Thursday 19 October 2017

दीपावली पर विशेष संपादकीय ;राम के बाद राम राज्य की प्रतीक्षा

गत रात्रि अयोध्या में दीपावली की पूर्व संध्या पर दीपमालिका की जो छटा बिखरी उसने सहस्त्रों वर्ष पूर्व भगवान राम के लंका से लौटने की स्मृतियों को सजीव कर दिया। तब प्रभु सीता, लक्ष्मण सहित पुष्पक विमान से लौटे थे किन्तु कल वे हेलीकॉप्टर से उतरे। पूरी उ.प्र. सरकार उनकी अगवानी में खड़ी थी। समूची दुनिया ने उस रंगारंग समारोह का सीधा प्रसारण देखा। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस प्रयास को एक तरफ जहाँ राम मंदिर निर्माण की तरफ महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है वहीं दूसरी तरफ अयोध्या को विश्वस्तर का पर्यटन केन्द्र बनाने की कल्पना भी इससे साकार हो सकेगी। भाजपा के कतिपय आलोचकों ने भी दबी जुबान ही सही किन्तु ये स्वीकार किया कि मुलायम सिंह यादव के परिवार ने सैफई में जो महोत्सव शुरू करवाया उसकी तुलना में योगी द्वारा अयोध्या में किया गया आयोजन कहीं ज्यादा गरिमापूर्ण और उ.प्र. में पर्यटन की दृष्टि से अधिक उपयोगी रहा किन्तु इस सफल भव्य आयोजन के बाद एक बार फिर ये प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि भले ही योगी सरकार और भाजपा के विचारकों ने अनगिनत वर्ष पूर्व श्रीराम के अयोध्या आगमन पर मनाई गई दीपावली को सजीव कर दिया किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि क्या उस राम राज्य को भी जमीन पर उतारने में सफलता मिलेगी जो देश की सत्ता पर विराजमान विचारधारा के प्रतिनिधियों की प्रतिबद्धता का हिस्सा रहा है। उस दृष्टि से ये जिज्ञासा गलत नहीं  है कि राम भक्तों का सिंहासनारूढ़ होना भी यदि सत्ता से जुड़ी संस्कृति को नहीं बदल सका तो फिर पूजा पर पाखंड का आरोप लगने से रोकना कठिन हो जाएगा। नोटबंदी  और जीएसटीजैसे मुद्दे तात्कालिक हैं। इनका देश की अर्थव्यवस्था पर सीधा प्रभाव भले पड़ रहा हो किन्तु उससे भी अहम है उस चारित्रिक बदलाव का एहसास जो राम के अनुयायियों से अपेक्षित था। देश जिन हालातों से गुजर रहा है उनमें सबसे बड़ा संकट विश्वास का है। शासक और शासित के बीच का रिश्ता जिस विश्वास रूपी बुनियादी पर खड़ा होता है वह पूरी तरह से कमजोर तो नहीं हुई किन्तु उसमें हल्की-हल्की दरारें दिखाई देने लगी हैं। ये कहना तो गलत होगा कि ये सब हाल-फिलहाल हुआ है परन्तु ये भी सही है कि तमाम दावों के बावजूद वस्तुस्थिति उम्मीदों से काफी कम है। राम राज्य की जो परिभाषा 'दैहिक दैविक, भौतिक तापा, राम राज काहू न व्यापा' के रूप में तुलसीदास ने रामायण में दी वह अपने आप में एक घोषणापत्र थी। कोई भी शासक यदि केवल इसे आधार मानकर सत्ता का संचालन करे तो जनता से किये गये तमाम वायदे बिना ढोल पीटे ही पूरे हो सकते हैं। देश के मौजूदा भाग्यविधाताओं ने रामराज्य का वायदा तो नहीं किया था किन्तु जो कहा वह भी कम नहीं था। उस दृष्टि से कुछ किया नहीं गया ये भले ही न कहें किन्तु जितना किया जाना था उतना नहीं होना ही जनमानस के भीतर उबल रहे आक्रोश