ही करे। इससे भी बड़ी बात ये है कि मुख्यमंत्री विदेश यात्रा पर जाते ही क्यों हैं? यदि ये निजी यात्रा हैं तब तो किसी को पूछने का अधिकार नहीं है परन्तु यदि ये सरकारी खर्च पर आयोजित होती हों तब इनसे क्या हासिल होता है ये भी सार्वजनिक किया जाना चाहिये। जहां तक निवेशकों को न्यौता देने की बात है तो पूर्व में हुए निवेशक सम्मेलनों में आये भारतीय उद्योगपतियों ने जो वायदे किए थे उनमें से कितने पूरे हुए ये पूछे जाने पर ही प्रदेश सरकार के पसीने छूट जायेंगे। बेहतर हो विधानसभा चुनाव के एक वर्ष पूर्व सार्वजनिक तौर पर कुछ बोलने से पहले मुख्यमंत्री अपनी वाणी पर नियंत्रण रखें और ऐसे ही निर्देश अपने मंत्रियों को दें वरना जो दशा दिग्विजय सिंह की हो गई थी ठीक वैसी ही भाजपाइयों की हो जाए तो अचरज नहीं होगा। सूचना क्रांन्ति के इस युग में जंगल में मोर का नाचना भी दुनिया से छिपा नहीं रहता।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 25 October 2017

सही समय पर सही निर्णय


केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने नया जूता भी कुछ दिन काटता है जैसा बयान देकर ये स्वीकार कर लिया कि जीएसटी नामक नई कर प्रणाली से लोगों को अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है। राहुल गांधी द्वारा जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स कहा जाना तो उनकी अपरिपक्वता का परिचायक था क्योंकि उसे पारित करवाने में भी कांग्रेस का खुला समर्थन रहा। बावजूद इसके ये मान लेना हकीकत से रूबरू होना ही है कि पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी ने व्यापार जगत के सामने तमाम ऐसी परेशानियां उत्पन्न कर दीं जिनसे निपटने में उसे अनेकानेक व्यवहारिक परेशानियों से जूझना पड़ रहा है। भले ही सरकार की नजर में उक्त दोनों कदमों से अर्थव्यवस्था पाक-साफ हुई है तथा व्यापार में काले धन का प्रवाह एवं उपयोग भी काफी हद तक रूका है परन्तु व्यवसाय एवं औद्योगिक उत्पादन में कमी आने से विकास दर में गिरावट एवं बेरोजगारी बढऩे जैसी समस्याएं भी पैदा हो गईं। यद्यपि चौतरफा विरोध के कारण सरकार अभी तक जीएसटी को लेकर काफी उदार बनी हुई है। रिटर्न दाखिल करने की समय सीमा बढ़ाने तथा विलंब शुल्क की वापसी जैसे कदम इसका उदाहरण हैं किन्तु बाजार एवं रोजगार दोनों के क्षेत्र में मंदी चिंता का बड़ा कारण बनी हुई थी। यद्यपि जुलाई से लेकर सितंबर माह तक जीएसटी के तौर पर जो कर संग्रहण हुआ वह उम्मीद से ज्यादा न सही किन्तु उसके अनुसार रहने से केन्द्र सरकार का हौसला मजबूत हो सका जिसका प्रमाण पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी के रूप में देखने मिला। इसी क्रम में गत दिवस आर्थिक क्षेत्र में दो बड़े कदम केन्द्र सरकार द्वारा उठाये गये जिनसे उसकी चिंता और आत्मविश्वास दोनों का प्रगटीकरण हुआ। लगभग 7 लाख करोड़ की सड़क परियोजनाओं के साथ ही सरकारी बैंकों को 2 लाख 11 हजार करोड़ की पूंजी देने जैसे फैसलों से अर्थव्यवस्था में ठहराव दूर करने का प्रयास निश्चित रूप से समयोचित कदम है। आगामी पांच वर्षों में तकरीबन 84 हजार कि.मी. सड़कें बनाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य पूरा करने हेतु काफी बड़ी राशि मंजूर करने के कई फायदे हैं। इनमें मौजूदा एवं नये राजमार्ग विकसित करने के साथ-साथ सीमा एवं तटवर्ती इलाकों में उच्चस्तरीय सड़कें बनाने की योजना भी शामिल है। सड़क परिवहन को सुविधाजनक बनाकर आवागमन को सुलभ बनाना विकास की मूलभूत आवश्यकता रही है। परिवहन मंत्री नितिन गड़करी इस काम को बेहद कुशलता के साथ अंजाम दे रहे हैं। वाजपेयी सरकार द्वारा देश भर में सड़कों का जाल बिछा देने का जो काम शुरू किया गया था उसमें मोदी सरकार के आने के बाद फिर तेजी आई है। 22 किमी से बढ़ाकर 46 किमी प्रतिदिन सड़कें बनाने का निर्णय निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था में सक्रियता लाने की दिशा में बड़ा कदम होगा क्योंकि इससे निर्माण सामग्री की मांग बढऩे के साथ ही लाखों लोगों को काम भी उपलब्ध हो सकेगा। देश के प्रत्येक हिस्से तक सभी मौसमों में सुलभ एवं सुरक्षित आवागमन की सुविधा विकास के पहियों की गति को तेज करेगी ये मानने में कुछ भी गलत नहीं है। इन्फ्रास्ट्रक्चर नामक जो तत्व विगत कुछ दशकों में अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा बना उसे यदि सर्वोच्च प्राथमिकता दी जावे तो मंदी एवं बेरोजगारी की मौजूदा स्थिति से उबरा जा सकता है। केन्द्र सरकार ने इसी के साथ राष्ट्रीयकृत बैंकों को 2 लाख करोड़ से ज्यादा की पूंजी देने के फैसले के जरिये बाजार में छाई सुस्ती दूर करने का जो प्रयास किया वह देखने में छोटा जरूर दिखता हो परन्तु एनपीए के बोझ से कराह रहे बैंकों को छोटे और मझोले कारोबारियों को ऋण देने के लिये प्रेरित करने की दिशा में ये पंूजी काफी सहायक हो सकेगी। नोटबंदी को एक वर्ष और जीएसटी को चार माह पूरे होने जा रहे हैं। ये अवधि एक तरह से अर्थव्यवस्था की ओव्हर हॉलिंग के समान रही। नोटबंदी का निर्णय जहां छापामार शैली में किया गया वहीं जीएसटी का ढोल बजाकर परन्तु बदलाव को आसानी से स्वीकार नहीं करने की मानसिकता के कारण समाज के सभी वर्गों में इन फैसलों ने उथल-पुथल मचा दी। अब जबकि गर्द-गुबार बैठने की स्थिति बन गई है तब स्थितियों के अनुरूप निर्णय लेने की तत्परता दिखाकर केन्द्र सरकार ने जरूरतों और जनापेक्षाओं दोनों का ध्यान रखा। इन फैसलों से अर्थव्यवस्था में व्याप्त ठहराव तथा बेरोजगारी दूर करने में कितनी सफलता मिलेगी ये तो आने वाले समय में ही स्पष्ट हो सकेगा परन्तु मुफ्त में खैरात बांटकर कार्य संस्कृति को तबाह कर देने की मानसिकता त्यागकर सार्वजनिक धन से विकास कार्यों के जरिये लोगों को काम देना कहीं अच्छी  नीति है। वर्तमान परिस्थितियों में भले ही सरकार को मजबूरीवश ये सब करना पड़ा हो परन्तु इन फैसलों के दूरगामी परिणाम सुखद होंगे ये उम्मीद करना गलत नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी