धनतेरस पर विज्ञापनों से अटे पड़े अखबारों के भीतरी पन्ने पर 1956 के मेलबोर्न ओलंपिक में तैराकी प्रतियोगिता में चौथे स्थान पर रहे शमशेर खान के निधन की खबर छपी है। आन्ध्रप्रदेश के विजयबाड़ा में 87 साल की उम्र में बेहद फटेहाली में दम तोड़ बैठे शमशेर के अंतिम दिन बेहद कष्ट में बीते। दवाईयों तक के लिये पैसे को मोहताज इस पूर्व फौजी के आखिरी समय में न तो सरकार मदद हेतु आगे आई और न ही कोई खेल संघ। पिछले ओलंपिक में चौथे स्थान पर रहे भारतीय खिलाडिय़ों पर भी जमकर धन और यश की बरसात हुई। पदक जीतने वाले तो राष्ट्रीय स्तर पर पूजे गये किन्तु भारत के पहले ओलंपिक तैराक रहे शमशेर जिस तरह गुमनामी में चल बसे वह शर्मनाक है। ये देश का दुर्भाग्य है कि उस दौर में ओलंपिक के मैदान पर तिरंगा लेकर चलने वाले खिलाडिय़ों को वह सम्मान नहीं दिया जा सका जिसके वे हकदार रहे। मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न से न नवाजा जाना इसका उदाहरण है। इस बारे में खेल संघों की लापरवाही भी जिम्मेदार है जो गुजरे जमाने के नायकों की खोज-खबर नहीं लेते। फिल्म लाईन में भी ऐसी ही संवेदनहीनता देखी जाती है जहां भगवान दादा, भारत भूषण, ऋषिकेश मुखर्जी और ए.के. हंगल सरीखे बड़े नाम आखिरी समय मुफलिसी के शिकार होकर रह गये।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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