Monday 23 October 2017

जातिवाद से परहेज जातिवादियों से नहीं

रणभूमि सजने के पहले योद्धाओं को अपनी पसंद के पक्ष में खड़े होने की स्वतंत्रता रही है। बाद में पाला बदलने को अनैतिक माना जाता था। युद्ध के नियमों में आदर्श और सिद्धान्तों का भी काफी महत्व होता था। भारतीय राजनीति भी किसी युद्ध से कम नहीं है किन्तु इसमें केवल पाला बदलने वाली परंपरा को ही स्वीकार किया गया वह भी पूरी बेशर्मी के साथ। गुजरात चुनाव की रणभेरी बजने के साथ ही योद्धाओं की उछल-कूद शुरु हो गई है। हॉलांकि राष्ट्रपति और राज्यसभा चुनाव के साथ ही इसकी शुरुवात हो चुकी थी। नेता प्रतिपक्ष शंकर सिंह वाघेला सहित तकरीबन दो दर्जन विधायकों ने कांग्रेस से बगावत कर दी थी। और भी तमाम छोटे-बड़े नेता इधर से उधर हुए किन्तु सभी की नजर पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटैल के साथ ही ओबीसी नेता अल्पेेश ठाकोर एवं दलित नेता जिग्नेश मेवानी पर लगी थी, जो काफी समय से भाजपा के विरुद्ध अपने मैदान में जुटे थे। पहले-पहल तो तीनों सियासत से दूर रहकर अपने-अपने जातीय और सामाजिक जनाधार को मजबूत कर उनकी मांगों को मनवाने पर जोर देते रहे परन्तु धीरे-धीरे स्पष्ट हो गया कि उनके मन में भी सत्ता प्राप्त करने के लड्डू फूटने लगे हैं। ये तीनों  वैसेे तो अलग-अलग जातीय समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं किन्तु भाजपा विरोधी होने से कांग्रेस को इनमें अपनी संभावनाएं नजर आने लगीं। ये बात भी पूरी तरह सच है कि हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश अलग-अलग या मिलकर चुनाव लड़े तब भी बिना भाजपा या कांग्रेस का दामन पकड़े उन्हें सफलता नहीं मिल सकती। चूंकि भाजपा उनकी दुश्मन नं. एक बन गई है इसलिये चाहे-अनचाहे उन्हें भी कांग्रेस का कुर्ता पकडऩे की मजबूरी स्वीकार करनी पड़ी। राहुल गांधी ने बिना संकोच उनके सामने दाना डाल दिया। पार्टी की टिकिट तक ऑफर कर दी। यद्यपि तीनों नेताओं ने इस पहल का सकारात्मक उत्तर दिया किन्तु उनके मन में अपनी दूकान पर कांग्रेस का साइन बोर्ड टांगने को लेेकर हिचक भी बनी रही। अंतत: ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस में शामिल होने का निर्णय कर लिया। उधर हार्दिक द्वारा कांग्रेस के साथ जाने की खबरों की प्रतिक्रिया स्वरूप उनके दो खास सहयोगी वरूण और रेशमा पटैल ने भाजपा का दामन थाम लिया। पाला बदल और तोडफ़ोड़ का ये सिलसिला कहां जाकर रूकेगा कहना कठिन है क्योंकि गुजरात का आगामी विधानसभा चुनाव नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद होने से कांग्रेस के लिये आशा की किरण बन गया है। पाटीदार आंदोलन से भाजपा के इस मजबूत किले की दीवारों में आई दरारों को ओबीसी और दलित वर्ग की गोलबंदी से और चौड़ा होने की आशंका ने राहुल   गांधी के मन में ये विश्वास जगा दिया है कि वे मोदी के अश्वमेधी अश्व को उनके अपने घर में ही रोककर 2019 की जंग में मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल कर सकेंगे। हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश तीनों युवा हैं। भीड़ एकत्र करने के मामले में भी वे अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं किन्तु ये सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि क्या गुजरात की जनता प्रदेश की सरकार चुनते समय जातीय समीकरणों को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देगी? और ये भी क्या कि राहुल सरीखा आधुनिक सोच वाला नेता चुनाव जीतने के लिये क्या उन युवा नेताओं पर निर्भर करेगा जिनके समूचे आंदोलन के पीछे केवल और केवल जातिगत सोच ही रही है? उ.