और असंतोष की वजह है। भारत सरीखे विविधता ओर विसंगतियों से भरे देश में तीन या पांच साल के भीतर आसमान को जमीन पर उतार लाने के वायदे पूरा करना आसान नहीं है परन्तु ऐसा कुछ तो होना ही चाहिये जो दुख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे का एहसास करा सके। यद्यपि अभी भी उम्मीदों के दिये टिमटिमा रहे हैं किन्तु ये भी सही है कि उनमें भरा गया विश्वास रूपी तेल तेजी से खत्म होने की ओर है। इसके पहले कि असंवेदनशील व्यवस्था के चलते ये दीपक बुझ जाएं, उन लोगों को कुछ करना चाहिए जिन्होंने हर घर में रोशनी का आश्वासन बांटा था। भारत एक महान प्राचीन देश है जो हजारों साल बाद भी उस राम में अखंड आस्था रखता है जो वंशवादी सत्ता के उत्तराधिकारी होने के बाद भी जनवादी थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपने कल्पना के भारत में इसीलिये राम राज्य की स्थापना की इच्छा व्यक्त की थी। कल रात अयोध्या में जो हुआ वह अद्वितीय था। सहस्त्रों दीपों के सामूहिक रूप से जलने के कारण समूचा वातावरण एक दिव्य अनुभूति से आलोकित हो उठा। इस अद्भुत दृश्य ने हर भारतवासी को चाहे वह दुनिया के किसी भी हिस्से में क्यों न रह रहा हो उत्साहित और आल्हादित कर दिया किन्तु उस मनोहारी दृश्य को देखने के उपरांत एक बार फिर उम्मीदों ने ऊँचे आसमान में उडऩा शुरू कर दिया है। राजनीति को सत्ता के उपभोग का साधन मानने वाली मानसिकता को दूर कर यदि उसे बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय नहीं बनाया जाता तब त्रेता में तो केवल एक धोबी नामक नागरिक ने उलाहना दिया था किन्तु हालात में सुधार नहीं हुआ तो उलाहने आर्तनाद का रूप ले लेंगे। योगी आदित्यनाथ ने जो कुछ भी अयोध्या में किया उसने करोड़ों देशवासियों के दिलों में राम भक्ति की धारा नये सिरे से प्रवाहित कर दी है किन्तु ये विरक्ति में न बदल जाए इसके लिये राम राज्य का हल्का सा अनुभव तो कराना ही होगा। ये देश और यहां के लोग केवल आस्थावासन ही नहीं भावुक भी होते है। घास के तिनके से लेकर आकाश गंगा में विचरण कर रहे अदृश्य गृहों तक के प्रति श्रद्धा रखना उनका स्वभाव है। इसी का लाभ उठाकर सियासत के सौदागर उन्हें बहलाने-फुसलाने में कामयाब होते रहे हैं परन्तु जमाने के साथ लोगों की सोच भी बदली है जिसके कारण अंधविश्वास की प्रवृत्ति घटने के आसार उत्पन्न हो चले हैं। लोकतंत्र के लिये ये स्थिति शुभ संकेत हैं। दीपावली को अंधकार पर प्रकाश की विजय के पर्व के रूप में मनाया जाता है। आइये इस अवसर पर हम ये संकल्प करें कि इस देश को मुट्ठी भर नेताओं के भरोसे छोड़ लंबी तानकर सोने की बजाय पूरी तरह चैतन्य होकर जनमत को इतना ताकतवर बनाएंगे जिससे राम राज्य की कल्पना को वास्तविकता में बदला जा सके क्योंकि इसके बिना भगवान राम के प्रति आस्था और श्रद्धा अर्थहीन होगी। दीपावली आप सभी के हृदय में सात्विकता, सद्भाव और संस्कारों के दीप प्रज्जवलित करे यही शुभकामनाएं हैं।

रवीन्द्र वाजपेयी

संपादक

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