Thursday 12 October 2017

सर्वोच्च न्यायालय का सुधारवादी कदम

हालांकि बाल विवाह को लेकर पहले की अपेक्षा काफी सुधार हो चुका है। बालिका शिक्षा में वृद्धि के कारण भी स्थिति बदली है। लेकिन इसके बाद भी ये नहीं कहा जा सकता कि कानून में वर्णित न्यूनतम आयु सीमा का पालन लड़कियों के विवाह हेतु शत-प्रतिशत किया ही जा रहा है। यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस एक फैसले में साफ-साफ कह दिया कि 18 वर्ष से कम उम्र की बालिका के साथ चाहे वह विवाहित पत्नी ही क्यों न हो शारीरिक संबंध बनाना दुष्कर्म की श्रेणी में आवेगा। इसके लिये एक वर्ष के भीतर शिकायत करनी होगी। अभी तक के जिस कानूनी प्रावधान के अनुसार 15 से 18 वर्ष के बीच की पत्नी से शारीरिक संबंध को बलात्कार नहीं माना जाता था उसे सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक निरूपित कर दिया। सबसे बड़ी बात उक्त फैसले में यह है कि ये सभी धर्मावलंबियों पर समान रूप से लागू होगा। उल्लेखनीय है कि हिन्दू विवाह अधिनियम में जहां विवाह हेतु लड़की की उम्र कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिये वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ में ये 15 वर्ष थी। इस आधार पर ही कतिपय उच्च न्यायालय द्वारा 15 से 18 वर्ष के बीच की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने वाले मुस्लिम पति को दुष्कर्म के आरोप से बरी का दिया गया था। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले से पूर्व में हो चुके विवाह अप्रभावित रहेंगे किन्तु 18 वर्ष से कम की लड़की का विवाह किये जाने की शिकायत मिलने पर वह अवैध हो सकता है वहीं पति-पत्नी दोनों यदि 18 वर्ष से कम हुए तब शारीरिक संबंध बनाने को दुष्कर्म मानने संबंधी प्रकरण बाल न्यायालय के कार्यक्षेत्र में आवेगा। अभी तक मुस्लिम समाज ने इस फैसले को पर्सनल लॉ में दखलंदाजी नहीं बताया है। हो सकता है सूक्ष्म अध्ययन करने के उपरांत वहां से प्रतिक्रिया आवे लेकिन इस निर्णय के मूल में बाल विवाह को सख्ती से रोकने की सदिच्छा ही है। देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां अक्षय तृतीया के दिन गुड्डे-गुडिय़ों के खेल की तरह छोटे बच्चे-बच्च्यिों का ब्याह कर दिया जाता है। पुरानी परंपरा में भी 13 से 14 साल की लड़की की शादी करने के बाद भी उसे पति के साथ नहीं भेजा जाता था तथा कुछ वर्ष बाद गौने की रस्म पूरी कर उसकी विदाई होती थी। समय एवं परिस्थितियों के कारण समाज अपने नियम कानून बदलता रहता था। यहां तक कि एक ही धर्म के मानने वालों की सामाजिक परंपराएं पूरी तरह भिन्न होती थीं। इनका सबसे अधिक जुड़ाव और प्रभाव विवाह पर ही दिखाई देता है। सर्वोच्च न्यायालय ने जाति, धर्म और क्षेत्र की संकुचित सोच से ऊपर उठकर समूचे भारत को एक इकाई मानकर जो फैसला दिया है वह हर दृष्टि से स्वागत योग्य है। विवाह का उद्देश्य महज शारीरिक संबंध बनाकर संतानोत्पत्ति करना नहीं होता। यह सभ्य समाज की पहिचान है जो एक लड़की के सम्मान और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी देती है। शारीरिक तौर भले ही एक लड़की 18 वर्ष की आयु से पहले ही काफी कुछ विकसित हो जाती हो परन्तु उसे शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर चूल्हे-चौके में झौंक देना 19वीं सदी की सोच ही हो सकती है। हो सकता है कुछ लोगों को खासतौर पर समाज को रूढिय़ों रूपी बेडिय़ों में बांधकर रखने वाले धर्म के ठेकेदारों को उक्त फैसले से परेशानी होगी किन्तु हर समझदार और सुधारवादी सोच रखने वाला व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय से सहमत होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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