जिस सर्वोच्च न्यायालय ने सिनेमाघरों में शो शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाने तथा दर्शकों को उसके सम्मान में अनिवार्य रूप से खड़े होने का फरमान निकाला था वही कह रहा है कि देशभक्ति को आस्तीन पर लेकर चलने बाध्य नहीं कर सकते। अपने आदेश में अनिवार्य की जगह ऐच्छिक शब्द के इस्तेमाल का संकेत देते हुए मुख्य न्यायाधीश सहित दो अन्य न्यायाधीशों की पीठ ने गेंद सरकार के पाले में डालते हुए कह दिया कि वह राष्ट्रगान तथा ध्वज संबंधी निर्णयों में संशोधन कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय का हवाला दिये जाने पर पीठ ने उलाहना दिया कि सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने की छूट नहीं दी जावेगी। गत वर्ष दिये गये फैसले के विरोध में प्रस्तुत याचिका पर विचार करते हुए की गई उक्त टिप्पणियों से जहां न्यायालय ने अपने पूर्व रूख में लचीलापन दिखाया वहीं सरकार पर पूरी जिम्मेदारी डालते हुए कई सारे उपदेश भी दे डाले। बहरहाल न्यायालय का ये कहना सही है कि देश भक्ति न तो दिखावे की चीज है और न ही इसे जबरन लादा जाना चाहिये। सार्वजनिक स्थलों पर राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज के सम्मान के प्रति अधिकतर लोगों की उपेक्षा का उल्लेख भी पीठ ने किया। इस टिप्पणी के बाद अब सरकार के रूख पर सभी की नजर रहेगी किंतु इतना सही है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति सम्मान का भाव कानून और सरकार नहीं अपितु संस्कारों से ही उत्पन्न किया जा सकता है। भारत में देशभक्ति की भावना तो हर व्यक्ति के मन में है किन्तु उससे जुड़े कत्र्तव्यों के निर्वहन के प्रति लापरवाही भी उतनी ही है। ये बात सौ फीसदी सच है कि देशभक्ति यदि आत्म प्रेरित न हो तो तब उसका दबाववश किया गया प्रदर्शन भी अर्थहीन होता है।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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