Tuesday 17 October 2017

आयुर्वेद संस्थान पूरे देश में खुलें

आजादी के 70 साल में जिन चीजों की सबसे ज्यादा दुर्गति हुई उनमें आयुर्वेद भी है। पूरी तरह जड़ी बूटियों पर आधारित चिकित्सा की ये विशुद्ध भारतीय पद्धति नुकसान रहित तथा स्थायी निदान देने वाली रही है। ब्रिटिश राज में एलोपैथी ने पाँव जमाए तथा धीरे-धीरे अंग्रेजी भाषा की तरह वह भी भारतीय परिदृश्य पर पूरी तरह हावी होती चली गई। आज आलम ये है कि एक तरफ जहाँ एलोपैथी डॉक्टर एवं इस प्रणाली पर आधारित निजी अस्पताल तबियत से रुपया बटोर रहे हैं वहीं आयुर्वेद किसी सरकारी प्राथमिक शाला की तरह उपेक्षित होकर रह गया है। कतिपय निजी दवाई कंपनियां हॉलांकि आयुर्वेदिक औषधियां बनाती हैं किन्तु अच्छे प्रशिक्षित नाड़ी वैद्य न होने से आयुर्वेद के प्रति पहले जैसा भरोसा नहीं रहा। योग गुरू बाबा रामदेव को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने इस प्राचीन चिकित्सा प्रणाली को सम्मान दिलाने में ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन करते हुए उसके प्रति विश्वास पुनस्र्थापित किया। दवाओं के क्षेत्र में भी उन्होंने सफलतापूर्वक हाथ आजमाया तथा सस्ते उत्पाद प्रस्तुत कर प्रतिस्पर्धा की स्थिति उत्पन्न की। श्रीश्री रविशंकर ने भी  आयुर्वेद दवाओं का उत्पादन प्रारंभ किया। सरकार यूं तो काफी पहले से आयुर्वेद शिक्षा हेतु महाविद्यालय चला रही है परन्तु बीएएमएस की उपाधि लेकर निकले लोग खुद को वैद्य की बजाय डॉक्टर कहलाना पसंद करते हैं तथा उनमें से इक्का-दुक्का ही आयुर्वेदिक दवाओं से इलाज करते होंगे। यही वजह है वैद्य नामक संस्था धीरे-धीरे विलुप्त होने लगी। आज धनतेरस पर स्वास्थ्य के आराध्य देव भगवान धन्वन्तरि की जयंती भी मनाई जाती है। इस अवसर पर भारत सरकार द्वारा दिल्ली में एम्स की तर्ज पर अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान का लोकार्पण करना एक उत्साहवर्धक कदम है। जानकारों की मानें तो आयुर्वेद के दौड़ में पिछडऩे की एक वजह उसमें नये न शोध होना भी है। हजारों वर्ष पुराने चरक संहिता एवं उस जैसे अन्य ग्रन्थों को ही मानक के तौर पर स्वीकार किया जाता है। यद्यपि ये कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आयुर्वेद का जो भी उपलब्ध ज्ञान है उसमें हर बीमारी का इलाज है जिसमें कैंसर भी है परन्तु बीमारी की जाँच एवं बचाव के प्रति एलोपैथी की तरह जागरूकता फैलाने में आयुर्वेद से जुड़े लोग कामयाब नहीं हो सके तो इसकी एक वजह सरकार से समुचित प्रोत्साहन का नहीं मिलना भी रहा। अब दिल्ली में अखिल भारतीय स्तर का आयुर्वेद संस्थान खुलने के बाद ये उम्मीद की जानी चाहिए कि इस प्रामाणिक चिकित्सा पद्धति के प्रचार-प्रसार में गति आयेगी वहीं इसके माध्यम से प्राकृतिक जड़ी-बूटियों के संरक्षण के प्रति भी जिम्मेदारी का भाव उत्पन्न हो सकेगा। दिल्ली में स्थित होने के कारण देश के भाग्यविधाता बने बैठे नेतागण इस संस्थान में इलाज कराने की सौजन्यता प्रदर्शित करें तो इसकी विश्वसनीयता बढ़ेगी। यही नहीं जिस तरह पूरे देश में जगह-जगह एम्स और पीजीआई सदृश संस्थान खोले जा रहे हैं ठीक वैसे ही आयुर्वेद संस्थान भी प्रारंभ किये जाएं। आजं चिकित्सा सेवाओं की जो दयनीय स्थिति है उसे देखते हुए लाखों चिकित्सकों की जरूरत है। सरकारी और निजी मेडीकल कॉलेज मिलकर भी इस जरूरत को पूरा नहीं कर पा रहे। यही स्थिति अस्पतालों की भी है। चूंकि आयुर्वेद पद्धति से इलाज करने वाले अस्पताल हरिद्वार में बाबा रामदेव के पतंजलि संस्थान की तरह उंगली पर गिनने लायक हैं इसलिये इस विधा से लोग चाहकर भी नहीं जुड़ पाते। आयुर्वेद संस्थान नामक ये प्रयोग उस दृष्टि से बेहद उपयोगी साबित हो सकता है क्योंकि यहां मरीजों को भरती करने की समुचित व्यवस्था है। अच्छा होगा यदि आयुर्वेद से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े लोग अच्छे वैद्य तैयार करने पर भी ध्यान दें। इसी के साथ आयुर्वेद के फायदों के प्रति भी जागरूकता लानी जरूरी है। लेकिन उससे भी आवश्यक ये होगा कि इसका इलाज एलोपैथी की तुलना में सस्ता हो। पहले के वैद्य अपनी दवाईयां स्वयं बनाया करते थे जिससे वे अपेक्षाकृत सस्ती होती थीं किन्तु कंपनियों के बने उत्पाद स्वाभाविक रूप से महंगे होते हैं। मौजूदा केन्द्र सरकार भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के प्रति सक्रिय है। आयुर्वेद को लोकप्रिय बनाकर ये उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि वह केवल चिकित्सा पद्धति ही नहीं अपितु आदर्श जीवनशैली हेतु भी प्रेरित करता है। दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान की शुरुवात भगवान धन्वंतरि के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। इसकी शाखाएं पूरे देश में खोली जा सकें तो आयुर्वेद को उसका खोया हुआ सम्मानजनक स्थान फिर प्राप्त हो सकेगा ये उम्मीद की जा सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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