Wednesday 18 October 2017

लोकायुक्त :पंच परमेश्वर कहानी याद आ गई

जिन लोगों ने मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित कहानी 'पंच परमेश्वर' पढ़ी होगी उन्हें न्याय की आसंदी पर बैठे या बिठाए गए व्यक्ति की ईमानदारी पर उठे सवाल की अहमियत आसानी से समझ आ जाएगी। अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की दोस्ती का अदावत में बदलना तथा उसके बाद के घटनाक्रम के इर्द-गिर्द घूमती मुंशी जी की उस कहानी का सुखान्त यद्यपि न्याय करने वाले के मन में स्वाभाविक रूप से आ जाने वाले आदर्श भाव को प्रतिबिंबित करता है किन्तु प्रेमचंद जी ने जिस युग को देखा और अपनी रचनाओं के माध्यम से आने वाली पीढिय़ों के सामने उसका जीवन्त चित्रण छोड़ गए वह अब मैडम तुसाद के संग्रहालयों में खड़ी मोम की उन  मूर्तियों की तरह है जो दिखती तो हूबूह असली हैं किन्तु न सिर्फ मूक अपितु भावना और चेतना शून्य भी हैं। गत दिवस म.प्र. के लोकायुक्त पद पर अवकाश प्राप्त न्यायाधीश नरेश गुप्ता की नियुक्ति को लेकर औचित्य के प्रश्नों के साथ आलोचना के स्वर जिस तरह गूंजे उससे इस महत्वपूर्ण संस्था और उसके सर्वोच्च पद की विश्वसनीयता पर संदेह के बादल एक बार फिर गहराने लगे हैं। यद्यपि श्री गुप्ता की नियुक्ति म.प्र. उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, मुख्यमंत्री तथा नेता प्रतिपक्ष की सहमति के उपरांत होने से उसकी वैधानिकता पर उंगली उठाने की गुंजाइश उतनी नहीं है परन्तु जहां तक बात प्रामाणिकता और नैतिकता की है तो न्याय प्रक्रिया से जुड़े किसी भी पद पर आसीन व्यक्ति की छवि निष्पक्ष एवं निर्विवाद होनी जरूरी है। न्यायमूर्ति श्री गुप्ता की योग्यता, अनुभव तथा कार्य-कुशलता पर तो किसी ने संदेह नहीं किया परन्तु उप लोकायुक्त के तौर पर पहले से ही कार्य कर रहे न्यायाधीश यू.सी. माहेश्वरी चूंकि वरिष्ठता में श्री गुप्ता से छह साल आगे थे इसलिये स्वाभाविक यही होता कि उन्हें पदोन्नत कर लोकायुक्त बनाया जाता। अपनी नियुक्ति पर उठ रहे सवालों के उत्तर में श्री गुप्ता ने जहां उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहते हुए उनके द्वारा निपटाए अपराधिक प्रकरणों की रिकॉर्ड संख्या का हवाला देकर अपनी क्षमता का प्रमाण पेश किया वहीं वरिष्ठ होने के बाद भी उप लोकायुक्त बने रह गए श्री माहेश्वरी ने अपने असंतोष को दार्शनिक अंदाज में प्रस्तुत करते हुए कह दिया कि वे काम करते रहेंगे क्योंकि उनकी नियुक्ति भी तो उप लोकायुक्त पद पर ही हुई थी। समूचे विवाद में वैधानिक तथा व्यवहारिक पक्ष से अधिक नैतिकता तथा पारदर्शिता का मापदंड कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। लोकायुक्त के पद पर विराजमान व्यक्ति के पास बतौर न्यायाधीश सुदीर्ध अनुभव के साथ ही मुख्यमंत्री सहित सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोगों की जांच का अधिकार होने से जिम्मेदारी से ज्यादा उसकी छवि महत्वपूर्ण हो जाती है। हॉलांकि पिछले अनुभवों के आधार पर ये कहना गलत नहीं लगता कि लोकायुक्त पद पर बैठे कई मान्यवर पद की गरिमा एवं गंभीरता को बरकरार नहीं रख सके। उन्होंने अपने अधिकारों तथा रूतबे का उपयोग करते हुए किसी बड़े मोहरे को पीटा हो ये तो देखने में नहीं आया लेकिन अपने वेतन, भत्ते, पेंशन तथा अन्य सुविधाओं को लेकर जरूर वे सरकार से दो-दो हाथ करने पर आमादा हो गये। राजनीतिक क्षेत्रों में व्याप्त चर्चाओं को सही मानें तो यदि निष्पक्ष जाँच हो जाए तो लोकायुक्त नामक पूरी व्यवस्था को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। यही वजह है कि एक कनिष्ठ को छह साल वरिष्ठ न्यायाधीश के ऊपर बिठाने के फैसले पर बवाल उठ खड़ा हुआ है। शिवराज सिंह पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले कतिपय व्यक्ति और संस्थाएं जहां सर्वोच्च न्यायालय जाने की बात कह रहे है वहीं खुद श्री गुप्ता ने विरोधियों को वैसा करने की चुनौती दे दी है। इस नियुक्ति पर विपक्षी दल कांग्रेस में भी अंतर्विरोध सामने आ गए हैं। प्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता एवं राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने कांग्रेस के होते हुए भी नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह की सहमति पर आश्चर्य व्यक्त कर दिया तो श्री सिंह के अनुसार मुख्य न्यायाधीश ने एक ही नाम की अनुशंसा की थी इसलिये उनके पास दूसरा विकल्प ही नहीं था। न्यायमूर्ति नरेश गुप्ता की नियुक्ति नियमानुसार है या नहीं इसका फैसला तो संविधान के जानकार और सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकेंगे किन्तु इतना जरूर है कि पदभार ग्रहण करने के पहले ही विवादों में घिर जाने के कारण श्री गुप्ता पर अपनी नियुक्ति को सही साबित करने का अतिरिक्त भार आ गया है। अगले साल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। मुख्यमंत्री सहित तमाम मंत्रियों एवं वरिष्ठ अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। पिछले लोकायुक्त की सेवा निवृत्ति के उपरांत लंबे समय तक उनके उत्तराधिकारी का चयन न हो पाने से भी प्रदेश सरकार की नीयत पर संदेह उत्पन्न हो रहा था। खैर, अब नियुक्ति हो ही चुकी है तथा न्यायमूर्ति नरेश गुप्ता की काबलियत भी असंदिग्ध है इसलिये ये उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्होंने बतौर न्यायाधीश जिस कार्य कुशलता तथा दक्षता का परिचय दिया वैसी ही लोकायुक्त के रूप में देकर वे 'पंच परमेश्वर' नामक कहानी के अंत को फिर सजीव कर देंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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