Friday 27 October 2017

वरना किसान भाजपा के भाव उतार देंगे

इसमें दो मत नहीं है कि सरकार द्वारा प्रारंभ विभिन्न योजनाएं एवं कार्यक्रमों के पीछे जनहित की भावना रहती है। लेकिन उनके जमीन पर उतरते ही वे नौकरशाही की लापरवाही और भ्रष्टाचार के शिकंजे में कसकर दम तोड़  बैठती हैं। कृषि के क्षेत्र में लगातार अग्रणी बन रहे म.प्र. में किसानों को उनकी उपज का समुचित मूल्य दिलवाने हेतु हाल ही में शिवराज सिंह चौहान की सरकार द्वारा प्रारंभ भावांतर योजना के साथ भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है। सरकार द्वारा तय किए न्यूनतम खरीदी मूल्य को कम मानते हुए किसान अक्सर उन्हें बढ़ाने के लिये आवाज उठाते रहे हैं। शिवराज सरकार ने इसका तोड़ निकालने हेतु किसान को छूट दे दी कि वह अच्छी कीमत मिलने पर अपनी उपज व्यापारी को सीधे बेचने स्वतंत्र है। इस वर्ष म.प्र. में मानसून कमजोर रहने की वजह से किसानों ने मंूग और उड़द की फसल की तरफ रूख किया और उनकी रिकॉर्ड पैदावार हो गई परन्तु जब वे मंडी में पहुंचे तो उन्हें अपेक्षित से कम कीमत मिलने पर उनका गुस्सा भड़क उठा। प्याज की बंपर पैदावार से उत्पन्न परिस्थितियों में हाथ जला बैठी राज्य सरकार ने किसानों की नाराजगी से बचने के लिये भावांतर योजना के तौर पर एक अच्छा विकल्प दिया था परन्तु या तो उसे लागू करने के पहले समुचित होम वर्क नहीं किया गया या फिर पहले की तरह सारा मामला निकम्मी नौकरशाही एवं कृषि उपज मंडी के अति भ्रष्ट ढांचे पर छोड़कर लंबी चादर तान ली गई। आलम ये है कि व्यापारी अच्छी-भली फसल को घटिया बताकर वाजिब दाम नहीं दे रहे वहीं मंडी प्रशासन भी किसानों की मदद करने की बजाय उन्हें धक्के खाने मजबूर कर रहा है। सही बात ये है कि शिवराज सरकार की अच्छी-अच्छी योजनाएं भी सरकारी तंत्र की नालायकी और बदनीयती के कारण विफलता और बदनामी में डूब रही हैं। भावांतर योजना निश्चित रूप से किसान को उसके श्रम और लागत का उचित मूल्य दिलवाने शुरू की गई थी। ऐसा नहीं है कि ये पूरी तरह फुस्स हो गई हो किन्तु प्रारंभिक दौर में प्रदेश के विभिन्न अंचलों से किसानों के आक्रोशित होने के समाचार मिलने से किसी हिंसक आंदोलन की आशंका उत्पन्न हो चली है। जाहिर है हमारे देश में राजनीति नामक वायरस बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तर्ज पर हर जगह घुस जाता है। इसलिये किसानों से जुड़ी समस्याओं का भी राजनीतिकरण हो जाता है। कृषि प्रधान देश होने की वजह से किसान अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं किन्तु राजनेताओं की समूची सोच घुमा-फिराकर चूंकि वोटों की फसल पर केन्द्रित हो उठती है इसलिये विभिन्न राजनीतिक दलों के लिये किसान अन्नदाता कम मतदाता ज्यादा हो गया है। खेती-किसानी को लेकर सरकारों के समूचे दृष्टिकोण पर वोट बैंक की राजनीति पूरी तरह हावी है। संसद और विधानसभाओं में ग्रामीण पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधियों की भरमार है। उनमें कुछ छोटे, मझोले किसान तो कुछ फार्म हाऊसों के स्वामी भी हंै। अनेक संसद-विधायक ऐसे हैं जिनकी आजीविका खेती से ही चलती है परन्तु इतना सब होते हुए भी यदि किसान की दशा धीरे-धीरे दुर्दशा का रूप तो बैठी तो इसके लिये सरकार की अच्छी नीतियों का सही ढंग से लागू नहीं हो पाना ही प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। यही वजह है कि कम फसल होने पर भी किसान खून के आंसू रोता है वहीं ज्यादा पैदावार भी उसके चेहरे से खुशी छीन लेती है। भावांतर योजना को शिवराज सरकार ने जिस उद्देश्य से लागू किया वह निश्चित रूप से अच्छा और कृषक हित में था परन्तु उसको अमल में लाने के लिये जिम्मेदार अमला चूंकि संवदेनहीन है इस कारण किसान मंडी प्रशासन और व्यापारी रूपी दो पाटों के बीच फंसकर कराहने की स्थिति में आ गया है बीते कई दिनों से म.प्र. के विभिन्न अंचलों में भावांतर योजना के बावजूद अच्छी कीमत नहीं मिलने से किसानों के भड़कने की खबरें जिस तरह आ रही हैं वे अच्छा संकेत नहीं हैं। यद्यपि कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने सभी जिलाधीशों को आगाह किया है कि वे किसानों को व्यापारियों की मुनाफाखोरी से बचाने मैदान में उतरें परन्तु मंत्री जी के फरमान का कितना असर होगा ये कह पाना मुश्किल है क्योंकि मंत्रालय से जारी आदेशों का निचले स्तर पर गंभीरता से संज्ञान लिया जाने लगे तब ऐसी अप्रिय स्थितियां बने ही क्यों? अमेरिका में म.प्र. की सड़कों का गौरवगान करने वाले शिवराज सिंह चौहान को भावांतर योजना को सही तरीके से लागू करने के लिये कमर कसनी होगी वरना अगले साल जब भाजपा वोटों की मंडी में उतरेगी तब अन्नदाता कहलाने वाले मतदाता भी भाजपा का बाजार भाव जमीन पर उतारने से बाज नहीं आयेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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