प्र. के चुनाव में कांग्रेस को पुनस्र्थापित करने निकले राहुल ने जिस तरह अखिलेश यादव के साथ आत्मसमर्पण की शैली में गठबंधन बनाया उसकी वजह से कांग्रेस वहां अब तक की सबसे दयनीय स्थिति में जा पहुंची। ये भी विचारणीय है कि तीनों युवा नेताओं को समाज के अन्य वर्गो के हितों से कुछ भी सरोकार नहीं है। पाटीदार आंदोलन के समय जिस तरह गुजरात के अर्थतंत्र का नुकसान किया, क्या राहुल और कांग्रेस उसका समर्थन करेंंगे? इसके साथ ही क्या कांग्रेस हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश द्वारा उठाई गई मांगों को यथावत मान लेने का आश्वासन दे सकेगी क्योंकि ऐसा करने पर अन्य जातीय समूहों की नाराजगी उसे झेलनी पड़  सकेती है। यही गलती भाजपा की तरफ से भी हो रही है। हार्दिक पटैल सहित अन्य दो नेताओं को शुरू से भाव न देने की नीति चलते हुए उसने जो दृढ़ता दिखाई थी वह उस समय टूटती दिखी जब वरूण और रेशमा नामक पाटीदार आंदोलन के दो बड़े नेताओं को उसने महज चुनावी लाभ के लिये अपने साथ जोड़ लिया। ये दोनों हार्दिक द्वारा चलाने जा रहे हिंसक आंदोलन में पूरी तरह साथ रहे थे। क्या भाजपा में शरीक होने से उनके वे सभी अपराध शून्य हो गये? मात्र चुनावी सफलता के उ.प्र. और अन्य राज्यों में भी बिना अच्छे-बुरे का भेद किये भाजपा ने अन्य दलों से आये नेताओं को न सिर्फ टिकिट दी बल्कि जीतने पर सरकार में मंत्री पद भी दिया। गुजरात में यद्यपि हर बार भाजपा को कांग्रेस की तरफ से कड़ी चुनौती मिली रही किन्तु श्री मोदी में आखिरी दम तक लडऩे का जो माद्दा रहा उससे उन्हें जीत मिलती रही। शंकर सिंह वाघेला के बाद केशुभाई पटैल और सुरेश मेहता सरीखे दिग्गजों की बगावत को तो भाजपा ने झेल लिया परन्तु गुजरात की सत्ता से नरेन्द्र भाई के हटने के बाद से उत्पन्न रिक्तता को समय पर न भरे जाने के परिणामस्वरूप उसका आत्मबल किसी न किसी रूप में खंडित हुआ तभी उसने पहले श्री वाघेला के जरिये कांग्रेस विधायक तोड़े और अब हार्दिक के दो निकट सहयोगियों को अपने पाले में खींच लिया। आज अल्पेश ठाकोर कांग्रेस में जाने वाले हैं। हार्दिक और  जिग्नेश सारे मुद्दे छोड़कर भाजपा को हराने के लिये कुछ भी करने तैयार है और कांग्रेस भी अपनी राष्ट्रीय छवि  को भुलाकर उन लड़केनुमा नेताओं को बराबरी से बिठाने लालायित हो उठी है जिनकी सोच निहायत ही संकीर्ण और सतही है। केवल चुनाव जीतने के लिये भाजपा और कांग्रेस में क्षेत्रीय ताकतों को गोद में बिठाने की जो प्रतिस्पर्धा चल रही है उससे राष्ट्रीय राजनीति में नये-नये दबाव समूह पैदा होने लगे हंै जिनमें अधिकतर का उद्देश्य भावनाएं भड़काकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना है, जिसमें सत्ता प्रमुख है। बेहतर होता गुजरात चुनाव उन्हीं मुद्दों पर लड़ा जाता जो भाजपा और कांग्रेस लंबे समय से उठाते आये हैं। मुकाबला शुरू होने के पहले भाड़े के सैनिकों की तर्ज पर नई भरती कर युद्ध जीतने की इस प्रथा के उदय के बाद से ही सरकारों पर अनुचित दबाव डालने की बुराई ने जन्म लिया। मुख्यधारा की दोनों पार्टियां छोटे दलों की दादागिरी एवं अवसरवादिता का दंश भुगतने के बाद भी इनके सामने नतमस्तक क्यों हो जाती हैं ये विचारणीय प्रश्न है।

-रवींद्र वाजपेयी

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